आज सावन का आख़री दिन है,पिछले दो दशक से लगातार मद्धिम होते कजरी के लोकगीतों में यह मेरे लिए पहला अवसर है जब पूरा सावन बीत गया और कानों में कजरी के गीत नहीं सुनाई दिए.मैं हैरान हूँ और दुखी भी कि हमारी लोक संस्कृति कहाँ चली गयी.जब गांव में यह हाल है तो शहरों में किसे फुर्सत है|
उत्तर-प्रदेश में ,मिर्ज़ापुर की कजली बहुत मशहूर हुआ करती थी,हमारा जिला जौनपुर भी इससे सटा होने (और जौनपुर-मिर्ज़ापुर के वैवाहिक रिश्तों में जुडा होने के) कारण पूरा सावन कजरी मय होता था. इस लोक-गीत में जहाँ एक ओर विरह की वेदना के स्वर रात में दस्तक देते थे तो वहीं दूसरी ओर यह हमारे अतीत के ऐतिहासिक पन्नों को भी अपनेँ साथ लिए चलती थी.यह कजरी की बानी हमारी लोकसंस्कृति की पुरातन गाथा भी थी और दिग्दर्शिका भी.यह सब आज अतीत में लीन हो चली है|
आज रक्षा बंधन के दिन मुझे बचपन में सुनी गयी और आज भी मेरे अंतर्मन में रची-बसी लोक गीत कजरी के बोल याद हो आये जिसमें भाई-बहन के प्यार को गूंथा गया है.इस कजरी के बोल संभवतः उन दिनों में लिखे गये जब देश में टेलीफोन -मोबाईल तो छोड़िये ,यातायात के भी साधन नहीं थे|
बहन ससुराल में हैं,राखी वाले दिन आँगन की सफाई करते झाड़ू टूट जाती है और फिर शुरू होता है सास का तांडव।
कई बहनों में भाई एकलौता था,सास भाई का नाम लेकर गाली दाना शुरू कर देती है-बहन गुहार लगती है कई मुझे चाहे जो कह लीजिये मेरे भाई को कुछ मत कहिये. इसी बीच भाई आ जाता है,उसके भोजन में खाने के लिए बहन की सास सड़ा हुआ कोंदों का चावल और गन्दा चकवड़ का साग परोस देती है. भाई बहन की यह दुर्दशा देख रोने लगता है और अगले ही दिन घर जाकर एक बैलगाड़ी झाड़ू बहन के घर लता है ताकि उसकी बहन को फिर कोई कष्ट न दे।
कजरी की लोकधुन वैसे भी बहुत मार्मिक होती है .बचपन में जब हम लोग यह गीत रात के सन्नाटे में सुनते थे,आंसू आ जाते थे.आज उसी गीत के बोल आप तक पहुंचा रहा हूँ,मुझे लगता है कि अब इस गीत के बोल भी लगभग लुप्त हो चुके हैं।॥
अंगना बटोरत तुटली बढानियाँ अरे तुटली बढानियाँ,
सासु गरियावाई बीरन भइया रे सांवरिया,
जिन गारियावा सासु मोर बीरन भइया ,अरे माई के दुलरुआ ,मोर भइया माई क अकेले रे सांवरिया,
मचियहीं बैठे सासु बढैतींन ,
अरे भइया भोजन कुछ चाहे रे सांवरिया ,
कोठिला में बाटे कुछ सरली कोदैया,
घुरवा-चकवड़ क साग रे सांवरिया,
जेवन बैठे हैं सार बहनोइया
सरवा के गिरे लाग आँस रे सांवरिया,
कि तुम समझे भइया माई क कलेउआ ,
कि समझी भौजी क सेजरिया रे सांवरिया,
नांही हम समझे बहिनी माई क कलेउआ ,
नाहीं समझे धन क सेजरिया रे सांवरिया ,
हम तो समझे बहिनी तोहरी बिपतिया ,
नैनं से गिरे लागे आँस रे सांवरिया,
जब हम जाबे बहिनी माई क घरवा ,
बरधा लदैबय बढानियाँ से सांवरिया,
घोड़ हिन्-हिनाये गये ,सासु भहराय गये ,
आई गयले बिरना हमार रे सांवरिया.....
कजरी की लोक धुन से परिचित कराने के लिए इस गीत की दो लाइनों को मैंने अपना स्वर दे दिया है,शेष पूरा गीत ,फिर कभी...
डॉ मनोज मिश्र के ब्लाग से साभार.
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