जौनपुर की उन भाग्यशाली शहरों में से हैं जहां आज भी लोगों की सुबह गौरैया की चहचहाहट से हुआ करती है | मेरा घर जौनपुर शहर में गोमती किनारे होने के कारण आज भी सुबह सुबह आँगन में गौरैयों का झुण्ड आता जाता रहता है और उनकी चहचाहट से ही सुबह की शुरुआत हुआ करती है |
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जौनपुर के डॉ मनोज मिश्र इस बात पे गर्व महसूस करते हैं की उनके आँगन में आज भी गौरय्या चहचहाती है | मक्के के साथ गौरैया के चित्र उनके ही आँगन के हैं | शायद इसका कारण आज भी जौंपुरियों का अपनी माटी से जुड़ा रहना और मक्के की खेती है | आज भी आँगन में लोग इन गौरैयों को दाना बड़े प्रेम से डालते दिखा जाया करते है | वैसे भी मेरा मानना है की की गाँव का गरीब शहरों के अमीरों से बेहतर हुआ करते हैं क्यूँ की गाँव का गरीब कम से कम कुछ चिड़ियों को तो दाना खिला ही देता है लेकिन यह शहरों के अमीर गरीब को दो वक़्त भी खाना नहीं खिला पाते |
साहित्य में गौरैया- हमारे साहित्य में भी इस प्यारी गौरैया को बहुत स्थान मिला है। लोकगीतों में अक्सर हम सभी ने इसी चिड़िया को अपने आंगन में फ़ुदकते देखा और इसकी आत्मीयता को महसूस किया है|
“चिड़िया चुगे है दाना हो मोरे अंगनवा---मोरे अंगनवा”
इसकी भांति-भांति की क्रियाओं को कवियों साहित्यकारों ने अपने-अपने ढंग से चित्रित करने का प्रयास किया है। घाघ-भड्डरी की कहावतों में तो इसके धूल-स्नान की क्रिया को प्रकृति और मौसम से जोड़ा गया है|
“कलसा पानी गरम है, चिड़िया नहावै धूर। चींटी लै अंडा चढ़ै, तौ बरसा भरपूर।”
यानि कि गौरैया जब धूल में स्नान करे तो यह मानना चाहिये कि बहुत तेज बारिश होने वाली है। आधुनिक काल के कवियों ने भी इस प्यारी चिड़िया को रेखांकित किया है। “मेरे मटमैले आंगन में, फ़ुदक रही प्यारी गौरैया” (शिवमंगल सिंह सुमन) “गौरैया घोंसला बनाने लगी ओसारे देवर जी के” कैलाश गौतम।
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