दुनिया में एक से बढकर एक चमकदार वजनी और सप्तरंगी चमक बिखेरने वाले हीरे विधमान हैं परन्तु उनमे से कोहिनूर का स्थान अन्यतम है | इसको वज्र हीरा भी कहा जाता है | कोहिनुर (कूह-ए-नूर)) एक फ़ारसी का शब्द है जिसका अर्थ होता है “रौशनी का पर्वत “| इस परम अदभुत हीरे की बनावट ,चमक और मूल्य के आगे मुग़ल, कश्मीर और हैदराबाद के निजाम के विश्वविख्यात एव बेल्जियम ,इंग्लैण्ड ,दछिण अफ्रीका ,ब्राज़ील ,रूस सहित तमाम हीरो की चमक कहीं दूर छितिज में खो जाती है | इस हीरे के बारे में तमाम किंवदंतियाँ रहस्य एव आश्चर्य भरे पड़े हैं और अतीत में जाने पर निम्न कहानी उभर के सामने आती है जिसके तार त्रेतायुग तक पहुँचते हैं |
इस विश्वविख्यात कोहिनूर हीरे की यात्रा हम वर्तमान में शुरू करके अतीत में जाने का प्रयास करते हैं | वर्तमान में यह हीरा एलिजाबेथ द्वीतीय के ताज की शोभा बढ़ा रहा है जो ६ दशक से इंग्लैण्ड की मल्लिका हैं | यह इंग्लैण्ड उत्तेर प्रदेश से थोडा सा ही बड़ा हैं | अंग्रेजों ने इस विस्मयकारी हीरे को छलकपट से तमाम पापड़ बेलने के बाद रजा दिल्ल्प सिंह से प्राप्त किया था जो परम्शुर महा राजा रणजीत सिंह के पुत्र थे |स्वम रजा रणजीत सिंह जी को यह हीरा तत्कालीन अफगानिस्तान के राजा शाह्शुजा से तब मिला था जब वे अपने शत्रुओं से घिर गए थे | कहा जाता है की शाह्शुजा ने इसके बदले में पूरा राज्य देने का प्रस्ताव रखा था पर अपनी पत्नी के कहने पे एवं रणजीत सिंह की जिद में उनको यह हीरा देना पड़ा |इस हीरे की प्रथम दृष्टया पक्की टिप्पणी यहीं सन १५२६ से मिलती है। बाबर ने अपने बाबरनामा में लिखा है, कि यह हीरा १२९४ में मालवा के एक (अनामी) राजा का था। बाबर ने इसका मूल्य यह आंका, कि पूरे संसार को दो दिनों तक पेट भर सके, इतना म्हंगा। बाबरनामा में दिया है, कि किस प्रकार मालवा के राजा को जबरदस्ती यह विरासत अलाउद्दीन खिलजी को देने पर मजबूर किया गया। उसके बाद यह दिल्ली सल्तनत के उत्तराधिकारियों द्वारा आगे बढ़ाया गया, और अन्ततः १५२६ में, बाबर की जीत पर उसे प्राप्त हुआ |प्रसिद्ध घोड़ी लयली एवं कोहिनूर हीरा रजा रणजीत सिंह की शान थी| शाह शुजा को यह हीरा कुख्यात राजा अहमदशाह अब्दाली से मिला था और अब्दाली इसे मुग़ल बादशाह से जबरन छीना था |मुग़ल बादशाहों को यह हीरा मुहम्मद बिन तुगलक से मिला था और तुगलक ने यह हीरा अलाउद्दीन खिलजी की हत्या से प्राप्त किया था | खिलजी वंश को यह हीरा काकातीय वंश के राजाओं के हार एवं विनाश के परिणाम स्वरुप प्राप्त हुआ था | यह थी क्रूर ऐतिहासिक सत्य की यह हीरा जिस सम्राट को मिला उसके वंश का नाश साम्राज्य सहित हो गया |
काकातीय राजाओं के पहले कोहिनूर हीरे का इतिहास फिर से अन्धकार में खो जाता है |गहन विबेचना एवं सूछ्म अनुसंधान से इनकी जड़ों को तलाशने पे मूल महाभारत में मिलता है | कौरव पांडव के महागुरु अप्रतिम धनुर्धर द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वथामा के मस्तक में एक परम दुर्लभ महा मणि थी और वाही मणि कालान्तर में कोहिनूर हीरे के नाम से मशहुर हुई | एक और मणि इसके टक्कर की थीजिसको भगवान् श्री कृष्ण ने जाम्बवान को हरा के पाया था उसका आज कहीं भी अता पता नहीं है | कौरव सेनापति से यह महा मणि भीमसेन ने बलात प्राप्त किया था जो युधिष्टर जन्मेजय की शोभा बना |कालक्रम में यही मणि सम्राट समुद्रगुप्त के राज मुकुट की शोभा बनी जो उन्होंने महान मौर्या से प्राप्त की थी |दुर्दांत शासको को हरा के सम्राट विक्रमादित्य एवं स्कंदगुप्त ने इसे अपने राज मुकुट की शोभा बनाया | गुप्त वंश के पतन के बाद यह महा मणि दछिण भारत के राजाओं को प्राप्त होकर कालान्तर में सम्राट पुल्केशियाँ द्वीतीय के राज मुकुट की शोभा बना | इसी महा मणि को पाने हेतु हर्षवर्धन एवं पुल्केशियाँ द्वीतीय का युद्ध नर्मदा तट पे हुआ जिसमे हर्षवर्धन बुरी तरह हार गए | कालान्तर में यह मणि काकातीय वंश के पास आ गयी |
ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार, यह गोलकुंडा की खान से निकला था, जो आंध्र प्रदेश में, विश्व की सवसे प्राचीन खानों में से एक हैं। सन १७३० तक यह विश्व का एकमात्र हीरा उत्पादक क्षेत्र ज्ञात था। इसके बाद ब्राजील में हीरों की खोज हुई। शब्द गोलकुण्डा हीरा, अत्यधिक श्वेत वर्ण, स्पष्टता व उच्च कोटि की पारदर्शिता हे लिये प्रयोग की जाती रही है। यह अत्यधिक दुर्लभ, अतः कीमती होते हैं।प्रारंभ में महा मणि अर्थात कोहिनूर हीरा २००० कैरेट का था }सम्राट विक्रमादित्य के पास आते आते यह १४०० करेट का हो गया | काकातीय वंश में इसका वज़न ७०० करेट तथा अकबर के समय में इसका वज़न २०० करेट हो गया | रत्न के कटाव में कुछ बदलाव हुए, जिनसे वह और सुंदर प्रतीत होने लगा। १८५२ में, विक्टोरिया के पति प्रिंस अल्बर्ट की उपस्थिति में, हीरे को पुनः तराशा गया, जिससे वह १८६ १/६ कैरेट से घट कर १०५.६०२ कैरेट का हो गया|
यधपि संसार में १०० करेट से लेकर २००० करेट तक के एक से बढकर एक बेमिसाल हीरे हैं लेकिन कोहिनूर के आगे सभी नगण्य है | मजेदार बात यह है की ब्रिटेन से वापस लाने की कोशिश भारत के साथ साथ, पजिस्तान,इरान,अफगानिस्तान,एवं बांग्लादेश भी किया करते हैं | फिलहाल इसे भारत वापस लाने को कोशिशें जारी की गयी हैं|
लेखक :-
इस विश्वविख्यात कोहिनूर हीरे की यात्रा हम वर्तमान में शुरू करके अतीत में जाने का प्रयास करते हैं | वर्तमान में यह हीरा एलिजाबेथ द्वीतीय के ताज की शोभा बढ़ा रहा है जो ६ दशक से इंग्लैण्ड की मल्लिका हैं | यह इंग्लैण्ड उत्तेर प्रदेश से थोडा सा ही बड़ा हैं | अंग्रेजों ने इस विस्मयकारी हीरे को छलकपट से तमाम पापड़ बेलने के बाद रजा दिल्ल्प सिंह से प्राप्त किया था जो परम्शुर महा राजा रणजीत सिंह के पुत्र थे |स्वम रजा रणजीत सिंह जी को यह हीरा तत्कालीन अफगानिस्तान के राजा शाह्शुजा से तब मिला था जब वे अपने शत्रुओं से घिर गए थे | कहा जाता है की शाह्शुजा ने इसके बदले में पूरा राज्य देने का प्रस्ताव रखा था पर अपनी पत्नी के कहने पे एवं रणजीत सिंह की जिद में उनको यह हीरा देना पड़ा |इस हीरे की प्रथम दृष्टया पक्की टिप्पणी यहीं सन १५२६ से मिलती है। बाबर ने अपने बाबरनामा में लिखा है, कि यह हीरा १२९४ में मालवा के एक (अनामी) राजा का था। बाबर ने इसका मूल्य यह आंका, कि पूरे संसार को दो दिनों तक पेट भर सके, इतना म्हंगा। बाबरनामा में दिया है, कि किस प्रकार मालवा के राजा को जबरदस्ती यह विरासत अलाउद्दीन खिलजी को देने पर मजबूर किया गया। उसके बाद यह दिल्ली सल्तनत के उत्तराधिकारियों द्वारा आगे बढ़ाया गया, और अन्ततः १५२६ में, बाबर की जीत पर उसे प्राप्त हुआ |प्रसिद्ध घोड़ी लयली एवं कोहिनूर हीरा रजा रणजीत सिंह की शान थी| शाह शुजा को यह हीरा कुख्यात राजा अहमदशाह अब्दाली से मिला था और अब्दाली इसे मुग़ल बादशाह से जबरन छीना था |मुग़ल बादशाहों को यह हीरा मुहम्मद बिन तुगलक से मिला था और तुगलक ने यह हीरा अलाउद्दीन खिलजी की हत्या से प्राप्त किया था | खिलजी वंश को यह हीरा काकातीय वंश के राजाओं के हार एवं विनाश के परिणाम स्वरुप प्राप्त हुआ था | यह थी क्रूर ऐतिहासिक सत्य की यह हीरा जिस सम्राट को मिला उसके वंश का नाश साम्राज्य सहित हो गया |
काकातीय राजाओं के पहले कोहिनूर हीरे का इतिहास फिर से अन्धकार में खो जाता है |गहन विबेचना एवं सूछ्म अनुसंधान से इनकी जड़ों को तलाशने पे मूल महाभारत में मिलता है | कौरव पांडव के महागुरु अप्रतिम धनुर्धर द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वथामा के मस्तक में एक परम दुर्लभ महा मणि थी और वाही मणि कालान्तर में कोहिनूर हीरे के नाम से मशहुर हुई | एक और मणि इसके टक्कर की थीजिसको भगवान् श्री कृष्ण ने जाम्बवान को हरा के पाया था उसका आज कहीं भी अता पता नहीं है | कौरव सेनापति से यह महा मणि भीमसेन ने बलात प्राप्त किया था जो युधिष्टर जन्मेजय की शोभा बना |कालक्रम में यही मणि सम्राट समुद्रगुप्त के राज मुकुट की शोभा बनी जो उन्होंने महान मौर्या से प्राप्त की थी |दुर्दांत शासको को हरा के सम्राट विक्रमादित्य एवं स्कंदगुप्त ने इसे अपने राज मुकुट की शोभा बनाया | गुप्त वंश के पतन के बाद यह महा मणि दछिण भारत के राजाओं को प्राप्त होकर कालान्तर में सम्राट पुल्केशियाँ द्वीतीय के राज मुकुट की शोभा बना | इसी महा मणि को पाने हेतु हर्षवर्धन एवं पुल्केशियाँ द्वीतीय का युद्ध नर्मदा तट पे हुआ जिसमे हर्षवर्धन बुरी तरह हार गए | कालान्तर में यह मणि काकातीय वंश के पास आ गयी |
ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार, यह गोलकुंडा की खान से निकला था, जो आंध्र प्रदेश में, विश्व की सवसे प्राचीन खानों में से एक हैं। सन १७३० तक यह विश्व का एकमात्र हीरा उत्पादक क्षेत्र ज्ञात था। इसके बाद ब्राजील में हीरों की खोज हुई। शब्द गोलकुण्डा हीरा, अत्यधिक श्वेत वर्ण, स्पष्टता व उच्च कोटि की पारदर्शिता हे लिये प्रयोग की जाती रही है। यह अत्यधिक दुर्लभ, अतः कीमती होते हैं।प्रारंभ में महा मणि अर्थात कोहिनूर हीरा २००० कैरेट का था }सम्राट विक्रमादित्य के पास आते आते यह १४०० करेट का हो गया | काकातीय वंश में इसका वज़न ७०० करेट तथा अकबर के समय में इसका वज़न २०० करेट हो गया | रत्न के कटाव में कुछ बदलाव हुए, जिनसे वह और सुंदर प्रतीत होने लगा। १८५२ में, विक्टोरिया के पति प्रिंस अल्बर्ट की उपस्थिति में, हीरे को पुनः तराशा गया, जिससे वह १८६ १/६ कैरेट से घट कर १०५.६०२ कैरेट का हो गया|
यधपि संसार में १०० करेट से लेकर २००० करेट तक के एक से बढकर एक बेमिसाल हीरे हैं लेकिन कोहिनूर के आगे सभी नगण्य है | मजेदार बात यह है की ब्रिटेन से वापस लाने की कोशिश भारत के साथ साथ, पजिस्तान,इरान,अफगानिस्तान,एवं बांग्लादेश भी किया करते हैं | फिलहाल इसे भारत वापस लाने को कोशिशें जारी की गयी हैं|
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