जब नगरो का फैलाव शुरू होता है तो सीधे तौर पर इसका निशाना कृषि योग्य जमीन होती है.विकास का जो पैमाना बनाया गया है वह उद्योगीकरण पर आधारित है अर्थात अधिकाधिक उद्योगों कई स्थापना और कृषि पर न्यूनतम निर्भरता .स्वतंत्रता के पश्चात् हिदुस्तान कई सकल आय में खेती का हिस्सा लगभग ६५ परसेंट थी जो घटते घटते आज २२ परसेंट पर आ गयी है.
यह कोई सकारात्मक संकेत नही है अमेरिका में जरा सा बैक फेल क्या हुए मंदी आ गयी जबकि इसका असर भारत में कम दिखा. इसका कारण आज भी २२ परसेंट वाला हिस्सा ही है. नगरो के साथ उपनगरीय क्षेत्रों का अंधाधुंध फैलाव माल कल्चर सेज ग्रामीण क्षेत्रो में बड़े बड़े उद्योगों कई दखलंदाजी खेती योग्य भूमि को बंजर बनाने का ही कार्य कर रही है जबकि एक ओर सरकार बंजर जमीनों को उपजाऊ बनाने में अरबों रूपये खर्च कर रही है.
नगरो का अनायास विस्तार का अजगरी स्वरुप मात्र ग्रामीण भूमि को ही नही निगल रहा है बल्कि यह उस भूमि से सम्बंधित तकनीक मान्यताओं और प्रकार्यों के साथ न जाने क्या क्या निगल रहा है
नगरो को कभी महान दार्शनिक रूसो ने सभ्यता के परनाले की संज्ञा दी थी. अर्थात ये वे केंद्र हुआ करते थे जहा मानव का उद्विकास तीव्रता से होता था. वर्तमान समय में नगर भ्रस्टाचार धर्मान्धता नैतिक पतन तथा विनाश के केंद्र बन गए है. अपने चरमराते इन्फ्रास्त्रक्चर से जूझते शहर अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे है.
एक आम शहरी २४ घंटे में तकरीबन १८ से १९ घंटे हांफ हांफ कर काम करता है और इसका उसे अनुकूल परिणाम भी नही मिलता . पारिवारिक सदस्यों से अंतर्क्रिया न होने के फलस्वरूप पारिवारिक विघटन जैसी समस्याए अपने चरम बिंदु पर पहुच चुकी है.
इस बात से इनकार नही किया जा सकता की शहरो का जनसँख्या घनत्व बढाने में आस पास के गांवो से आये हुए लोगो की कम भूमिका नही किन्तु यही प्रक्रिया छोटे शहरो से बड़े शहरो की तरफ माईग्रेट करने वाले शहरियों पर लागू होती है. अतः गांवो पर शहरों की जनसँख्या में इजाफा करने वाले लगाए गए आरोप निराधार हैं.
तो क्या यह माना जाय की अब नगर अपने अस्तित्व के बचाव के लिए गांवो को विकल्प के रूप में देख रहे है. यदि ऐसा है (जैसा की विमर्श इंगित करता है)तो मानव सभ्यता बैक गीयर में लग गयी है .
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