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    रविवार, 19 अक्तूबर 2014

    लोक संस्कृति पर उपभोक्तावादी संस्कृति के मंडराते खतरे –श्रद्धा

    लोक संस्कृति पर उपभोक्तावादी संस्कृति के मंडराते खतरे –श्रद्धा

    लोक संस्कृति सभी संस्कृतियों का उत्स है। वस्तुतः लोक संस्कृति में सामाजिक समरसता और जियो और जीने दो का भाव था जबकि आज के समाज पर हावी उपभोक्तावादी संस्कृति में विनाष और केवल अपने लिए सब कुछ समेट लेने का भाव है। लोक संस्कृति जॅंहा प्रकृति के साथ जुड़ाव की संस्कृति थी वहीं उपभोक्तावादी संस्कृति केवल प्रकृति का दोहन करना जानती है। आज जो इतनी सारी विपदाएं हमारे सामने विकराल रूप धारण किये है उसके पीछे भी कहीं न कहीं यह उपभोक्तावादी संस्कृति है जो सिर्फ लेना ही लेना जानती है।
    उपभोक्तावादी संस्कृति की वजह से आज हमारे  मूल्यों का ह्रास होता जा रहा है। कमोबेष षहर तो इसके षिकार थे ही किन्तु यह स्थिति गाॅंवों को और भी तेजी के साथ अपनी चपेट में ले रही है। संयुक्त परिवार का विघटन, आपसी क्लेष, द्वेश और ईश्या के चलते ग्रामीणों में भी भाईचारे की भावना खत्म होती जा रही है। नये राजनैतिक हस्तक्षेपों से समाज ज्यादा वर्गाें और धड़ो में बॅंट गया है। राजनैतिक समीकरणों को बैठाने के चक्कर में बाहरी षक्तियां कई बार जानबूझकर इनके बीच द्वेश फैलाती है। बदली हुई राजनैतिक परिस्थतियों में आज वह वर्ग धीरे धीरे हावी होने लगे है, जिन्हें एक समय तक बहुत दबा कर रखा जाता था। षिवमूर्ति का तर्पण, सगीर रहमानी का अषेश, और रामधारी सिंह दिवाकर का उपन्यास अकाल सन्ध्या इस स्थिति को बड़ी बारीकी से स्पश्ट करता है।
    उपभोक्तावादी प्रवृत्ति षहरों में बढ़ी है और ग्रामीण निरंतर षहरों की ओर खिंच रहे हैं, निरंतर छोटी हो रही जोतों ओर दिन भर हाड़ तोड़ने के बाद भी अपनी आवष्यक जरूरतों को पूरा न कर पाने वाला ग्रामीण षहरों में मजदूर बनने को विवष है। गाॅंव की खुली हवा में साॅंस लेने वाले लोग षहर की बन्द कोठरियों, सीलन और बदबूदार झोपडि़यों में रहने को मजबूर है।


    उपभोक्तावादी संस्कृति पष्चिम की देन है और उपनिवेषवाद के दौर से ही इसकी षुरूआत मानी जा सकती है। औद्योगिक क्रान्ति के साथ साथ उपभोक्तावादी संस्कृति का जन्म आवष्यक हो गया था। उद्योग लगाने के साथ ही मुनाफा कमाने की जद्दोजहद षुरू हो जाती है। विज्ञापन की विधिवत षुरूआत भी औद्योगिक क्रान्ति के बाद ही हुई। विज्ञापन भी उपभोक्तावादी संस्कृति को बढ़ाने वाला ही एक माध्यम है। विज्ञापन के द्वारा लोगो में लालच पैदा किया जाता है , सपने बेचे जाते है। आज गोरा बनाने वाली क्रीमों के जितनें विज्ञापन आते है उनकी वास्तविकता यह है कि वह एक तरह का भ्रम बेच रहे हैं जो लोगों में इस गलत धारणा का निर्माण करती है कि गोरा होना मात्र ही सुंदरता का पर्याय है। इसी तरह सौंदर्य उत्पादों के नाम पर जितनी भी चीजें बेची जा रहीं हैं वह थोड़े समय के लिए कारगर लग सकतीं है पर लंबे समय तक इनका इस्तेमाल आपको घातक रोगों का षिकार बना सकता है। एक बार इन अप्राकृतिक रसायनों का इस्तेमाल करने के बाद जब आप समस्या के निवारण के लिए डाक्टर के पास जाते है तो महगीं दवाईयों का क्रम षुरू हो जाता है और जैसे ही आप इन दवाईयों का इस्तेमाल बंद करते हैं आपकी दषा पहले से भी खराब हो जाती है। यह एक ऐसा चक्र है जिससे आप छुटकारा नहीं पा सकते। बाजारू चकाचैध से प्रभावित होकर आपने एक बार जिस उत्पाद का प्रयोग किया वह आपको जीवन भर अपने उपर निर्भर बना देता है। उपभोक्तावाद लोगों की इसी प्रवृत्ति का फायदा उठाता है।


    इस समय बाजार मंे उपलब्ध ‘रेडी टू ईट फूड’ का प्रचलन बढ़ रहा है, पष्चिम की तर्ज पर और सुगम होने के कारण कामकाजी महिलाओं में इसके लोकप्रिय होने की पूरी सम्भावनाएं हैं। लेकिन मा के हाथ के खाने से बच्चों का जो भावनात्मक रिष्ता होता है उसमें इस ‘रेडी टू ईट’ वाली संस्कृति से कहीं न कहीं विचलन जरूर आएगी।
    थोड़े में भी खुष रहने वाली जिस लोक संस्कृति को, ज्यादा को भी कम समझने वाली जिस उपभोक्तावादी संस्कृति ने कवस्थापित किया है उसमें लोग भूख मिटाने के लिए नहीे स्वाद बदलने के लिए खाते हैे और तन ढ़कने के लिए नहीं फैषन के लिए कपड़े पहनते हैं। एक वक्त था जब लोग सोचते थे एकमुष्त पैसे क्यों न लग जाय पर चीज टिकाउ होनी चाहिये। पर आज नित नया फैषन आ रहा है और लोग भी रोज कुछ नया चाहते है। इसलिए कुछ तो लोग जानबूझकर ऐसी चीजें खरीदते है जो थोड़े वक्त चलें, और कम्पनियांॅ भी ऐसा माल बनाती है ताकी वह जल्दी खराब हो जाय और लोग बार बार खरीदें। इससे कम्पनियांॅे को आर्थिक लाभ होता है। ‘यूज एण्ड थ्रो’ की यह अवधारणा उपभोक्तावादी संस्कृति  की ही देन है। यह मंत्र आज वस्तुओं के साथ ही नहीं बल्कि लोग आपसी सम्बन्धों के बीच भी इस्तेमाल कर रहें हैं। जिसके कारण एक ऐसे समाज का निर्माण हो रहा है। जिसके कारण एक ऐसे समाज का निर्माण हो रहा है जो दिन ब दिन अविष्वसनीय होता जा रहा है।



    इसी वजह से षहरों में आज एकाकीपन बढ़ा है। लोगों की मानसिकता इतनी संकुचित होती जा रही है कि वे अपने आसपास में कश्ट में फंसे व्यक्ति को देखकर कन्नी काट लेते है और सबकुछ जानते बूझते हुए भी अपनी हुए भी अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में व्यस्त रहते हैं इसीलिए हमाारे समाज में भी ऐसी अनहोनी घटनाएं घटने लगी है जिनकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। अभी हाल में अखबारों के माध्यम से प्रकाष में आई नोएडा की दो बहनों की कहानी इसी की एक छोटी सी नजीर कही जा सकती है।
    लोक संस्कृति को पिछड़ी संस्कृति मानकर भले ही हम उससे मुॅंह फेर लें , मगर इस संस्कृति के फायदे हमें वैसे वैसे पता चलते जाएगंे जैसे जैसे उपभोक्तावादी संस्कृति के नुकसान हमारे सामने आएगें। लोक संस्कृति में समाज का आपके निजी जीवन पर भी नियंत्रण बना रहता था। आपको समाज की एक इकाई के रूप में देखा जाता था। समाज यदि आपके सुख का भागीदार था तो आपके दुख में भी हाथ बंटाता था। यद्यपि इसके लिए हमें कई बार उसके कुछ कठोर नियमों का भी पालन करना पड़ता था। कई बार नृषंसता लोक संस्कृति का अनिवार्य अंग लगने लगती है जैसा कि हाल फिलहाल में आए खाप पंचायत के फैसलों में दिखाई देता है। लेकिन फिर भी एसी घटनाएं कभी कभार ही घटती हैं।


    उपभोक्तावादी संस्कृति के भी अपने खतरे हैं । उपभोक्तावादी संस्कृति का एक बड़ा दुश्परिणाम यह हुआ कि आर्थिक अव्यवस्था फैल गई, और आर्थिक मंदी के एक बड़े दौर से विष्व की प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं को लगातार जूझना पड़ा। जिसके असर से अब भी कई देष उबर नहीं पाये हैं। कह सकतें हैं कि भारतीय लोक संस्कृति के ही एक तत्व जिसमें उधार पर जीवन जीना बुरा माना जाता है के कारण लोगों ने उस तरह से लोन पर भौतिक सुख सुविधाओं का ताष का महल खड़ा करने की कोषिष नहीं की जैसाकि पष्चिमी देषों में हुआ। पष्चिमी देषों में ज्यादातर लोगों ने बैंक से लोन लेकर गाड़ी इत्यादी भौतिक सुख सुविधाओं की चीजें तो खरीद लीं किन्तु बैंकों के पैसे वापस नहीं किये। ज्यादा कर्ज देने की वजह से बैंकों की अर्थव्यवस्था चरमरा गई और ज्यादातर बैंक सरकारी सहायता मिलने के बावजूद डूबते चले गये। अति किसी भी चीज की अच्छी नहीं होती, उपभोक्तावादी संस्कृति ने जिस तेजी के साथ पाॅंव पसारे थे उसी तेजी के साथ उसका खोखलापन भी सामने आ गया।


    भूमण्डलीकरण का दौर जिन सुनहरे ख्वाबों को लेकर आया था उनकी सच्चाई आज हमारे सामने आ चुकी है। भूमण्डलीकरण और विष्वबन्धुत्व के नाम पर विकास की बातें की जा रहीं थीं वह पूरी तरह खोखली साबित हो चुकी हैं। अन्यथा अमेरिका जैसे विकसित देष जो उपभोक्तावादी संस्कृति की नुमाइंदगी करते हैं वे आर्थिक मंदी से पूरी तरह चरमरा न गये होते। अमेरिका एक ऐसा देष है जो किसी चीज का बड़े पैमाने पर उत्पादन नहीं करता, ज्यादातर चीजें आयातित करता है फिर भी सबसे धनवान देष है और सारे विष्व पर अपना प्रभुत्व जमाता है। तत्कालीन अमेरिकी राश्ट्र्पति बराक ओबामा आर्थिक मंदी के बाद वहाॅं की अर्थव्यवस्था को सम्हालने में लगे हैं इसलिए रोज आम जनता को नई नई सलाह देते हैं। उन्हें भारतीय डाक्टर जो कम दाम में ज्यादा काम करते हैं तो अपने देष में मंजूर है मगर अमेरिकी नागरिकों का भारत आकर सस्ता ईलाज करवाना मंजूर नहीं।


    वे अमेरिकी नागरिकों केा अमेरिका में ही ईलाज करवाने की सलाह देते हैं ताकि उनके देष का पैसा उनके देष में ही रहे। किन्तु भारत के नागरिकों के द्वारा चुकाए गए कर के पैसों पर डाक्टर, इन्जीनियर बने भारतीय से उन्हें कोई गुरेज नहीं। जबकि आज भी भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में कोसों तक एक अच्छा डाक्टर ढ़ूढ़ने से भी नहीं मिलता। आधे लोग तो डाक्टर के पास पहुॅंच ही नहीं पाते और जो पहुॅंच पाते हैं वे झोला छाप डाक्टरों के षिकार हो जाते हैं। यह हालात गाॅंव के डाक्टरों के नहीं बल्कि भारत की राजधानियों के कुछ अच्छे अस्पतालों के भी हैं। यह कैसा भूमण्डलीकरण है जिसमें एक देष अपनी सहूलियत के अनुसार दूसरे देष का दोहन करने की आजादी पा लेता है। उपभोक्तावादी संस्कृति केवल किसी चीज को पा लेने भर से आपको संतुश्ट नहीं रहने देती बल्कि वह व्यक्ति को इतना लालची बना देती है कि वह बाजार में उपलब्ध प्रत्येक वस्तु की चाहना करने लगता है। जरूरत से ज्यादा इकट्ठा करने की यह प्रवृत्ति व्यक्ति की विचारषीलता को कुंद कर देती है। गांधी जी ने कहा था कि जब भी कोई काम करने चलो, सबसे पहले अपने देष के सबसे गरीब के बारे में सोचो कि इस काम से उसे क्या लाभ होगा! विकासषील  देषों को हाषिए के व्यक्ति का ध्यान रखते हुए विकास करने की सलाह गांधी जी ने बहुत पहले दी थी किन्तु लोग इस मानवता के मंत्र को भूल चुके हैं। जिनके पास क्रयषक्ति है वे विदेषी खिलौनो जैसे लैपटाप, मोबाईल इत्यादि के नए नए माडलों को खरीदने में लगें हैं जबकि उन्हीं के देष में सैकड़ों लोग भुखमरी के षिकार हैं। गजब की बात है कि हमारे नीति निर्माता भी उपभोक्तावादी संस्कृति को बढ़ावा दे रहे हंै। पिछले दस वर्शों में लोगो की क्रयषक्ति बढ़ी है तो लैपटाप, मोबाईल, गाडि़यांॅ सस्ते हुए हैं किन्तु अनाज, सब्जी और खाद्य पदार्थों के दाम उपर जा रहे है। क्या हमारी न्यूनतम आवष्यकताएं लैपटाप, मोबाईल और गाडि़यांॅ हैं!
     
    इलेक्ट्र्ानिक उत्पादों का आयात बढ़ा है जबकि हमारी कृशि उत्पादन क्षमता हमारी जनसंख्या के अनुपात में नहीं बढ़ी। कृशि भूमि पर कंक्रीट के जंगल खड़े किये जा रहे हैं। वनों का दोहन हो रहा है, भू-संसाधनों जैसे कोयला, पानी सभी का तेजी से क्षय हो रहा है। ऐसा लग रहा है मानो सबकुछ को हड़प लेने की बाॅंट जोह रहे हमारे चंद उद्योगपति पृथ्वी का सारा रस निचोड़ लेना चाहते हैं। बाद की पीढि़यों के लिए क्या रह जाएगा इसकी चिंता किसी को नहीं।


    आज हमारे देष में आतंकवाद से भी बड़ी चुनौती नक्सलवाद के रूप में सामने खड़ी नजर आ रही है तो उसके पीछे यही सब कारण है। संजीव के उपन्यासों जैसे जंगल जॅंहा षुरू होता है, धार, सावधान नीचे आग है, छत्तीसगढ़ और झारखण्ड की पृश्ठभूमि पर इन्हीं समस्याओं को उठाने वाले उपन्यास है।

    उपभोक्तावादी संस्कृति का सबसे ज्यादा खामियाजा समाज के सबसे निचले तबके को झेलना पड़ता है। आदिवासी हमारे समाज के सबसे अधिक हाषिए पर हैं। सरकार उनके विकास के लिए कोई ठोस कदम नहीें उठाती इसके विपरीत उनके प्राकृतिक संसाधनों जंगल और पानी पर भी कब्जा करती जा रही है और इन पर कब्जाकर बहुराश्ट््रीय कम्पनीयों को सस्ते दामों पर बेचती जा रही हैं। ये बहुराश्ट््रीय कम्पनियाॅ आदिवासियों को मजदूर बनाकर परोक्ष रूप से इन पर षासन करना चाहती हैं। यह स्वतंत्र भारत के भीतर उपनिवेषवाद के ही एक दूसरे स्वरूप के पनपने जैसा है। अपने ही संसाधनों पर इन आदिवासी लोगों का अधिकार समाप्त कर दिया जाना सरकारी तंत्र द्वारा इनके षोशण का साक्षात प्रमाण है। राकेष कुमार सिंह के उपन्यास पठार पर कोहरा और जहाॅ खिले हैं रक्तपलाष ऐसे ही आदिवासी बहुल इलाकों की बात करते हंै। ऐसे में जब इन आदिवासी जातियों के सामने जीने और खाने के प्रष्न महत्वपूर्ण होते जा रहे हों, उनकी अपनी संस्कृति के समाप्त होने के पूरे आसार बन चुके हों और उन्हें एक अप्राकृतिक स्थिति में जबरदस्ती ढकेला जा रहा हो तो उनका षासन के खिलाफ बन्दूक उठाना स्वाभाविक सा लगने लगता है। मगर बन्दूक से किसी बात का हल नहीं निकल सकता यह तथ्य भी उतना प्रामाणिक है इसलिए आदिवासियों की समस्या को सुना जाना चाहिए और सरकार को उनके हितों का ध्यान रखना चाहिए।

    भारत एक लोकतंत्र है जिसमें लोक का महत्व सबसे अधिक होना चाहिए लोक की संस्कृति को कायम रखने से ही हमारी स्वाभाविक प्रगति हो सकती है। किसी थोपी हुई उपभोक्तावादी संस्कृति से केवल विनाष और आपसी विद्वेश ही फैलेगा। आज जरूरत इस बात की है कि अन्धाधुन्ध आधुनिकता की दौर में षामिल होने के लिए अपनी सांस्कृतिक मूल्यों की अनदेखी न की जाय बल्कि उन मूल्यों की रक्षा करते हुए आगे बढ़ने के प्रयास किए जायं।












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