जौनपुर सूफी संतों का शहर रहा है और सबसे अधिक सूफी जौनपुर में आज से लगभग १४०० साल पहले आये और जौनपुर का शांतिमय हालात देख के यहीं बस गए | कानपूर के सूफी संत शाह मंज़ूर आलम जो इसलिए बहुत मशहूर हैं की उन्होंने समाज के बहुत से अधिक लोगों से नशा करने की आदत को छुड्वाया और नेकी की तरफ लाये |
वे मूलत: जौनपुर के बेलहरी बहेड़ी गांव के निवासी थे और कानपुर में अपनी खानखाह (आश्रम) बनाकर सर्वधर्म, सम्भाव, प्रेम, भाईचारे का संदेश बांटा करते थे। हजरत शाह मंजूर आलम साहब की मुरीदों की तादाद पूरे भारत में फैली है। दक्षिण से उत्तर और पूर्व से पश्चिम भारत तक उनके चाहने वाले पाहिले हुए हैं| सूफी संत शाह मंज़ूर आलम का जन्म १९३५ में एक सूफी घराने में हुआ और जब वे थोड़े बड़े हुए तो उन्होंने जाजामाऊ के पीर हुसैन शाह को अपना उस्ताद बना लिया | उस समय वे लखनऊ के कैन्टोमेंट इलाके में रेलवे क्रोस्सिंग पे रहा करते थे लेकिन बाद में उन्होंने माल रोड कानपुर में अपनी खानकाह (आश्रम ) बना लिया | मंजूर आलम साहब आला दर्जे के शायर और साहित्यकार थे। उन्होंने सूफी अध्यात्म से जुड़ी दो दर्जन से ज्यादा ग्रंथों की रचना की। उनके लिखे सूफी कलामों की किताब गूलर के फूल के आठ संस्करण में मौजूद हैं। इसके अलावा उन्होंने हजरत जलालुद्दीन रूमी की फारसी में लिखी मसनरी शरीफ का हिंदी अनुवाद रहबरे शरीकत के नाम से आठ संस्करण में किया। कसकोल रुहानी, रुहानी गुलदस्ता, रूहे गुलाब जैसे सूफी अध्यात्म से जुड़े ग्रंथ के जरिए उन्होंने राह- ए- इश्क का पैगाम दिया|
माना जाता है की सूफिस्म की जडें जौनपुर से ले के हजरत ख्वाजा गरीब नवाज मोइनुद्दीन चिश्ती अजमेरी तक जाती है और इसी सिलसिले को आगे बढाते कानपुर के सूफी संत शाह मंज़ूर आलम हजरत शाह भी थे जो मूलतः जौनपुर के बेलहरी बहेड़ी गांव के निवासी थे और १४ अक्टूबर २०१५ में बाद पर्दाह (इन्तेकाल ) के बाद अपने पैत्रक गाँव बेलहरी बहेड़ी गाँव में दफन हुए |
वे मूलत: जौनपुर के बेलहरी बहेड़ी गांव के निवासी थे और कानपुर में अपनी खानखाह (आश्रम) बनाकर सर्वधर्म, सम्भाव, प्रेम, भाईचारे का संदेश बांटा करते थे। हजरत शाह मंजूर आलम साहब की मुरीदों की तादाद पूरे भारत में फैली है। दक्षिण से उत्तर और पूर्व से पश्चिम भारत तक उनके चाहने वाले पाहिले हुए हैं| सूफी संत शाह मंज़ूर आलम का जन्म १९३५ में एक सूफी घराने में हुआ और जब वे थोड़े बड़े हुए तो उन्होंने जाजामाऊ के पीर हुसैन शाह को अपना उस्ताद बना लिया | उस समय वे लखनऊ के कैन्टोमेंट इलाके में रेलवे क्रोस्सिंग पे रहा करते थे लेकिन बाद में उन्होंने माल रोड कानपुर में अपनी खानकाह (आश्रम ) बना लिया | मंजूर आलम साहब आला दर्जे के शायर और साहित्यकार थे। उन्होंने सूफी अध्यात्म से जुड़ी दो दर्जन से ज्यादा ग्रंथों की रचना की। उनके लिखे सूफी कलामों की किताब गूलर के फूल के आठ संस्करण में मौजूद हैं। इसके अलावा उन्होंने हजरत जलालुद्दीन रूमी की फारसी में लिखी मसनरी शरीफ का हिंदी अनुवाद रहबरे शरीकत के नाम से आठ संस्करण में किया। कसकोल रुहानी, रुहानी गुलदस्ता, रूहे गुलाब जैसे सूफी अध्यात्म से जुड़े ग्रंथ के जरिए उन्होंने राह- ए- इश्क का पैगाम दिया|
माना जाता है की सूफिस्म की जडें जौनपुर से ले के हजरत ख्वाजा गरीब नवाज मोइनुद्दीन चिश्ती अजमेरी तक जाती है और इसी सिलसिले को आगे बढाते कानपुर के सूफी संत शाह मंज़ूर आलम हजरत शाह भी थे जो मूलतः जौनपुर के बेलहरी बहेड़ी गांव के निवासी थे और १४ अक्टूबर २०१५ में बाद पर्दाह (इन्तेकाल ) के बाद अपने पैत्रक गाँव बेलहरी बहेड़ी गाँव में दफन हुए |
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