इब्राहिम शाह शर्की के उस्ताद मशहूर सूफी मालिकुल उलेमा काज़ी शिहाबुद्दीन दौलताबादी ।
इब्राहिम शाह शर्की के उस्ताद मशहूर सूफी मालिकुल उलेमा काज़ी शिहाबुद्दीन दौलताबादी
जौनपुर का स्वर्णकाल शर्क़ी सल्तनत के दौर को कहा जाता है जिस दौर में जौनपुर सूफियों और शिक्षा के लिए पूरी दुनिया में मशहूर था इसी कारण जौनपुर को मुग़ल दौर में शीराज़ ऐ हिन्द कहा गया | शर्क़ी दौर में शिक्षा और विज्ञान को राजकीय संरक्षण प्राप्त था और यहां विश्व भर से लोग पढ़ने आया करते थे | ऐसे बहुत से ज्ञानी रहे जो ईरान ,अफगानिस्तान,अरब ,फारस ,इराक़ इत्यादि से यहां शिक्षा प्राप्त करने आये तो यही के हो के रह गए |
तैमूर के आक्रमण के दौरान विद्वान , सय्यद , सूफी कवी इत्यादि बेघर होके खौफ से शांति की तलाश में शर्क़ी सल्तनत में आके बसने लगे जहां उनकी इज़्ज़त होती थी और उनका ख्याल रखा जाता था |
इस प्रकार जौनपुर सूफियों सय्यदों और विद्वानों का शरण स्थल बन गया जहां बकराईद के अवसर पे १४०० से अधिक विद्वानों को पालकी पे सवारी निकला करती थी और आज भी उनकी क़ब्रें मकबरे जौनपुर में जगह जगह पाय जाते हैं | जिनमे से कुछ बदहाल है और कुछ यहां के लोगों की अक़ीदत की वजह से ठीक ठाक हालत में हैं |
इब्राहिम शाह शर्क़ी के दौर में ऐसे ही एक विद्वान जिन्हे संतों सूफियों का शासक भी कहा जाता है जौनपुर आय जो आज भी दुनिया में मालीकुल उलेमा क़ाज़ी शिहाबुद्दीन के नाम से मशहूर हैं |
आपको लोग मालिकुल उलेमा काज़ी शिहाबुद्दीन दौलताबादी के नाम से जानते हैं और आप शेख परिवार से थे और आप गजनी के रहने वाले थे । आप बहुत ही बुद्धिमान और स्मरण शक्ति तेज थी।
आपका जन्म दक्कन में दौलताबाद में हुआ था, लेकिन शिक्षा देहली में प्रसिद्ध शिक्षक काजी अब्दुल-मुक्तादिर देहलवी आरए, प्रसिद्ध सूफी संत, ख्वाजा अबुल फत सोनबारीस चिश्ती आरए के दादा के तहत पूरी हुई थी।
और तैमूर के आक्रमण के दौरान मौलाना ख्वाजगी के साथ दिल्ली त्याग दिया और आप जौनपुर आके बस गए।
शर्की बादशाह इब्राहिम शाह ने आपको खुद बुलाया और आपको काज़ी उल कुज्जात (प्रधान काज़ी) बनाया और चांदी की किसी सम्मान स्वरूप दे के मालिकल उलेमा का खिताब दिया।
शिक्षक के रूप में आपने अत्यधिक ख्याति प्राप्त की और एक कवि के रूप में भी आप ने बहुत ख्याति प्राप्त की और आपका संग्रह जामिउल सनय के नाम से मशहूर हुआ।
मालीकुल उलेमा क़ाज़ी शिहाबुद्दीन ने जमीउल सनाई के नाम से एक दीवान (कविता संग्रह) की रचना की। वे एक विपुल लेखक भी थे। उन्होंने शार-ए-काफिया लिखा, यानी, जलालुद्दीन अबू 'उस्मान बिन' उमर के प्रसिद्ध अरबी व्याकरण पर टिप्पणी, जिसे इब्न उल-हजीब (648/1248) के रूप में जाना जाता है, जिसे शार-इन-हिंदी भी कहा जाता है। . यह पुस्तक अपनी शैली में अद्वितीय है और उनके जीवनकाल में ही प्रसिद्ध हो गई। उनकी एक अन्य महत्वपूर्ण पुस्तक किताब-ए-अरशद (वाक्यविन्यास पर) थी। उनकी अन्य महत्वपूर्ण पुस्तकें और ग्रंथ "बदी 'उल-मिज़ान" (वाक्पटुता के विज्ञान पर एक ग्रंथ) थे। रिसालाह-ए-इब्राहिम शाही, (अपने संरक्षक को समर्पित न्यायशास्त्र पर एक ग्रंथ), मनाकिब-ए-सदात, उसूल-ए-बैजावी (न्यायशास्त्र पर), तकसीम-ए-उल्लुम (विभिन्न विषयों की व्याख्या करने वाला एक ग्रंथ और सात शामिल हैं) अध्याय), शरह - (टिप्पणी) बनती साद के क़ासिदा पर - कब इब्न याह्या द्वारा पैगंबर की प्रशंसा में क़ासिदा, फ़ारसी भाषा, उसूल ए इब्राहिम शाही (अरबी में जहाँ उन्होंने शरिया के तहत सभी समस्याओं पर चर्चा की) और बहार आई मवाज (फारस में पवित्र कुरान का एक उदाहरण) शायद भारत में पवित्र कुरान पर पहली टिप्पणी। उन्होंने धार्मिक समस्याओं पर अरबी और फारसी दोनों में कुछ अन्य ग्रंथ और पुस्तिकाएँ भी लिखीं, साथ ही इन भाषाओं में पत्र और संस्मरण भी लिखे। ये सभी पुस्तकें स्पष्ट लेकिन अलंकृत शैली में लिखी गई थीं और इनमें से कुछ को मदरसों के पाठ्यक्रम में सदियों से शामिल किया गया है।
आप इतने बड़े ज्ञानी थे की खुद इब्राहिम शाह शर्क़ी ने सद्र जहां अजमल और क़ाज़ी शिहाबुद्दीन से शिक्षा प्राप्त की थी |
आपका एक वाक्या बहुत मशहूर है की आपका उस दौर के मशहूर संत सैय्यद अजमल के साथ पैगंबर के परिवार के सदस्य की फजीलत के मुद्दे पे मतभेद था, जहाँ उन्होंने (क़ाज़ी शिहाब उद-दीन) ने पैगंबर के परिवार के सदस्य के मुकाबले एक आलिम (विद्वानों) की श्रेष्ठता की वकालत की थी। लेकिन बाद में, एक सपने से संकेत लेते हुए जिसमें उन्होंने पवित्र पैगंबर को गुस्से में देखा था, उन्होंने" मनाकिब अल-सआदत" में खुद अपनी बात को रद्द किया और किताब लिखी जिसमे, पैगंबर के परिवार के सदस्यों की प्रशंसा की और उन्हें लिए एक विशेषाधिकार प्राप्त होने का दावा किया।
सुल्तान इब्राहीम शाह शर्क़ी आप का बड़ा मुरीद था . कहते हैं कि एक बार आप बीमार पड़े और यह ख़बर जब सुल्तान तक पहुंची तो वह आप के पास पहुँचा और उसने एक पानी का प्याला आप के सर से घुमा कर यह कहते हुए पी लिया कि हे ईश्वर ! इनपर जो बलाएं हैं वह तू मुझे दे दे और इन्हें स्वस्थ कर दे . तारीख़-ए- फ़िरिश्ता के अनुसार क़ाज़ी साहब का देहांत सन 1446 ई. में हुआ . आप के देहांत के दो साल पहले ही बादशाह का निधन हो गया .
क़ाज़ी शहाबुद्दीन जौनपुर में मोहल्ला रिज़वी खाँ में रहते थे . मृत्यु के पश्चात इन्हें मोहल्ला रिज़वी खाँ में अटाला मस्जिद के दक्षिणी द्वार के पास दफ़्न किया गया. आप की मज़ार राज कॉलेज के घेरे के भीतर स्थित है जहां उनकी. पत्नी को भी दफनाया गया है l 1840 में अंग्रेजों द्वारा जिसे समतल किया गया और मिशन हाई स्कूल में परिवर्तित कर दिया गया था, यह स्थान जौनपुर के वर्तमान राजा श्री कृष्ण दत्त डिग्री कॉलेज के प्रांगण में स्थित है। जिसकी हालत अच्छी नहीं है क्यों की उसकी देख रेख़ का कोई खास इंतजाम नहीं है।
एस एम मासूम
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