माना जाता रहा है की किसी शहर की जनता की मानसिकता को समझना हो तो उस शहर के इतिहास को अवश्य पढ़ें और यह बात जौनपुर के लिए सौ प्रतिशत सही साबित होती है |
जौनपुर शहर गोमती नदी के किनारे बसा एक सुंदर शहर है जो अपना एक विशिष्ट ऐतिहासिक, धार्मिक एवं राजनैतिक अस्तित्व रखता है| यहाँ पे गोमती नदी की सुन्दरता आज भी देखते ही बनती है और आज भी इसके शांतिमय तट लोगों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं |कभी यह तट तपस्वी, ऋषियों एवं महाऋषियों के चिन्तन व मनन का एक प्रमुख स्थल हुआ करता था।
गंगा जमुनी तहजीब और साम्प्रदायिक सदभाव जौनपुर की पहचान है और इसका कारन यहाँ का वो इतिहास है जसे मैंने आपके सामने रखा | आज भी साम्प्रदायिक सदभाव और गंगा जमुनी तहजीब की पहचान है शाही किले के फाटक पे लगा यह खम्बा जिसपे एक क़सम लिखी हुयी है जो अपनी कहानी खुद कह रही है |
जौनपुर के भव्य शाही किले का निर्माण फिरोज शाह ने 1362 में कराया था और इसका इस्तेमाल केवल शाही फ़ौज के लिए किया जाता था | इसके सामने के शानदार फाटक को मुनीम खां ने सुरक्षा की दृष्टि से बनवाया था तथा इसे नीले एवं पीले पत्थरों से सजाया गया था।
इसी बाहरी फाटक में दाखिल होने के पहले एक 6 फीट लम्बा खम्बा है जो एक गोल से चबूतरे पे लगा हुआ है | इस 6 फीट के खम्बे पे 17 लाइन की इबारत लिखी हुयी है | ये शिला लेख गोलाकार चबुतरे पे लगा हुआ है और उस पे फारसी मे कुछ लिखा हुआ है | इस शिला लेख की लिखावट सन ११८० हिजरी की है | इसको सैयेद मुहम्मद बशीर खां क़िलेदार ने शाह आलम जलालुद्दीन बादशाह तथा नवाब वज़ीर के समय मे लगवाया था |
सय्यद मुहम्मद बशीर खान ने यहा के शासक और कोतवाल ,फौजदार और निवासियो को चेतावनी दी कि "जौनपुर रियासत की आय मे सैय्यदो व बेवाओं तथा उनसे संबंधित और दीन की सहायता हेतू जो धन निश्चित है उसमे कोई कमी ना की जाय |
हिन्दुओ को राम गंगा और त्रिवेणी और मुसलमानो को खुदा व रसूल (स.अ व ) व पंजतन पाक ,सहाबा और चाहारदा मासूम और सुन्नी हजरात को चार यार की क़सम है कि यदि उन्होंने इसका पालन नहीं किया तो खुदा और रसूल की उसपे धिक्कार होगी और प्रलय के दिन मुख पे कालिमा लगी होगी तथा नर्क निवासियो की पंक्ती मे शामिल होगा | बारह रबिउल अव्वल ११८० हिजरी को इस शुभ कार्य का पत्थर सैयेद मुहम्मद बशीर खां क़िलेदार ने लगवाया |यह शाह आलम द्वितीय का दौर था |
सन ११८० हिजरी में लगे खम्बे पे यदि किसी क़सम में हिन्दू ,शिया और सुन्नी का ज़िक्र है तो यह इस बात का गवाह है की उस समय भी हिन्दू शिया और सुन्नी मुसलमान यहाँ अधिक थे और मिलजुल के रहा करते थे |
किले में तुर्की हमाम जिसे भूलभुलैया भी कहा जाता है उसके करीब एक बंगाली तरीके की मस्जिद भी मौजूद है और उसी के पास एक मीनार है जिसपे इसे बनाने वाले इब्राहीम नयेब बर्बक का नाम १३७७ खुदा हुआ है |
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