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पीले कनेर के फूल
असाढ़ की बारिश
भीगी हुयी गंध।
जी करता है,
अंजुरी भर भर पी लूँ
गीली खुशबुओं वाली भाप।
और चुका दूँ सारी किश्तें
चक्रवृद्धि ब्याज सी
बरस दर बरस बढ़ती प्यास की।
चूर चूर झर रही
चंद्रमा की धूल, कुरुंजि के फूलों पे
कच्ची पगडंडियों से गुजरती
स्निग्ध रात उतर जाती है।
स्वप्नों की झील में
कंपित जलतरंग, दोलित प्रपात
फूट रहे ताल कहीं राग भैरवी के।
ओह्ह …
यह परदा किसने हटाया ?
कि धूप में पड़ी दरार
घाम में विलुप्त ख्वाब ।
रेत हुयी तुहिन बिंदु
ऐंठती हैं वनलताएं निर्जली प्रदेश में
सूखे काठ सा हुआ मन।
कौन है यवनिका?
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