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    सोमवार, 7 सितंबर 2020

    १८५७ जनक्रांति के जौनपुर से पहले शहीद शहीद राजा इदारत जहां का भूला हुआ इतिहास |

    जौनपुर का  १८ सितम्बर सन १८५७ जनक्रांति  का पहला शहीद राजा इदारत जहां| .....लेखक एस एम् मासूम

    राजा इदारत जहां के पूर्वंज सैयद अहसन थे जो खुन्दमीर के नाम से जाने जाते थे और मुग़ल सम्राट हुमायूँ के साथ इरान से भारत आये | सैयद अहसन सम्राट हुमायूँ की सेना में सेनापति थे और इन्होने ने ही भारत में जहनिया खानदान की नीव अल्लाहाबाद के परगना कुसुम कदारी में डाली | बाद में अकबर बद्शान के ज़माने में यह आजमगढ़ के माहुल इलाके में बस गए जहां  इदारत जहां का जन्म हुआ था और उनकी पढ़ाई  और परवरिश उनके पिता मुबारक जहां की देख रेख में हुआ | राजा इदारत जहां अरबी ,फारसी ,हिंदी ,उर्दू,संस्कृत इत्यादि के अच्छे जानकार थे |

    माहुल स्थित महल के खंडहर 
    युद्ध कला में निपुण होने के कारन वे  अवध के नवाब की सेना में भतरी हो गए जहां उन्होने अपनी पकड़ मज़बूत कर ली और कई युद्ध में अंग्रेजों को मात दी | १५ नवम्बर १८५६ को अवध के नाजिम नज़र हुसैन ने इदारत जहां को जौनपुर का नायब नाजिम बना के भेजा | नायब  नाजिम होने के बाद राजा इदारत जहां ने मालगुजारी अपने राज्य की अंग्रेजों को ना भेज के अवध के नवाब बहादुरशाह ज़फर को भेजनी शुरू कर दी |

    सन १८५७ में अवध के नवाब वाजिद अली शाह की पदोन्नति हुयी और अवध प्रांत अंग्रेज़ों के शाासन में शामिल हो गया इस घटना ने ताल्लुकेदारों,राजाओं और नवाबो को चिंतिति कर दिया और हर एक सोंचने लगा एक दिन उसके साथ भी ऐसा ही होगा ।  १८५७ ईस्वी में बांदा ने नवाब के यहां शादी के अवसर में एक मीटिंग राजाओं की हुयी जिसमे ये तय पाया गया की अंग्रेज़ों से बलपूर्वक लड़ा जाएगा और दिल्ली के बादशाह बहादुर शाह ज़फर को  बादशाह स्वीकार कर लिया जाय ।

    मुबारक पुर गभिरन के पास 
    राजा इदारत जहां को जौनपुर ,आज़मगढ़ ,बनारस, बलिया, तथा मिर्ज़ापुर प्रबध के लिए सौंपा गया ।  जब अंग्रेज़ों ने राजा इदारत जहां से मालग़ुज़ारी मांगी तो उन्हने इंकार कर दिया और कहा हमने दिल्ली के बादशाह बहादुर शाह ज़फर को  बादशाह स्वीकार कर लिया है और  से माल ग़ुज़ारी उन्ही को दी जाएगी ।

    १८ सितम्बर सन १८५७ को कर्नल रिफ्टन को ये खबर लगी की आज़मगढ़ में कुछ लोगों ने आज़ादी का एलान कर दिया है तो उसने तुरंत कैप्टेन बाॅइलो को ११०० गोरखा फ़ौज इस बगावत के दमन के लिए साथ भेजी । इस बगावत का सेहरा जाता था सैयद इदारत जहां के सर जो पहले जौनपुर, आज़मगढ़,सुल्तानपुर,प्रतापगढ़ ,और फैज़ाबाद का उप प्रबंधक थे  ।

    इस अस्वीक्रति पे अंग्रेज़ों ने जौनपुर के शाही क़िले पे जो राजा इदारत जहां की सत्ता का केंद्र था उसपे हमला कर दिया । राजा इदारत जहां उस समय चेहल्लुम के सिलसिले में मुबारकपुर गए हुए थे लेकिन दीवान महताब राय से अंग्रेजी फौज का सामना हो गया जो बहुत बहादुरी से लड़े लेकिन बाद में क़ैद कर लिए गए । इस झड़प में बहुत से लोग शहीद  हुए जिनकी क़ब्रें आज भी क़िले में मिलती हैं । शाही क़िले को इस झड़प में बहुत नुकसान हुआ ।


    महताब राय ने अंग्रेज़ो से कहा की उनके हाथ   में कुछ नहीं है और राजा इदारत जहां मुबारकपुर गए हुए हैं आप उनसे ही बात कर लें । अंग्रेज़ो ने २७ सितमबर को एक तोपखाना सहित फ़ौज मुबारकपुर  भेज दी । दीवान महताब राय के दरिया के रास्ते से मुबारकपुर ले जाय  गया । राजा इदारत जहां को जब ये मालूम हुआ तो उन्होंने ने अपने सैनिक और सेनापतियों अमर सिंह और मखदूम बक्श को मुकाबले के लिए भेजा जिसने दीवान महताब राय को आज़ाद करवा लिया ।

    मुबारकपुर में ये युद्ध चार दिनों तक चला । राजा इदारत जहां के बेटे मुज़फ्फर जहां ने महल की तहसील और थाने पे क़ब्ज़ा कर लिया । राजा फ़साहत से तिघरा नामक स्थान पे झड़प हुयी और अंग्रेज़ो को लगा की लड़ के इन पे   काबू नहीं पाया जा सकता तो उसने संधि प्रस्ताव रखा ।

     राजा फ़साहत भी संधि के लिए तत्पर हो गए और इस संधि पे प्रस्ताव ये था की राजा इदारत जहां का वो सब छेत्र वापस किया जाएगा जिनपे अंग्रेज़ो का क़ब्ज़ा है ।

    राजा इदारत जहां भी  इस संधि के लिए तैयार हो गए और मोजीपुर क़िले और मुबारकपुर के मध्य एक आम के बाग़  में ज़ुहर  के बाद का समय संधि के  लिए तय पाया गया । जबकि राजा इदारत जहां  के दोनों  सेनाधिकारी  अमर सिंह और मखदूम बख्श इस संधि के खिलाफ थे । इसी कारण अमर सिंह मोजीपुर क़िले में और मखदून बख्श मुबारकपुर कोट में रुक गए ।

    राजा इदारत जहां नमाज़ ज़ुहर के बाद अपने ४० लोगो और  फ़साहत जहां के साथ संधि के लिए आम  के बाग़ में पहुँच गए जहां अँगरेज़ कमांडर पहले से मौजूद था । उस कमांडर ने मक्के के खेत के पीछे अपनी फ़ौज को छुपा रखा था और राजा इदारत जहां के साथ धोका किया जिसमे राजा फ़साहत जहां भी शामिल था । राजा के सारे कर्मचारी वहीँ क़ैद कर के फांसी पे लटका दिए गए और राजा इदारत जहां वहाँ से निकलने की कोशिश में  थे लेकिन आगे जा के धोकेबाज़ पवई के राजा फ़साहत जहाँ के धोके के कारण पकड़े गए जिन्हे अंग्रेज़ों ने उस बाग़ से कुछ दूर एक स्थान पे फांसी दे दी और कई मील उनकी लाश को घुमाया गया और फिर एक आम के पेड़ से लटका दिया गया | इस प्रकार राजा इदारत जहां  १८५७ की क्रांति के पहले शहीद कहलाये ।  सत्य यही है की राजा इदारत जहां  ने १८५७ में अंग्रेज़ो से आज़ादी का बिगुल अपनी शहादत के साथ दिया । जब राजा इदारत जहां  को फांसी दी जा रही थी तो उन्होंने ने अपने धोकेबाज़ भाई फ़ज़ाहत जहां से कहा "भाई जान क्या कोई और  भी ख्वाहिश है "  ये अँगरेज़ तुम्हे कुछ नहीं देंगे ।


    कब्र राजा इदारत जहां मुबारकपुर

    राजा इदारत जहां  के सेनापति अमर सिंह ने मोजीपुर  के क़िले से युद्ध किया और शहीद  हो गए और इस प्रकार वो आज़ादी की जंग के दुसरे  सिपाही कहलाये । मखदूम बख्श लड़ते लड़ते कहीं छुप  गया और बच गया। इस लड़ाई में मोजीपुर क़िले और मुबारकपुर कोट को नुकसान  पहुंचा इसी लिए आज भी खंडहर की शक्ल में निशाँ मिला करते है ।

    राजा फ़साहत जब अंग्रेज़ों से अपना इनाम मांगने गया तो अंग्रेज़ो ने उसे भी यह कह के फांसी दे दी की तुम जब अपने भाई के नहीं हुए तो हमारे वफादार कैसी हो सकते हो ।

    माहुल में राजा मुज़फ्फर जो राजा इदारत जहां  का पुत्र था उसने बदला लेने के लिए १६००० सिपाहियों  बनायी जिसमे मखदूम बक्श भी शामिल थे । इस फ़ौज ने तिघरा नामक स्थान पे अंग्रेज़ो पे हमला कर दिया ।  अँगरेज़ फ़ौज घबरा गयी और बिखरने लगी । राजा मुज़फ्फर सन १८६० तक  अंग्रेज़ो से लड़ते रहे और अंत में आगरा के क़िले में क़ैद कर  दिए गए ।


     राजा मुज़फ्फर जहा ने क़ैद होने के पहले खानदान  की  महिलाओं को  खुरासो से नेपाल की तरफ भेज  दिया था और  जब वो आगरा से आज़ाद हुआ तो रुदौली में मीर हुसैन और शेर अली के यहां  शरण ली ।


    राजा इदारत जहां की फांसी की कहानी अंजुम की ज़बानी 



    सन १८५७ ई० की जन क्रांती मे जिनको फांसी दे दी और उनकी संपत्ती को ज़प्त कर लिया वास्तव में वही स्वतंत्रता की प्रथम क्रांतिकाारी और वीर सैनिक थे जिनपे आज भी भारतवर्ष को गर्व है ।

    इन गौरवपूर्ण विभूतियों में राजा इदारत जहा , मेहदी हसन , राजा मुज़फ्फर ,दीवान अमर सिंह , ज़मींदार कुंवर पुर और इनके साथियो का नाम हमेशा अमर रहेगा ।


    राजा इदारत जहां के कुछ वंशज बडागांव छुप के गए और वहां से मुल्तान की तरफ निकल गए लेकिन कुछ उनके वंशज सिकंदर जहां , हैदर जहां रुदौली खेतासराय में और लोरपुर की तरफ निकल गए | 

    राजा इदारत जहां शिया सय्यद थे और उन्होंने अपने समय में बहुत सी मस्जिदें और इमामबाड़े भी बनवाये सय्यद  अहसन अख्विंद मीर जो ईरान के शाह तह्मस्प की फ़ौज में थे हुमायूँ के साथ हिन्दुस्तान आये और जौनपुर में आकर बस गए | उन्होंने बहुत से इमामबाड़े बनवाये जो आज भी मौजूद हैं और उन्होंने ही इस अज़ादारी में " ज़ुल्जिनाह "निकालने का तरीका शामिल किया जो ईरान में पहले से ही मौजूद था | राजा इदारत जहां जो सय्यिद अहसन अख्विंद मीर की नस्ल से हैं उन्होंने भी मस्जिदों और इमाम बाड़ों की तामील करवायी | REF: ibid PG 50-53


    ......लेखक एस एम् मासूम 


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    S.M.Masoom
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    4 comments:

    1. Bahot khoob
      Thanks from the bottom of my heart to the developer as well research team of hamarajaunpur.com who has been doing brilliant work in the field of History of JAUNPUR
      Highly appreciative...

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    2. S.M.masoom sahab history to theek hai...
      Lekin jo isme shajra Apne Diya hai wo theek nahi mein apko....sahi shajra deta Hun ho sake to use aap edit karien. Aur update karien...Dhyan rakhien shajra mein diya Gaye Naam baap Bete aur bhai mein kafi mukhtalif hai...maslan Zulfiqar Jahan Idarat Jahan ke Bhai the na ki Baap ...
      Is tarah se in galtiyon Ko theek karne ki. Koshish karien.

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    एस एम् मासूम

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