लेखक डॉ अरविन्द मिश्रा |
अब वैसे तो चारण का हुनर एक पेशागत कर्म नहीं रहा मगर आज भी लोग बेमिसाल उदाहरण अपने स्वामी/ आका को खुश करने के लिए देते ही रहते हैं. ताजा उदाहरण एक राजनेता का है जिसमें उन्होंने पार्टी अध्यक्ष को सारे राष्ट्र की माता का अयाचित, अनाहूत दर्जा दे दिया। लोगबाग़ विस्मित और उल्लसित भी हो गए चलो चिर प्रतीक्षित राष्ट्रपिता की कोई जोड़ी तो बनी।
चापलूसी थोडा अधिक बारीक काम है। यह प्रत्युत्पन्न बुद्धि, हाजिरजवाबी या वाग विदग्धता(एलोक्वेन्स ) की मांग करता है।वक्तृत्व क्षमता (रेटरिक ) के धनी ही बढियां चापलूस हो सकते हैं। परवर्ती भारत में बीरबल को इस विधा का पितामह कह सकते हैं। वे अपने इसी वक्तृता के बल पर बादशाह को खुश करते रहते थे। पूर्ववर्ती भारत में तो यह विधा सिखायी जाती थी। महाभारत में ऐसे संकेत हैं।आज जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में चापलूसी के उदाहरण मिलते ही रहते हैं मगर उनका स्तर घटिया सा हो चला है।
बॉस को खुश करने के लिए ऐसे बेशर्मी से भरे खुले जुमले इस्तेमाल में आते हैं कि आस पास सुनने वाले को भी शर्मिदगी उठानी पड़ जाती है -अब चापलूसी में वक्तृता का पूरा अभाव हो गया है। और वैसे ही आज के बॉस हैं, जो चाहे राजनीति में हों या प्रशासनिक सेवा में बिना दिमाग के इस्तेमाल के कहे गए "सर आप बहुत बुद्धिमान हैं " जैसे वाक्य पर भी लहालोट हो जाते हैं. मतलब गिरावट दोनों ओर है -चापलूसी करने वाले और चापलूसी सुनने वाले दोनों का स्तर काफी गिर गया है।
वैसे शायद ही कोई होगा जिसे अपनी प्रशंसा अच्छी न लगती हो। मगर वह सलीके से की तो जाय। बेशर्म होकर केवल चापलूसी के लिए चापलूसी तो कोई बात नहीं हुयी। यह एक कला है तो कला का कुछ स्तर तो बना रहना चाहिए। कभी कभी मुझे कुछ लोग कह बैठते हैं 'मिश्रा जी आप बहुत विद्वान् आदमी हैं' मैं तुरंत आगाह हो उठता हूँ कि ऐसी निर्लज्ज प्रशंसा का आखिर असली मकसद क्या है? कोई न कोई स्वार्थ जरुर छिपा होता है इस तरह की स्तरहीन चापलूसी में। मगर मैं हैरान हो रहता हूँ जब मैं पाता हूँ कि कई ऐसे सहकर्मी अधिकारी हैं जिन्हे अपने मातहत से चापलूसी सुने बिना खाना ही हजम नहीं होता। उन्हें चापलूसी करवाते रहने की आदत सी पडी हुयी हैं। कुछ तो चापलूसी करने वाले स्टाफ को अपने साथ ही लगाए रहते हैं और उसे अवकाश पर भी जाने देने में हीला हवाली करते हैं। बिना चापलूसी के दो शब्द सुने उनका दिन ही नहीं कटता।
चापलूसी सुनने का ऐसा व्यसन भी तो ठीक नहीं !
लेखक डॉ अरविन्द मिश्रा
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