इतिहास बनता जा रहा है जौनपुर का पुश्तैनी बीड़ी उधोग |
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जौनपुर का पुस्तैनी बीड़ी उधोग |
इस जनपद में बीड़ी के उधेाग का लगभग सौ वर्षो पुराना एक बिस्मयकारी इतिहास है। इसकी शुरूआत जिले के दो ब्यवसायियो ने किया था। जिनके द्वारासर्व प्रथम भारत एवं अटाला नामक ट्रेड मार्क के नाम से बीड़ी का उम्पादन शुरू किया गया था। भारत बीड़ी के मालिक को मुनीब तथा अटाला बीड़ी के मालिक को खलील के नाम से जाना जाता था। लेकिन जैसे जैसे समाज का बिस्तार होता गया इस उधोग का भी विकास तेजी से आगे बढ़ने लगा। धीरे धीरे जिले तमाम पूंजी पतियो ने अपने को इस उधोग से जोड़ लिया। परिणम हुआ कि दो दशक बीतते बीतते यह उधोग कुटीर उधोग का स्वरूप ले लिया जन जन के रोटी रोजी का एक मात्र जरिया बन गया था। लेकिन कुछ अर्सा बाद ही भारत व अटाला दोनो ब्राण्ड बीड़ी बन्द हो गयी क्योकि इनके वारिसान दूसरे अन्य कारोबार से स्वयं को जोड़ लिये थे।
बीड़ी का उधोग अपने शुरूवात काल से लगभग 50 वर्षेा तक अनवरत बढ़ता ही रहा है। रोटी रोजी के दृष्टिगत लोगो का झुकाव भी इस धन्ध्े की तरफ बढ़ा तो यह कारोबार कुटीर उधोग का स्वरूप ले लिया। उत्पादन इतना बढ़ गया कि जनपद के साथ साथ आस पास के जनपदो हीनही देश के तमाम शहरो में जौनपुर से निर्मित बीड़ी की आपूर्ति होने लगी। बाद में बीड़ी मालिकानो की घटिया नीयति एवं उनके द्वारा श्रमिको का शोषण माल की गुणवत्ता के साथ लापरवाही इस पुस्तैनी कारोबार को पतन की राह पर ढकेल दिया। धीरे धीरे यह उधोग इतिहास का हिस्सा बनने लगा और पुरूष प्रधान यह उधोग अब महिलाओ सहारे अपनी अस्मिता को बचा रहा है। इसके जन्म काल में जो इसकी शाख थी उसी की बदौलत आज यह उधोग थोड़ा बहुत चल रहा है। अन्यथा पूरी तरह से समाप्त हो जाता। भले ही बीड़ी का कारोबार अपनी अस्मिता को खो दिया है लेकिन आज भी प्रदेश के तमाम जिलो में जौनपुर से निर्मित बीड़ी का निर्यात किया जाता है।
बीड़ी उधोग के मालिको (सेवायोजको) द्वारा बीड़ी श्रमिको के शोषण की गाथा बहुत पुरानी व दर्दनाक भी है। इसके मकड़ जाल में फंसा मजदूर तरह तरह की यातनाये झेलने को मजबूर था बीड़ी श्रमिको की स्थित पूर्णतः बधुआ मजदूरो की तरह थी । अपने दर्द की दांस्ता किसी को बताने में भी खासा असमर्थ था। स्थिति यह रही कि बीड़ी बनाते बनाते समय से पहले ही अपने मासूम बच्चो का जीवन सजाये संवारे बगैर ही तमाम तरह के गम्भीर संक्रामक रोगो का शिकार होकर उससे जूझते-जूझते ही इस दुनियंा को अलविदा कह देता था।तत्पस्चात उसके मासूम बच्चे भी बीड़ी बनाने को मजबूर हो जाते रहे है। इस तरह बच्चे भी उसी जाल में फंस जाते रहे।यह क्रम कल भी था और आज भी जारी है। जो एक बार इस धन्ध्े मे श्रमिक के रूप में प्रवेश करलेता है।उसकी अगली पीढ़ी भी इससे उबर नही पाती है। उधमी इसका भरपूर लाभ उठाते हुए ब्यापक स्तर पर इनका शोषण किया जाता है। बीड़ी श्रमिक मालिको की यातनाओ से परेशान होकर जब संगठन बनाकर मालिकानो पर दबाव बनाने का प्रयास किये तब सेवायोजक भी श्रम बिभाग से मिलकर ऐसे नियम बना लिये कि मजदूरों की आवाज मालिको के कानो से टकरा कर वापस लौट जाती थी। श्रम बिभाग के मुताबिक जनपद में शहरी व ग्रामीण सभी क्षेत्रो में कुल 325 बीड़ी के कारखाने है जिसमें 10 बड़े कारखाने बड़े उधमियो के है। इसमे हादीरजा, बाबूराम, 501,मुर्तजा,जोखूराम,अब्दुल अव्वल, चन्द्रिका प्रसाद, मो0 इश्तेयाक, इस्माईल केराकत अदि का नाम प्रमुख है। इसके अलावां 15 से 20 मध्यम दर्जे के उधोगपति है।300 के आसपास छोटी पूंजी के कारोबारी है जो 10से 15 मजदूर रखकर बीड़ी बनवाते है। लगभग एक हजार से अधिक मजदूर तपके के लोग छोटी मोटी गुमटियेां में डेस्क रखकर बीड़ी बनाने के धन्धे से जुड़े है।
श्रम बिभाग के रिपोट के अनुसार कोई भी बड़ा कारोबारी फैक्ट्री एक्ट की श्रेणी में नही आते है। फैक्ट्री की श्रेणी मे आने के लिए एक सेवायोजक के पास कमसे कम 25 मजदूर होने चाहिए। परन्तु प्रत्येक सेवायोजक के पास अधिकतम 15 मजदूर सरकारी एवं उधमी के रजिस्टर में दर्ज है।इसलिए सेवायोजक इस ऐक्ट से मुक्त है। मालिकान अपने सगे सम्बन्धियो के नाम से लाईसेन्स लेकर उसमें 10से 15 श्रमिको का नाम दर्ज कराके बीड़ी बनवा रहे है। साथ ही मजदूरो का खुले आम शोषण कर रहे है। उनके इस कुकृत्य में श्रम बिभाग के अधिकारियो की भूमिका खासी महत्वपूर्ण रहती है। अभिलेखो के अलग प्रत्येक मालिक के पास 500 से 1000 हजार तक श्रमिक बीड़ी की रालिंग बनाने का काम कर रहे है। इन अब्यवस्थाओ के चलते पुरूष अब इससे किनारा कर लिया है। अब महिलाओ के भरोसे यह कारोबार संचालित हो रहा है। सरकारी आंकड़े के अनुसार इस समय ग्रामीण क्षेत्र से लेकर शहरी इलाके में लगभग 12 से 15 हजार श्रमिक बीड़ी की रोलिंग के काम लगे हुए है। इनमे लगभग 7से8 हजार महिलायें एव बच्चे इस उधोग से जुड़े हुए है। एक दशक पूर्व पुरूषो की संख्या 90 प्रतिशत रही जो इब घट कर40 प्रति0 के आसपास हो गयी है।
बीड़ी श्रमिको को संक्रामक रोगो से बचाव एवं उपचार के लिए शासन द्वारा शहर के अन्दर श्रमिक कल्याण केन्द्र के नाम से एक अस्पताल तो खोला गया लेकिन उससे आज तक एक भी बीड़ी श्रमिक का उपचार संभव नही हो सका है। इनके इलाज के नाम पर लाखो रू0 का खेल प्रति वर्ष हो रहा है। जिम्मेदार जन इससे बेखबर है। भारत सरकार ने बीड़ी सिगार सेवा शर्त अधिनियम 1966के तहत श्रमिको के कल्यान हेतु कुछ नियम बनाये गये थे उसकी एक भी धारा का अनुपालन इस जनपद में नही किया जा रहा है। मानक के तहत मजदरी भी नही दी जाती है। चूकि विगत 15 वर्षो से पुरूष इस धन्धे अलग हो गया है। इसलिए अब यह कारोबार पूर्ण रूप से महिलाओ के उपर आश्रित हो गया है।साथ ही साथ पतन की राह पर भी अग्रसर हो गया है। आने वाले एकसे डेढ़ दशक बीतते बीतते यह कारोबार इतिहास काहिस्सा बन कर रह जाने की प्रबल संभावना नजर आ रही है।
इस उधोग मे सबसे महत्व पूर्ण तेदू का पत्ता एवं सुर्ती होती है। जो इस जिले में नही मिलता है। इसे मध्यप्रदेश के जंगलो से लाया जाता हैं। जिसका ठेका एम पी सरकार देती है। उधमी ठेका लेकर तेदू पत्ते को तोड़कर इकठ्ठा करने के बाद उसे सुखा कर बंडल बना कर लाते है। इसकाम में भी श्रमिको की जरूरत होती हैंसुर्ती भी यही पर पैदा की जाती है। इस तरह बीड़ी बन7ाने से लेकर कच्चे माल को तैयार करने तक हर जगह श्रमिक का ही सहारा होता है। और श्रमिको का इससे पलायन होना इस धन्धे को बन्द कराने में सहायक है। इस प्रकार यह कारोबार भले ही पुस्तैनी हो और जिले की पहचान में यहायक बना हो लेकिन भ्रष्टाचार एवं शोषण की एक दर्दनाक कहानी भी इस कारोबार में नजर आती है। जो आज तक लाइलाज बनी है।
लेखक : कपिलदेव मौर्य, वरिष्ट पत्रकार -जौनपुर
मो0 न0 9415281787
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