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    मंगलवार, 6 जनवरी 2015

    'पुत्र ऋण' !

    लेखिका रेखा श्रीवास्तव 
     माँ तो सदा माँ ही होती है, जननी होती है और जगत्प्रसूता होती है. एक मांस के टुकड़े को कैसे वह वाणी, विचार और संस्कार देकर मानव बनाती  है इसको कोई और नहीं कर सकता है. इसी लिए अगर मानव वाकई मानव है तो वह कहता है कि माँ के  ऋण से कोई मुक्त नहीं हो सकता है. लेकिन समय और संस्कृति के परिवर्तन ने उसका भी विकल्प खोज लिया है और संतान ने भी तो उस  विकल्प को  अंगीकार कर लिया है. ये अपवाद नहीं है बल्कि किसी न किसी रूप में ऐसे इंसान आज मिल रहे हैं कि माँ के त्याग और तपस्या को पैसों से तौल कर उनका कर्ज पैसे से अदा करने के लिए तैयार हैं. एक छोटी से कहानी - मेरी अपनी नहीं लेकिन बचपन में कहीं पढ़ी थी. 

                             वो माँ जिसने बेटे और बेटियों को जन्म दिया और फिर क्षीण काया लिए कभी इस बेटे के घर और कभी उस बेटी के घर सहारा खोजने पर मजबूर होती है. ऐसी ही एक विधवा माँ अपने बेटे के आश्रय में अपने जीवन संध्या के क्षण गुजर रही थी. उसकी पत्नी से नहीं ये नहीं सुहाता था. ( सिर्फ पत्नी को दोष नहीं दे रही बल्कि हर इंसान की अपनी बुद्धि होती है और निर्णय लेने की क्षमता भी होती है. ) अपना तिरस्कार देखते देखते एक दिन माँ आजिज आ गयी और बेटे से बोली कि क्या इसी दिन के लिए मैंने तुम्हें जन्म दिया था? 

    " ठीक है, जन्म दिया था तो एक बार बता दो कि तुम्हें मैं कितना दे दूं कि आपके उस ऋण से मुक्त हो जाऊं. " बेटे ने सपाट शब्दों में कहा. 

    " किस किस की कीमत दोगे बेटा ?" माँ ने बड़े निराशा भरे शब्दों में कहा.
    "आप बतलाती जाइए मैं चैक काट देता हूँ. "
    "सबसे पहले जो मैंने ९ महीने तुम्हें अपने गर्भ में पाला है , उसकी कोई कीमत है तेरे पास." 
    "हाँ है, आप महंगे से महंगे फ्लैट के किराये के बराबर ९ महीने की जगह २ साल का किराया  ले लीजिये. "
    "जो सीने से लगा कर तुम्हें ठण्ड , धूप और बारिश से बचा कर इतना बड़ा किया उसका कोई मोल है?"
    "आप ही लगा दीजिये मैं देने को तैयार हूँ." 
                   माँ समझ गयी कि बेटे का सिर फिर गया है और ये वास्तविकता  से बिल्कुल दूर हो गया है. पैसे के अहंकार ने इसको पागल बना दिया है और ये अहंकार कल को इसके लिए बहुत बड़ी मुसीबत का कारण बन सकती है और मैं इसकी आँखों पर पड़े इस परदे को जरूर हटा दूँगी. 

                 उस रात बेटा अपने कमरे में सोया था और माँ ने जाकर उसके बिस्तर में एक गिलास पानी डाल दिया. गहरी नीद में डूबा बेटा वहाँ से दूर खिसक गया और फिर सो गया. माँ ने वही काम उसके दोनों ओर किया . जब दोनों ओर बिस्तर गीला हो गया तो वह उठ बैठा और माँ को वहाँ देख कर चिल्लाया - ये क्या है माँ? मुझको सोने क्यों नहीं देती हो? ये पानी क्यों डाल रही हो? "

    " बेटा , मैं तो कुछ भी नहीं कर रही हूँ, तुम्हें पुत्र ऋण से मुक्त करने का प्रयास कर रही हूँ, ताकि इस घर से जाने से पहले कोई मलाल न रह जाये कि मैं ऐसा कुछ यहाँ छोड़ गयी हूँ, जिसके बोझ  तले मेरा लाल दबा न रह जाए. "
    "वह तो ठीक है लेकिन ये पानी डालने का क्या मतलब है?" 

    "बेटा , इसी तरह से जब तुम बिस्तर गीला करते थे और मैं खुद गीले बिस्तर में लेट कर तुम्हें सूखा बिस्तर देती थी , पता नहीं कितने महीनों और सालों तक नहीं सोयी थी कि कहीं मेरा लाल गीले में न पड़ा हो. उस ऋण से तुम्हें मुक्त करना है. इसी लिए अब उसको भी वसूल करती चलूँ फिर घर छोड़ दूँगी." 

                   माँ ने इन शब्दों ने शायद बेटे के भ्रम को तोड़ दिया और धन ने मद में डूबा बेटा यथार्थ के धरातल पर आ गया और माँ से अपने शब्दों और व्यवहार के लिए क्षमा मांगी |

    लेखिका रेखा श्रीवास्तव 
    (मेम्बर जौनपुर ब्लॉगर अस्सोसिअशन )
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