यह सच है कि हमें हर वक्त किसी न किसी की ज़रूरत
होती है। फिर चाहे वह ज़िन्दगी में गम का तूफान हो या खुशियों का मेहमान। लेकिन
सवाल यह है कि ज़रूरत पूरी होने के बाद क्या हमें प्राथमिकताएँ बदल लेनी चाहिए?
अपनी ज़िंदगी में हम किसे जगह देंगे और किसे नहीं यह फैसला बेशक हमारा है लेकिन यह
बात समझ में नहीं आती कि आज जो व्यक्ति किसी का सबकुछ है कल उसकी शक्ल से भी नफ़रत
क्यों करने लगते हैं? इंसानी रिश्तों में स्वार्थ पनपने से रिश्ते खराब होते हैं
यह सर्वविदित सत्य है,लेकिन इरादों को भापें बिना सिर्फ़ ग़लतफ़हमी में पड़कर किसी
रिश्तों को ठुकरा देना क्या उचित है? फिर चाहे वह दोस्ती का पवित्र रिश्ता हो या साथ
जीने मरने का सम्बन्ध।
दरअसल बदलते परिवेश में हम आधुनिक होना चाहते
हैं। और हमारे समाज में आधुनिकता का मतलब सिर्फ़ दिखावा भर होता है। रविंद्रनाथ
टैगोर की कहानी “स्त्रीरेर पत्र” (पत्नी का पत्र) में रविन्द्रनाथ ने एक ऐसी
स्त्री की तस्वीर दिखाई है जो समाज में टूटते हुए रिश्तों के झटके को सहन नहीं कर
पाती है। वह ऐसे समाज से नाता तोड़ लेना
चाहती है जहाँ इंसान की कोई इज्ज़त नहीं होती, जहाँ बिना शर्त प्यार भी पाया न जा
सके। हालाँकि यह कहानी आज से वर्षों पहले लिखी गयी लेकिन इसके जीवंत पात्र आज भी
हमारे समाज में हैं। टूटते रिश्ते और छीझते संबंध हमें अंदर से झकझोर देते हैं।
दिल पे लगी चोट इंसान को अवसाद के उस गहरे भँवर में धकेल देता है जिसे सिर्फ़ वही
समझ सकता है जो इसका भुक्तभोगी हो। लेकिन सवाल है वो परिस्थितियाँ कैसे बदले जो
ऐसे हालात पैदा करती हैं?
इन सबकी जड़ में कहीं न कहीं हमारी सामाजिक
व्यवस्थाएं हैं और उसे चलने के लिए बनाये गए कुछ पोंगापंथी नियम हैं। हम उस समाज
में रहते हैं जो आधुनिकता का ढोंग तो रचता है लेकिन मानसिकता बदलना नहीं चाहता।
कपड़ों की तरह रिश्तों को बदलना उसकी आदत हो गयी है। इसीलिए वो रिश्ते भी टूटते हुए
नजर आते हैं जिसकी बुनियाद विश्वास पर टिकी हुई है। कुछ लोग इसके लिए पाश्चात्य
संस्कृति को दोषी ठहराते हैं लेकिन दरअसल इसके लिए दोषी पाश्चात्य संस्कृति का
अंधानुकरण है। इससे भी बड़ा सवाल यह कि क्या हमें खुद की कमियों और गलतियों का
अहसास होता है? और सच मानिए सबसे अहम सवाल यही है। हमारी यह फ़ितरत होती है कि हम
हर चीज़ के लिए दूसरों को दोषी ठहरा देते हैं लेकिन हमारी अपनी ज़िम्मेदारी भी बनती
है जिसे समझना ज़रुरी है। क्योंकि आख़िरकार टूटते रिश्तों की कड़ियों को जोड़ना या और तोड़ देना हमारा ही काम है।
आशा से अधिक अपेक्षा भी रिश्तों में दुरी का
प्रमुख कारण है। इसका यह मतलब कतई नहीं है कि हमें अपेक्षाएं नहीं करनी चाहिए। रिश्तों
की बुनियाद कितनी ही मजबूती से रखी गयी हो लेकिन उसकी जड़ें वास्तव में कितनी मजबुत
हैं इसका ध्यान रखना भी ज़रुरी है। हालाँकि यह भी सच है कि परस्पर समझदारी के
बावजूद भी कभी-कभी हमारे रिश्ते टूटते हैं। ऐसे में गलतियों पर पुनर्विचार ही एक
मात्र रास्ता है। हमें यह भी भूलना नहीं चाहिए कि सबकुछ हमारे हाथ में नही होता।
जहाँ रिश्तों और उसमे पड़ी दरारों की बात आती है वहाँ सामनेवाले की भी कुछ ज़िम्मेदारी
बनती है।
इन सबके बीच कई बार ऐसा देखने, सुनने को मिला है
कि सम्बन्धों के टूट जाने से कई लोगों ने खुद की ज़िंदगी ही खत्म कर ली। इसमें
युवाओं की संख्या अधिक है और खासकर लड़कियां ऐसे कदम ज्यादा उठाती हैं। जबकि ऐसा
करने की ज़रूरत नही है। हालाँकि अवसाद के दौर से गुजर रहे व्यक्ति के पास सोचने और
सही कदम उठाने की समझ नही होती लेकिन फिर भी हमें हालात पर विचार तो करना ही
चाहिए।
फिर हम यह क्यों भूल जाते हैं कि हमारा समाज
इतना खुदगर्ज़ और आत्मकेंद्रित हो गया है कि उसे इन चीजों से फर्क नहीं पड़ता। ऐसे
कुछ लोग हैं जो रिश्तों में प्यार,कद्र और अपनेपन
की तलाश करते हैं इसीको अपना जीवन समर्पित कर देते हैं लेकिन वहीँ ज्यादातर
लोग अपनी ज़रूरत की पूर्ति को ही तवज्जो देते हैं। इन दोनों में सच क्या है इसका
फैसला आपको करना है।
गिरिजेश कुमार
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