मलिक उल -'उलमा क़ाज़ी शिहाब उद-दीन दौलताबादी एक शेख परिवार से संबंध रखते थे। उनका परिवार मूल रूप से गजनी से आकर हिंदुस्तान में बस गया था। उन्हें उनकी शिक्षा दीक्षा हेतु दक्कन में दौलतबाद भेजा गया, लेकिन उनकी शिक्षा दिल्ली में उनके गुरु शिक्षक, काज़ी अब्दुल-मुक़तिदिर प्रसिद्ध संत ख्वाजा अबल फतह समब्रास के दादा के मातहत पूरी हुई थी।
क़ाज़ी शहाब उद-दीन अत्यंत बुद्धिमान थे और कहा जाता है कि उनकी याद्दाश्त बहुत तेज़ थी।उन्हें अपनी शिक्षा में इतनी दिलचस्पी थी कि वे कम उम्र में ही सभी गूढ़ विषयों के साथ-साथ अन्य विषयों में भी निपुण हो गए।
वह मौलाना ख्वाजगी के भी शिष्य थे, जो दिल्ली से तैमूर के आक्रमण के समय काल्पी चले गए थे।लेकिन क़ाज़ी शिहाब उद-दीन को सुल्तान इब्राहिम शर्की द्वारा जौनपुर आमंत्रित किया गया, जिसने उन्हें जौनपुर के मुख्य काजी के पद पर नियुक्त किया। सुल्तान ने उन्हें चांदी की कुर्सी भेंट की और उन्हें अपने शाही दरबार में "मलिक उल-उलमा" की उपाधि से भी सम्मानित किया। उन्होंने यहां बहुत ही उच्च प्रतिष्ठा अर्जित की जो जल्द ही पूरे भारत और यहां तक कि फारस (ईरान) और अरब तक फैल गई। मौलाना शाहबुद्दीन कई मशहूर उलेमा और उनके बच्चों के गुरु रहे हैं। उनके बढ़ती प्रसिद्धि ने उनके समकालीनों में उनके खिलाफ ईर्ष्या से भर दिया। यहां तक कि क़ाज़ी शिहाब उद-दिन ने अपनी परेशानी के बारे में अपनी पीर गुरु मौलाना ख़्वाजी के पास भी इसकी शिकायत की तो उन्होंने उन्हें चुपचाप अपना कर्म करते रहने का आदेश दिया।
जौनपुर के सदर जहाँ सैय्यद अजमल के साथ भी उनके मतभेद रहे जहाँ सदर जहाँ सैय्यद अजमल, सय्यदों (पैग़म्बर मुहम्मद साहब की बेटी के परिवार से निकली हुई नस्लें)
की श्रेष्ठता के में विश्वास रखते थे वहीं काज़ी साहब आलिमों को सय्यदों की श्रेष्ठता पर तरजीह देते थे। लेकिन बाद में, एक सपने से संकेत लेते हुए जिसमें उन्होंने पवित्र पैगंबर को गुस्से में देखा, उन्होंने "मनकब अल सआदत" को पश्चाताप के भाव से लिखकर, पैगंबर के परिवार के सदस्यों उनके लिए विशेषाधिकारों को स्वीकृति दी
काज़ी शिहाब- उद - दिन एक प्रमुख संत भी थे। उन्होंने अपने पीर मौलाना ख्वाजगी और मखदूम अशरफ जहाँगीर समनानी से आध्यात्मिक मार्गदर्शन प्राप्त किया था, वो शरियत के नियमों का सख्ती से पालन करने पर ज़्यादा ज़ोर देते थे जिसकी वजह से उनकी प्रसिद्ध सूफी संत शाह मदार के साथ भी उनकी कुछ अप्रिय चर्चाएं हुईं जिसके बाद दोनों के संबंध अच्छे नहीं रहे।
काजी साहब एक शिक्षक के रूप में काफ़ी प्रसिद्ध थे। सुल्तान इब्राहिम शाह शर्की ने एक विशेष मस्जिद और एक मदरसा बनवाया जहाँ क़ाज़ी साहब सैकड़ों छात्रों को पढ़ाया करते थे। उनमें से कई ने इस्लामी शिक्षा के ज्ञान को दूर-दूर तक फैलाया। क़ाज़ी एक अच्छे कवि भी थे और "जमील सनाई" के नाम से एक दीवान (कविता संग्रह) की रचना की।इसके अलावा उन्होंने अरबी फ़ारसी के व्याकरण और अनुवाद संबंधी भी कई कार्य किए जो कई सदियों तक मदरसे के पाठयक्रम का हिस्सा रहे।
सुल्तान इब्राहिम शर्की का काज़ी शाहाब उद दिन दौलताबादी के प्रति गहरा सम्मान और प्रेम था।जब काज़ी साहब गंभीर रूप से बीमार पड़ गए, तो सुल्तान उनसे मिलने गए।यहां तक कि उन्होंने क़ाज़ी साहब की बीमारी को खुद को हस्तांतरित करने की इच्छा व्यक्त की। जब क़ाज़ी साहब की मृत्यु हो गई तो सुल्तान को बड़ा दुख हुआ।

क़ाज़ी का साहब मकबरा अटाला मस्जिद के दक्षिणी दरवाज़े के बिल्कुल करीब बनाया गया था जहाँ उनकी पत्नी को भी उनके बगल दफनाया गया था। जिसे ब्रिटिशर्स ने 1840 में तोड़ कर मिशन स्कूल बना दिया। जो कि अब वर्तमान में राज कालेज के प्रांगण में है। जहां पीपल के पेड़ के नीचे एक छोटी सी चारदीवारी के बीच दो कब्रों के निशान बाकी रह गए हैं।
क़ाज़ी शहाब उद-दीन अत्यंत बुद्धिमान थे और कहा जाता है कि उनकी याद्दाश्त बहुत तेज़ थी।उन्हें अपनी शिक्षा में इतनी दिलचस्पी थी कि वे कम उम्र में ही सभी गूढ़ विषयों के साथ-साथ अन्य विषयों में भी निपुण हो गए।
वह मौलाना ख्वाजगी के भी शिष्य थे, जो दिल्ली से तैमूर के आक्रमण के समय काल्पी चले गए थे।लेकिन क़ाज़ी शिहाब उद-दीन को सुल्तान इब्राहिम शर्की द्वारा जौनपुर आमंत्रित किया गया, जिसने उन्हें जौनपुर के मुख्य काजी के पद पर नियुक्त किया। सुल्तान ने उन्हें चांदी की कुर्सी भेंट की और उन्हें अपने शाही दरबार में "मलिक उल-उलमा" की उपाधि से भी सम्मानित किया। उन्होंने यहां बहुत ही उच्च प्रतिष्ठा अर्जित की जो जल्द ही पूरे भारत और यहां तक कि फारस (ईरान) और अरब तक फैल गई। मौलाना शाहबुद्दीन कई मशहूर उलेमा और उनके बच्चों के गुरु रहे हैं। उनके बढ़ती प्रसिद्धि ने उनके समकालीनों में उनके खिलाफ ईर्ष्या से भर दिया। यहां तक कि क़ाज़ी शिहाब उद-दिन ने अपनी परेशानी के बारे में अपनी पीर गुरु मौलाना ख़्वाजी के पास भी इसकी शिकायत की तो उन्होंने उन्हें चुपचाप अपना कर्म करते रहने का आदेश दिया।
जौनपुर के सदर जहाँ सैय्यद अजमल के साथ भी उनके मतभेद रहे जहाँ सदर जहाँ सैय्यद अजमल, सय्यदों (पैग़म्बर मुहम्मद साहब की बेटी के परिवार से निकली हुई नस्लें)
की श्रेष्ठता के में विश्वास रखते थे वहीं काज़ी साहब आलिमों को सय्यदों की श्रेष्ठता पर तरजीह देते थे। लेकिन बाद में, एक सपने से संकेत लेते हुए जिसमें उन्होंने पवित्र पैगंबर को गुस्से में देखा, उन्होंने "मनकब अल सआदत" को पश्चाताप के भाव से लिखकर, पैगंबर के परिवार के सदस्यों उनके लिए विशेषाधिकारों को स्वीकृति दी
काज़ी शिहाब- उद - दिन एक प्रमुख संत भी थे। उन्होंने अपने पीर मौलाना ख्वाजगी और मखदूम अशरफ जहाँगीर समनानी से आध्यात्मिक मार्गदर्शन प्राप्त किया था, वो शरियत के नियमों का सख्ती से पालन करने पर ज़्यादा ज़ोर देते थे जिसकी वजह से उनकी प्रसिद्ध सूफी संत शाह मदार के साथ भी उनकी कुछ अप्रिय चर्चाएं हुईं जिसके बाद दोनों के संबंध अच्छे नहीं रहे।
काजी साहब एक शिक्षक के रूप में काफ़ी प्रसिद्ध थे। सुल्तान इब्राहिम शाह शर्की ने एक विशेष मस्जिद और एक मदरसा बनवाया जहाँ क़ाज़ी साहब सैकड़ों छात्रों को पढ़ाया करते थे। उनमें से कई ने इस्लामी शिक्षा के ज्ञान को दूर-दूर तक फैलाया। क़ाज़ी एक अच्छे कवि भी थे और "जमील सनाई" के नाम से एक दीवान (कविता संग्रह) की रचना की।इसके अलावा उन्होंने अरबी फ़ारसी के व्याकरण और अनुवाद संबंधी भी कई कार्य किए जो कई सदियों तक मदरसे के पाठयक्रम का हिस्सा रहे।
सुल्तान इब्राहिम शर्की का काज़ी शाहाब उद दिन दौलताबादी के प्रति गहरा सम्मान और प्रेम था।जब काज़ी साहब गंभीर रूप से बीमार पड़ गए, तो सुल्तान उनसे मिलने गए।यहां तक कि उन्होंने क़ाज़ी साहब की बीमारी को खुद को हस्तांतरित करने की इच्छा व्यक्त की। जब क़ाज़ी साहब की मृत्यु हो गई तो सुल्तान को बड़ा दुख हुआ।



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