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    शुक्रवार, 17 अक्तूबर 2014

    यह परदेसियों के घर वापस लौटने का बखत है।---दीपावली पे कुछ ख़ास डॉ पवन विजय

    अगहनी अरहर फूली है। पीली पंखुड़ियों की संगत नम खेतों में पके धान खूब दे रहे हैं।
    अरहर के फूलो पे उतरी /कार्तिक की पियराई सांझ ।

    लौटे वंशी के स्वर /बन की गंध समेटे /सिंदूरी बादल से /चम्पई हुयी दिशाएं
    हलधर के हल पर उतरी /थकी हुयी मटमैली सांझ।

    बजड़ी, तिल, पटसन और पेड़ी वाली ऊख के खेतों को देख कर करेजा जुड़ा जाता है। पोखर की तली में बुलबुले छोड़ते शैवालों जैसे हम बच्चों के मन में भी खुशियों के बुलबुले उठते है आखिर दीवाली का त्यौहार जो आने वाला है। बँसवारी के उस पार बड़े ताल में डूबता सूरज धीरे धीरे पूरे गाँव को सोने में सान देता है।

    आलू की बुवाई की तैयारियां चल रही हैं। भईया मिट्टी और पसीने से सने हेंगा घेर्राते हुये बैलों के साथ आते दिखाई देते हैं। मैं दौड़ कर उनके हाथ से 'पिटना' ले लेता हूँ। कई दिनों से मेरा बल्ला सिरी लोहार के यहाँ बन रहा है तब तक क्रिकेट खेलने के लिए उस 'पिटने' से ही काम चला रहा हूँ। पीछे पीछे छटंका और झोन्नर कहार भी आ रहे है। झोन्नर हल चलाते हैं और छटंका हराई में दाना बोती जाती हैं। अम्मा जल्दी से उनके लिए मीठा पानी की व्यवस्था करती हैं।

    झोन्नर गुणा भाग करते है 'इस बार दिवाली में पीपल वाले बरम बाबा को सिद्ध करूँगा।' छटंका चुटकी काटती है 'उस बरम को मऊवाली तेली के दूकान में भेज देना बरम दूकान की रक्सा करेगा ई सारे बलॉक वाले उसका पईसा खा जाते हैं।' फिर दोनों हो हो हो कर हँसते है। तभी बड़के बाबू इनारा से आते हैं नऊछी से हाथ पोंछते बोले " का हो राजू सबेरे जल्दी उठि जाया अन्तरदेसी में भइकरा भोरहरे पहुंचे के लिखे रहेन।" भईया सिर हिला देते हैं।


    कालि बाबू अईहै ना? हम अम्मा से पूछते हैं। अम्मा हमें कोरां में लेकर माथा चूम लेती हैं।
    यह परदेसियों के घर वापस लौटने का बखत है।

    फूटी मन में फुलझड़िया पूरण होगी आस,
    परदेसी पिऊ आ गए गोरी छुए अकास।
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