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दुनिया जिसे आधी आबादी कहती है वही आधी आवादी मेरे चित्रों की पूरी दुनिया बनती है| यही वह आवादी है जो सदियों से सांस्कृतिक सरोकारों को सहेज कर पीढ़ियों को सौंपती रही है वही संस्कारों का पोषण करती रही है. कितने शीतल भाव से वह अपने दर्द को अपने भीतर समेटे रखती है और कितनी सहजता से अपना दर्द छिपाये रखती है. कहने को वह आधी आबादी है लेकिन शेष आधी आबादी यानी पुरूषों की दुनिया में उसकी जगह सिर्फ हाशिऐ पर दिखती है जबकि हमारी दुनिया में दुख दर्द से लेकर उत्सव-त्योहार तक हर अवसर पर उसकी उपस्थिति अपरिहार्य दिखती है जहां तक मेरे चित्रों के परिवेश का सवाल है, उनमें गांव इसलिए ज्यादा दिखाई देता है क्योंकि मैं खुद अपने आप को गांव के नजदीक महशूस करता हूँ सच कहूँ तो वही परिवेश मुझे सजीव, सटीक और वास्तविक लगता है. बनावटी और दिखावटी नहीं| बार-बार लगता है की हम उस आधी आवादी के ऋणी हैं और मेरे चित्र उऋण होने की सफल-असफल कोशिश भर है| -डा. लाल रत्नाकर
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