कभी महर्षि यमदग्नि की तपोस्थली व शर्की सल्तनत की राजधानी रहा जौनपुर आज भी अपने ऐतिहासिक एवं नक्काशीदार इमारतों के कारण न केवल प्रदेश में बल्कि पूरे भारत वर्ष में अपना एक अलग वजूद रखता है. प्राचीन काल से शैक्षिक व ऐतिहासिक दृष्टि से समृद्धिशाली शिराजे हिन्द जौनपुर नगर में आज भी कई ऐसी महत्वपूर्ण ऐतिहासिक इमारतें है जो इस बात का पुख्ता सबूत प्रस्तुत करती है कि यह नगर आज से सैकड़ों वर्ष पूर्व एक पूर्ण सुसज्जित नगर रहा होगा।
प्राचीनकाल में इस बात के सुबूत मिलते हैं की जौनपुर की सभ्यता बहुत पुरानी है और यहाँ बोध धर्म के लोग भी बसते थे जिसका सुबूत में जौनपुर के शाही पुल पे लगी गज सिंह की मूर्ती को माना जा सकता है जिसके बारे में कहा जाता है की गज-सिंह मूर्ति वैदिक धर्मं पर , बौध्ध धर्मं के विजय का सूचक है जिसमे सिंह बोध धर्म का सूचक है | यहाँ पे मतभेद अवश्य है लेकिन बोध धर्म से जौनपुर का सम्बन्ध रहा होगा इसमें कोई मतभेद नहीं |इसमें जो सिंह है उसको शक्ल बहुत अधिक डरावनी थी जिसे देख के घोड़े बिदक जाते थे इसलिए अंग्रेजों के समय में उसके चेहरे को सही किया गया | अआप कह सकते हैं की इसमें सिंह का चेहरा आज वैसा नहीं है जैसा बनाया गया था |
इसके बाद यहाँ पे अयोध्या के राजा दशरथ और श्री रामचंद्र के समकालीन का इतिहास भी मिलता है | जौनपुर से केवल ४ किलोमीटर की दूरी पे एक गाँव है जमैथा जो महार्षि यमदग्नि की तपोस्थली थी | महार्षि यमदग्नि के पुत्र परशुराम थे जिन्हें भगवन विष्णु का छठवां अवतार माना जाता है| इतिहास कारों में एक सहमती तो नहीं लेकिन एक मत यह भी है की उस समय जौनपुर का नाम यमदग्निपुर था और यह इलाका "अयोध्यापुरम" के नाम से जाना जाता था |
मतभेद कितने भी हों लेकिन यह तय है की राजा दशरथ और रामचंद्र जी के समकालीन का इतिहास यहाँ मिलता है और जमैथा में आज भी यमदग्नि ऋषि का मंदिर स्थित है जिसे परमहंस मंदिर के नाम से भी जाना जाता है | यह स्थान परशुराम की जन्म स्थली है और यहाँ दो बार श्री रामचन्द्र जी का आगमन का इतिहास मिलता है |
जौनपुर के शाहगंज इलाक़े में आज भी चूड़ी मेला लगता है जिसके बारे में कहा जाता है की यहां पे सीता जी ने वनवास का त्याग किया था |
नए सिरे से जो अवशेष मिलते हैं उनके अनुसार इस शहर की स्थापना 14वीं शताब्दी में फिरोज तुगलक ने अपने चचेरे भाई सुल्तान मुहम्मद की याद में की थी। सुल्तान मुहम्मद का वास्तविक नाम जौना खां था। इसी कारण इस शहर का नाम जौनपुर रखा गया।
इस ऐतिहासिक किले का र्निर्माण सन् 1362 ई. में फिरोजशाह तुगलक ने कराया। यह किला बहुत बार टूटा और बना और इसमें बने हुयी मस्जिदें द्वार, हमाम इत्यादि एक ही दौर के बने हुए नहीं हैं | यह किला अपने आप में जौनपुर का पूरा इतिहास समेटे हुए हैं जहां खुदाई में ईसा से छः सौ वर्ष पूर्व के खंडहर भी मिले फिर फ़िरोज़ शाह तुगलक के दौर में (सन् 1362 ई) इसका निर्माण हुआ उसके बाद शार्की राज्य आया और उस दौर में यहाँ एक मस्जिद ,स्नान गृह और मदरसा बना जिसका दौर १३६७ ई कहा जाता है और इसके शिलालेख में दर्ज है |
शार्की दौर के बाद मुग़ल काल आया और इस किले के मुख्य द्वार का निर्माण सन् 1567 ई. में सम्राट अकबर ने कराया था। और इस गेट के दरवाज़े पे एक खम्बा लगा है जिसे बादशाह शाह आलम के कोतवाल १७६७ ईस्वी (११८० हिजरी ) में लगवाया था और इस् पे लिखा शिलालेख यह बताता है की उस समय यहाँ पे हिन्दू थे जो राम गंगा त्रिवेणी की क़सम खाते थे और मुसलमान में शिया और सुन्नी दोनों थे |
इसके बाद यह सन १८५७ से पूर्व ही राजा इदारत जहां के हाथ में रहा और १८५७ में अंग्रेजों के खिलाफ पहली जनक्रांति के युद्ध में इसमें बहुत कुछ तोड़ फोड़ हुयी जिसमे इस किले की पश्चिम की दीवार ध्वस्त हो गयी और तब से आज तक यह ऐसा ही बदहाल है |
अकबर के दौर का बना यह शाही पुल |
शाही पुल- तारीख के अनुसार जौनपुर के इस विख्यात शाही पुल का र्निमाण अकबर के शासनकाल में उनके आदेशानुसार सन् १५६२ -१५६७ ई में मुनइन खानखाना ने करवाया था | यह भारत में अपने ढंग का अनूठा पुल है और इसकी मुख्य सड़क पृथ्वी तल पर र्निमित है. पुल की चौड़ाई 26 फीट है जिसके दोनो तरफ 2 फीट 3 इंच चौड़ी मुंडेर है. दो ताखों के संधि स्थल पर गुमटियां र्निमित है.पहले इन गुमटियों में दुकाने लगा करती थी. पुल के उत्तर तरफ 10 व दक्षिण तरफ 5 ताखें है, जो अष्ट कोणात्मक स्तम्भों पर थमा है|
इस ऐतिहासिक पुल में वैज्ञानिक कला का समावेश किया गया है। स्नानागृह से आसन्न दूसरे ताखे के वृत्त पर दो मछलियां बनी हुई है। यदि इन मछलियों को दाहिने से अवलोकन किया जाय तो बायीं ओर की मछली सेहरेदार कुछ सफेदी लिये हुए दृष्टिगोचर होती है किन्तु दाहिनेतरफ की बिल्कुल सपाट और हलकी गुलाबी रंग की दिखाई पड़ती है। यदि इन मछलियों को बायीं ओर से देखा जाय तो दाहिने ओर की मछली सेहरेदार तथा बाई ओर की सपाट दिखाई पड़ती है। इस पुल की महत्वपूर्ण वैज्ञानिक कला की यह विशेषता अत्यन्त दुर्लभ है।
यदि आप शाही पुल के हम्माम से पूर्व की ओर से गोमती नदी के घाट की तरफ जाए तो आपको मंदिरो का सुन्दर दृश्य देखने को मिलेगा । यहाँ सबसे पहले सत्य नारायण जी का मंदिर दिखेगा जो शिल्पकला का बेहतरीन नमूना है । इसे २०० वर्ष पुराना बताया जाता है और इसके दरवाज़े पे एक शिलालेख है जिसपे १८७१ लिखा है । उसे के ठीक सामने दुर्गा देवी का मंदिर है इसका निर्माण भी १०० वर्ष पहले हुआ था । यही गणेश जी और शंकर जी का भी मंदिर है और सबसे अंत में हनुमान जी का मंदिर है जो पंचायती मंदिर कहा जाता है और इसके निर्माण में कसरी लोगो का हाथ है । इस सुंदर नज़ारे को शाही पुल्ल से भी देखा जा सकता है ।
शार्की दौर में बने महलात और मस्जिदें |
१४०२ इ में इब्राहिम शाह शर्क़ी राज्य का बादशाह बना जिसने १४४४ ई ० तक बहुत ही वैभव पूर्वक राज किया । शर्क़ी शासन काल में जौनपुर को " दरुसोरूर शिराज़ ऐ हिन्द " कहा जाता था । शर्क़ी में इब्राहिम शाह के बाद आने वाले बादशाह महमूद शाह, मुहम्मद शाह और हुसैन शाह ने भी जौनपुर को वही शान दिलायी जिसका नतीजा ये हुआ की ये राज्य भारत का सबसे बडा , खुशहाल और सुदर राज्य माना जाने लगा और इसकी राजधानी जौनपुर को शिराज़ ऐ हिन्द कहा जाने लगा ।इब्राहिम शाह ने अपने समय में बहुत सी वाटिकाएं, भवन, दीवान खाने ,दरबार ख़ास, हौज़, पुल्ल मस्जिदें ,सड़के और सराय का निर्माण करवाया ।लाल दरव्वाज़ा ,अटाला मस्जिद (तुग़लक़ के बाद ) झंझरी मस्जिद , खालिस मुख्लिस मस्जिद ,बड़ी मस्जिद इत्यादि का निर्माण भी शार्की समय में ही हुआ है ।
1484 ई0 से 1525 ई0 तक लोदी वंश का जौनपुर की गद्दी पर आधिपत्य रहा| इब्राहीम लोधी ने जौनपुर शहर की सुन्दरता को ग्रहण लगा दिया और यहाँ की मस्जिदों और भव्य इमारतो को बेदर्दी के साथ तोडा | आज जौनपुर में जो खंडहर मिला करते हैं वो सभी इब्राहीम लोधी के ज़ुल्म की कहानी कहते हैं |
प्राचीनकाल में इस बात के सुबूत मिलते हैं की जौनपुर की सभ्यता बहुत पुरानी है और यहाँ बोध धर्म के लोग भी बसते थे जिसका सुबूत में जौनपुर के शाही पुल पे लगी गज सिंह की मूर्ती को माना जा सकता है जिसके बारे में कहा जाता है की गज-सिंह मूर्ति वैदिक धर्मं पर , बौध्ध धर्मं के विजय का सूचक है जिसमे सिंह बोध धर्म का सूचक है | यहाँ पे मतभेद अवश्य है लेकिन बोध धर्म से जौनपुर का सम्बन्ध रहा होगा इसमें कोई मतभेद नहीं |इसमें जो सिंह है उसको शक्ल बहुत अधिक डरावनी थी जिसे देख के घोड़े बिदक जाते थे इसलिए अंग्रेजों के समय में उसके चेहरे को सही किया गया | अआप कह सकते हैं की इसमें सिंह का चेहरा आज वैसा नहीं है जैसा बनाया गया था |
इसके बाद यहाँ पे अयोध्या के राजा दशरथ और श्री रामचंद्र के समकालीन का इतिहास भी मिलता है | जौनपुर से केवल ४ किलोमीटर की दूरी पे एक गाँव है जमैथा जो महार्षि यमदग्नि की तपोस्थली थी | महार्षि यमदग्नि के पुत्र परशुराम थे जिन्हें भगवन विष्णु का छठवां अवतार माना जाता है| इतिहास कारों में एक सहमती तो नहीं लेकिन एक मत यह भी है की उस समय जौनपुर का नाम यमदग्निपुर था और यह इलाका "अयोध्यापुरम" के नाम से जाना जाता था |
मतभेद कितने भी हों लेकिन यह तय है की राजा दशरथ और रामचंद्र जी के समकालीन का इतिहास यहाँ मिलता है और जमैथा में आज भी यमदग्नि ऋषि का मंदिर स्थित है जिसे परमहंस मंदिर के नाम से भी जाना जाता है | यह स्थान परशुराम की जन्म स्थली है और यहाँ दो बार श्री रामचन्द्र जी का आगमन का इतिहास मिलता है |
जौनपुर के शाहगंज इलाक़े में आज भी चूड़ी मेला लगता है जिसके बारे में कहा जाता है की यहां पे सीता जी ने वनवास का त्याग किया था |
नए सिरे से जो अवशेष मिलते हैं उनके अनुसार इस शहर की स्थापना 14वीं शताब्दी में फिरोज तुगलक ने अपने चचेरे भाई सुल्तान मुहम्मद की याद में की थी। सुल्तान मुहम्मद का वास्तविक नाम जौना खां था। इसी कारण इस शहर का नाम जौनपुर रखा गया।
इस ऐतिहासिक किले का र्निर्माण सन् 1362 ई. में फिरोजशाह तुगलक ने कराया। यह किला बहुत बार टूटा और बना और इसमें बने हुयी मस्जिदें द्वार, हमाम इत्यादि एक ही दौर के बने हुए नहीं हैं | यह किला अपने आप में जौनपुर का पूरा इतिहास समेटे हुए हैं जहां खुदाई में ईसा से छः सौ वर्ष पूर्व के खंडहर भी मिले फिर फ़िरोज़ शाह तुगलक के दौर में (सन् 1362 ई) इसका निर्माण हुआ उसके बाद शार्की राज्य आया और उस दौर में यहाँ एक मस्जिद ,स्नान गृह और मदरसा बना जिसका दौर १३६७ ई कहा जाता है और इसके शिलालेख में दर्ज है |
शार्की दौर के बाद मुग़ल काल आया और इस किले के मुख्य द्वार का निर्माण सन् 1567 ई. में सम्राट अकबर ने कराया था। और इस गेट के दरवाज़े पे एक खम्बा लगा है जिसे बादशाह शाह आलम के कोतवाल १७६७ ईस्वी (११८० हिजरी ) में लगवाया था और इस् पे लिखा शिलालेख यह बताता है की उस समय यहाँ पे हिन्दू थे जो राम गंगा त्रिवेणी की क़सम खाते थे और मुसलमान में शिया और सुन्नी दोनों थे |
इसके बाद यह सन १८५७ से पूर्व ही राजा इदारत जहां के हाथ में रहा और १८५७ में अंग्रेजों के खिलाफ पहली जनक्रांति के युद्ध में इसमें बहुत कुछ तोड़ फोड़ हुयी जिसमे इस किले की पश्चिम की दीवार ध्वस्त हो गयी और तब से आज तक यह ऐसा ही बदहाल है |
अकबर के दौर का बना यह शाही पुल |
शाही पुल- तारीख के अनुसार जौनपुर के इस विख्यात शाही पुल का र्निमाण अकबर के शासनकाल में उनके आदेशानुसार सन् १५६२ -१५६७ ई में मुनइन खानखाना ने करवाया था | यह भारत में अपने ढंग का अनूठा पुल है और इसकी मुख्य सड़क पृथ्वी तल पर र्निमित है. पुल की चौड़ाई 26 फीट है जिसके दोनो तरफ 2 फीट 3 इंच चौड़ी मुंडेर है. दो ताखों के संधि स्थल पर गुमटियां र्निमित है.पहले इन गुमटियों में दुकाने लगा करती थी. पुल के उत्तर तरफ 10 व दक्षिण तरफ 5 ताखें है, जो अष्ट कोणात्मक स्तम्भों पर थमा है|
इस ऐतिहासिक पुल में वैज्ञानिक कला का समावेश किया गया है। स्नानागृह से आसन्न दूसरे ताखे के वृत्त पर दो मछलियां बनी हुई है। यदि इन मछलियों को दाहिने से अवलोकन किया जाय तो बायीं ओर की मछली सेहरेदार कुछ सफेदी लिये हुए दृष्टिगोचर होती है किन्तु दाहिनेतरफ की बिल्कुल सपाट और हलकी गुलाबी रंग की दिखाई पड़ती है। यदि इन मछलियों को बायीं ओर से देखा जाय तो दाहिने ओर की मछली सेहरेदार तथा बाई ओर की सपाट दिखाई पड़ती है। इस पुल की महत्वपूर्ण वैज्ञानिक कला की यह विशेषता अत्यन्त दुर्लभ है।
यदि आप शाही पुल के हम्माम से पूर्व की ओर से गोमती नदी के घाट की तरफ जाए तो आपको मंदिरो का सुन्दर दृश्य देखने को मिलेगा । यहाँ सबसे पहले सत्य नारायण जी का मंदिर दिखेगा जो शिल्पकला का बेहतरीन नमूना है । इसे २०० वर्ष पुराना बताया जाता है और इसके दरवाज़े पे एक शिलालेख है जिसपे १८७१ लिखा है । उसे के ठीक सामने दुर्गा देवी का मंदिर है इसका निर्माण भी १०० वर्ष पहले हुआ था । यही गणेश जी और शंकर जी का भी मंदिर है और सबसे अंत में हनुमान जी का मंदिर है जो पंचायती मंदिर कहा जाता है और इसके निर्माण में कसरी लोगो का हाथ है । इस सुंदर नज़ारे को शाही पुल्ल से भी देखा जा सकता है ।
शार्की दौर में बने महलात और मस्जिदें |
१४०२ इ में इब्राहिम शाह शर्क़ी राज्य का बादशाह बना जिसने १४४४ ई ० तक बहुत ही वैभव पूर्वक राज किया । शर्क़ी शासन काल में जौनपुर को " दरुसोरूर शिराज़ ऐ हिन्द " कहा जाता था । शर्क़ी में इब्राहिम शाह के बाद आने वाले बादशाह महमूद शाह, मुहम्मद शाह और हुसैन शाह ने भी जौनपुर को वही शान दिलायी जिसका नतीजा ये हुआ की ये राज्य भारत का सबसे बडा , खुशहाल और सुदर राज्य माना जाने लगा और इसकी राजधानी जौनपुर को शिराज़ ऐ हिन्द कहा जाने लगा ।इब्राहिम शाह ने अपने समय में बहुत सी वाटिकाएं, भवन, दीवान खाने ,दरबार ख़ास, हौज़, पुल्ल मस्जिदें ,सड़के और सराय का निर्माण करवाया ।लाल दरव्वाज़ा ,अटाला मस्जिद (तुग़लक़ के बाद ) झंझरी मस्जिद , खालिस मुख्लिस मस्जिद ,बड़ी मस्जिद इत्यादि का निर्माण भी शार्की समय में ही हुआ है ।
1484 ई0 से 1525 ई0 तक लोदी वंश का जौनपुर की गद्दी पर आधिपत्य रहा| इब्राहीम लोधी ने जौनपुर शहर की सुन्दरता को ग्रहण लगा दिया और यहाँ की मस्जिदों और भव्य इमारतो को बेदर्दी के साथ तोडा | आज जौनपुर में जो खंडहर मिला करते हैं वो सभी इब्राहीम लोधी के ज़ुल्म की कहानी कहते हैं |
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