जौनपुर मध्यकालीन युग के सूफी संत और दरगाहें |
गैज़ेटीर ऑफ़ बॉम्बे प्रेसीडेंसी खान बहादुर फ़ज़्लुल्लाह लुत्फी ने लिखा इस्लाम धर्म ७ वीं शताब्दी में आया जबकि हिन्दुस्तान में अरबी दूसरी शताब्दी के समय से ही व्यापार करने के इरादे से आने लगे थे और यहां कॉलोनी बना के रहने लगे थे | मुख्यतया यह आज के मुंबई में चौल , कल्याण,सोपारा , मलबार हिल पे बसे थे और भारतीय मसाले , तलवार , नारियल, सागौन की लकड़ी, घोड़े इत्यादि का व्यापार करते थे |जौनपुर मध्यकालीन युग का भरता का शीराज़ कहा जाता था और पूरे विश्व में इसकी अपनी ही एक पहचान थी | शार्की सुल्तनत में यहां ज्ञान का समानदार बहता था और दूर देश से लोग यहां शिक्षा के लिए आया करते थे |दिल्ली के बादशाह फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ ने जब जौनपुर को अपने एक गवरनर मालिकुश शर्क़ को बनाया और दिल्ली चला गया जहां उसकी ताक़त काम होती गयी तो इधर मालिकुश शर्क़ ने जौनपुर और आस पास के इलाक़े को शर्क़ी सल्तनत का नाम दे के खुदको बादशाह होने का ऐलान कर दिया और इसे दिल्ली से अलग कर दिया |
मालिकुश शर्क़ के बाद उसके गोद लिए बेटों ने इसे तरक़्क़ी के उस शिखर पे पहुंचाया की एक शतक तक राज किया और इसकी सुंदरता और यहां का अमन पसंद और इल्म से भरे निज़ाम की चर्चा दूर दूर तक फैला है और यहाँसूफ़ी संतों का आना शुरू हो गया | शर्क़ी सल्तनत को आगे बढ़ाने वालों में इन शर्क़ी बादशाओं के योगदान को हमेशा याद किया जायगा | मलिक करनफूल मुबारकशाह (1399 - 1402 ई.)
इब्राहिमशाह शर्की (1402 - 1440 ई.)
महमूदशाह शर्की (1440 - 1457 ई.)
मुहम्मदशाह शर्की (1457 - 1458 ई.)
हुसैनशाह शर्की (1458 - 1485 ई.)
इस दौर को जौनपुर का स्वर्ण काल कहा जाता है |
इन बादशाहों ने राज्य की सीमाएँ 'कोल', 'सम्भल' तथा 'रापरी' तक फैली हुई थीं। उसने 'तिरहुत' तथा 'दोआब' के साथ-साथ बिहार पर भी प्रभुत्व स्थापित किया था। शर्की वंश के लगभग सौ वर्ष के शासन काल में जौनपुर में बहुत-सी इमारतों जैसे- महल, मस्जिद, मक़बरों आदि का निर्माण किया गया। शर्की सुल्तानों द्वारा निर्मित इमारतों में हिन्दू-मुस्लिम स्थापत्य कला का सुन्दर मिश्रण दिखाई पड़ता है।शर्की सुल्तान ज्ञान और कलाओं के बड़े संरक्षक थे। कवि, विद्वान और संत जौनपुर में निवास करके उसकी शोभा बढ़ाते थे शर्की सुल्तानों निर्मित अटाला मस्जिद, मस्जिद जामीउस शर्क़ जामी मस्जिद , झंझीरी मस्जिद ,लाल दरवाज़ा मस्जिद , आज भी पर्यटकों को आकर्षित करती है | इनके बनाय सभी महल सिकंदर लोधी के हमले का शिकार हो गए जिनके खंडहर टीले के रूप में प्रेमराज पुर और ख़ास हौज़ में आज भी देखे जा सकते हैं |
जैसा की मैंने पहले भी कहा की शर्क़ी वंश की स्थापना के साथ ही यहां सूफी संतों का आगमन शांति और इल्म की तलाश में शुरू हो गया था | इन सूफियों को जौनपुर में बादशाह ने इज़्ज़त दी और जगह दी जहां इन्होने ख़ानक़ाह बनायी को बेहतर बनाने का अमन शांति का पैगाम देने का , इल्म का सिलसिला ज़ारी रखायहां तक की शर्क़ी सुल्तनत के पतन के बाद भी मुग़ल दौर में इन सूफी संतों की अहमियत बनी रहीऔर इनकी खानकाहें आबाद रही |
ख़ानक़ाह और दरगाहों में आम लोगों का आना जाना अधिक हुआ करता था क्यों की यही से दीनी तालीम के साथ साथ समाज में अमन शांति से रहने के साथ साथ जिस्मानी और रूहानी बिमारियों का इलाज भी होता | किसी को कोई भी समस्या होती तो लोग इन्ही सूफियों के पास जाया करते थे
जफराबाद जो जौनपुर से लगभग ७ किलोमीटर की दूरी पे है वहाँ सूफियों की दरगाहें, मुफ़्ती ऐ आज़म की क़ब्रें इत्यादि बहुत मिलते हैं और एक समय ऐसा भी था जब जाफराबाद की ज़मीन पे सूफियों से मिलने के लिए आने वाले अपनी हाथों में अपनी जूतियां उठा के चलते थे | यहां के सूफियों को विलायत मिली हुयी थी और अलग अलग सिलसिले जैसे चिस्ती , सुहारवर्दी, और नक़्श बंदी इत्यादि के सूफियों की दरगाहें आज भी हैं | जिनमे से मुख्य रूप से यह मशहूर हैं |
दरगाह और मकबरा शेख मुहम्मद ख्वाजा ईसा ताज जिन्होंने क़ाज़ी शहाबुद्दीन दौलताबादी से ज्ञान प्राप्त किया और बड़ी मस्जिद जौनपुर से सटी आपकी दरगाह आज भी मुरीदों के आकर्षण का केंद्र है | ऐसे ही मकबरा ख्वाजा अबुल फतह चिस्ती ( सोन बरर्सी ) सिपाह ,जिनका देहांत 1454 ई में हुआ और आप क़व्वाली के ही एक रूप सना को बहुत पसंद किया करते थे | शेख बहहुद्दीन नथ्थू , शेख मादूम शाह अधन मोहल्ला ताड़ तला , दरगाह शेख वाजिहुद्दीन अशरफ शाहगंज , दरगाह हज़रात सुलेमान शाह जेल जौनपुर , मकबरा शाह फ़िरोज़ सिपाह , दरगाह शेख हमजा चिस्ती, दरगाह हज़रात मौलाना ख्वासगी इत्यादि |
कभी जिस जौनपुर जफराबाद में बक़रीद के मौके पे 1400 पालकियां सूफियों की निकला करती थी आज वीरान है |
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