ऐसे ही अपने वतन जौनपुर की सैर कर रहा था की नज़र पड़ गयी अटाला मस्जिद के पीछे चादर बिझा के बैठे गरीब पिपिहरी वालों पे और याद आ गया बचपन के वो दिन जब इन्हें खरीद के दिल कितना खुश होता था और इन्हें बजाते खुश होते इधर उधर घूमा करते थे |

अब उम्र दराज़ हूँ लेकिन इन पिपिहरी को देख एक ख़ुशी सी महसूस हुयी और सोंचा इनको बनाने वालों का भी हाल चाल ले लिया जाय | जैसे ही मैंने कैमरा निकाला इनके बच्चे जो पिपिहरी बना रहे थे सामने आ के अपना करतब दिखाने लगे और इन्हें बजा बजा के सुनाने लगे |
बस यह इतने में ही खुश थे की कोई उनसे बातें कर रहा है उनसे उनका हाल पूछ रहा है उनकी तस्वीर खींच रहा है जबकि यह बात वो भी जानते थे की जहां भी उनकी तस्वीर छपेगी उसे देख पाना उनके वश में नहीं क्यूँ की ना उन्हें इन्टरनेट का पता है और ना ही अनारोइड फ़ोन है उनके पास |

उनसे पूछने पे मालूम हुआ की यह पास के एक गाँव कजगांव से आते हैं और यही पिपिहरी बना के बाज़ार में पूरे दिन जा जा के बेचते हैं फिर शाम ढले लौट जाते हैं जो कमाया उसे साथ ले के | एक पिपिहरी 10 रुपये की बिका करती है जिसमे उनके अनुसार केवल २-३ रूपए का फायदा हुआ करता है | इनसे बात करके दिल खुश हो गया की कैसे यह गरीब अपना दुःख भूल के औरों को खुशियाँ बांटते रहते हैं |

बढ़िया पोस्ट ।
जवाब देंहटाएंआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ’रंगमंच के मुगलेआज़म को याद करते हुए - ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
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