मसला यह नहीं ये मसले हल कौन करे
मसला यह है की अब इसमें पहल कौन करे |
आसमा दूर ज़मीन सख्त कहाँ जाय कोई
काश ऐसे में चला आये कोई |
सैय्यद अहमद मुज्तबा “वामिक जौनपुरी"का जन्म 23 अक्टूबर 1909 को एतिहासिक शहर जौनपुर से लगभग आठ किमी दूर कजगांव (माधो पट्टी ) में हुआ और आज भी उनका घर वहाँ मौजूद है जिसे लाल कोठी के नाम से जाना जाता है | उसकी माता का नाम था अश्र्फुन्निसा बीवी और पिताजी का नाम था खान बहादुर सैय्यद मोहम्मद मुस्तफा, जो सन 1914 के पीसीएस थे और उस माधोपट्टी गाँव के पहले पीसीएस थे जो आज विश्व भर में ७५ घरों में से 47 आईएएस अधिकारी के लिए मशहूर है | वामिग साहब के पिता ने फैजाबाद की डिपुटी कलेक्टरी की नौकरी से शुरू करके बरेली की कमिश्नरी से अवकाश पाया|
वामिग साहब की पांच साल की उम्र में शिक्षा-दीक्षा उनके नाना मीर रियाउद्दीन साहब के यहाँ से शुरू हुयी और अपने पिताजी की दूसरी पोस्टिंग पर मुस्तफा साहब परिवार साथ सुल्तानपुर आ गए | जहा इनकी उर्दू और अंग्रेजी की शिक्षा शुरू हुई| बारांबकी में भी यही सिलसिला तब तक चलता रहा जब तक बकायदा गवर्नमेंट हाई स्कूल बारांबकी के पांचवे दर्जे में दाखिल नहीं हो गए|
इसी दौरान मुंसिफ मौहम्मद बाक़र साहब और मुमताज हुसैन जौनपुरी से फन्ने खत्ताती ( कैलीग्राफी या सुलेख कला ) सीखी|
1926 में इंटर करने के लिए गवर्नमेंट इंटर कालेज, फैजाबाद भेजे गए| बचपन में घर के इस्तेमाल की मामूली मशीने ठीक करते देख पिता ने इंजिनियर बनाने की ठान ली थी| 1929 में लखनऊ यूनिवर्सिटी में बी.एस.सी में दाखिला लिया और महमूदाबाद हॉस्टल में रहे| अंग्रेजी और उसके माध्यम से विश्व साहित्य खंगाल डाला| उर्दू में मोहम्मद हसन आजाद, शिबली, हाली, मेहंदी अफादी, सैय्यद हैदर यलदरम और नियाज फतेहपुरी को भी पढ़ गए|
आजादी की लड़ाई में शामिल होने की ललक असहयोग आंदोलन के समय ही हो गयी थी लेकिन पिता का असर के कारण यह जज्बा दबा ही रहा| 1926 में इंजिनियर बनने निकले थे 1937 में वकील बनकर निकले| ट्रेनिंग पूरी की और फैजाबाद में औसत दर्जे का मकान, फर्नीचर-किताबे और मुंशी का जुगाड करके प्रेक्टिस शुरू कर दी| मुंशी होशियार और तजुर्बेकार था| वेतन के बजाय 40 फीसद हिस्सा लेना पसंद करते थे| साल भर में घर से पैसे लेने की जरुरत न रही और परिवार भी फैजाबाद आ गया| लेकिन शायरी को यह चैन मंजूर न था|
शायरी की शुरुवात भी यही फैजाबाद में हुई | मकान के आधे हिस्से में मकान मालिक हकीम मज्जे दरियाबादी रहते और बाकी आधे में वामिक साहब का चेंबर और घर था| हकीम साहब शेरो-शायरी के शौकीन थे और खुमार बारंबकवी और मजरूह सुल्तानपुरी आये दिन आते रहते| आये दिन शेरो-शायरी की महफिले जमती| एक अदबी अंजुमन भी बनी और हर पखवाड़े तरही-नशिश्ते होती| इनमे आते-जाते वामिक को लगा की ज्यादातर मकामी शायर खराब और बसी शेर पढते हैं और यह भी कि जो शेर किसी की समझ में न आता उसकी खूब तारीफ होती|
नौकरी की तलाश में राजधानियो के कई चक्कर लगाये लेंकिन कामयाब ना हो सके | लखनऊ रहे हो या दिल्ली, शायरी का बाज़ार गर्म रहा | अगस्त 1943 में अलीगढ में बंगाल के अकाल की रिपोर्ट किसी अखबार में पढ़ी, घर आये, बीवी से कुछ रूपये क़र्ज़ लिए और कलकत्ता जा पहुचे | ऐसे ही महाकाल का नर्तन देख जब ट्रेन में सवार हुए तो लगा की सडती हुई लाशो के दलदल से निकल कर आ रहा हू | और ऐसे ही एक रात बिस्तर पर लेटते ही एक मिसरा कौंधा – भूका है बंगाल रे साथी भूका है बंगाल – फिर दो कर्वातो में दूसरा और फिर बाकी धारा प्रवाह | उन्ही के शब्दों में, “ इसके बाद तो बोल इस तरह कलम से तरशा होने लगे जिस तरह से ऊँगली कट जाने पर खून के कतरे | शायद इसी को इस्तलाहन इल्का (इश्वर की और से दिल में डाली गयी बात) कहते है |” भूका बंगाल का कई भारतीय भाषाओ में अनुवाद किया गया | 1944 की शुरुवात में क्वींस कालेज बनारस में लोगो की फरमाइश पर ‘भूका बंगाल’ पढ़ी | वाहवाही लुटी |
पहला कविता संग्रह ‘चीखे’ 1948 में छपा | रचनाए जिनमे ज्यादातर मुख़्तसर नज्मे है, का पसमज़र 1939 से 1948 तक खुनी मंज़र है | इसमें ‘पंजाब’ नाम से ‘तक्सिमे पंजाब’ और ‘वतन का मीरे कारवां’ नाम से ‘मीरे कारवां’ के पहले प्रारूप भी है| ‘जरस’ की भूमिका में प्रसिद्द आलोचक एहतेशाम हुसैन ने लिखा, ‘वामिक के अंदर गैर मामूली शायराना सलाहियते है’ 'जरस' 1950 में छपा| इसमें 46 नज्मे, 24 गज़ले और फुटकर अशआर शामिल है | आपने फिर प्रोफ़ेसर मसिउज्ज्मा के साथ ‘इंतिखाब’ पत्रिका भी निकाली | जुलाई 1949 में अपनी पुरानी नियुक्ति टाउन राशनिंग की अफसरी पर वापस आ गए | और जयपुर से बाराबंकी का तबादला करवा लिया | वामिक साहब अपना आदर्श उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्द तथा मशहूर शायर सज्जाद जहीर “बन्ने भाई” को मानते थे। उनका लोहा कैफी आजमी जैसे सुप्रसिद्ध शायद भी मानते थे।
१९५०-५२ के दो साल कजगांव रहे | इसी समय चीन में आयोजित पैसिफिक अमन कांफ्रेंस का निमत्रण मिला पर पासपोर्ट देर से मिलने के कारण न जा सके लेकिन विश्व शांति पर उनकी नज्म ‘नीला परचम’ तैयार हो गयी | इसी ज़माने में आपने अंग्रेजी ओड शैली में ‘ज़मी’ नज़्म कही | यह जाकिर हुसैन की प्रिय नज्म थी| अगस्त 1955 में उन्होंने अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के इंजीनियरिंग कालेज में आफिस सुपरिटेंडेंट का पद स्वीकार कर लिया |
छोटे बेटे बाक़र और बेटी शिरी को लेकर अलीगढ चले गए और नौकरी कर ली | वहा 6 साल रहे | इसी दौर में प्रसिद्द नज़्म ‘फन’ कही | मजाज़ की मौत की खबर यही मिली | एक रेडियो नाटक ‘बाजहस्त’ लिख कर श्रद्धांजलि दी | 1960 के अंत में पकिस्तान रायटर्स गिल्ड द्वारा आयोजित मुशायरे में भाग लेने गए | जहा जोश मलीहाबादी, कुर्रतुलएन हैदर, रईस अमरोहवी और जान एलिया से मुलाकाते हुई |
मृत्यु से कुछ साल पहले का दौर छोड़कर जौनपुर निवास रचनात्मकता का जबरदस्त दौर था | इसी दौर में उन्होंने नर-क्लासिकी अंदाज की बेहतरीन गज़ले, गज़ल पर एक मुकम्मल किताब जैसी अमर कृति ‘गज़ल-दर-ग़ज़ल’ के अलावा ‘जहानुमा’, ‘सफर-नातमाम’, ‘हम बुजदिल है’, ‘एक दो तीन’ , ‘कुल अदम कुनफ़का’ जैसी कई शाहकार नज्मे लिखी | इनमे से कुछ शबचराग (1978) और बाकि सफरेतमाम (1990) में छपी है | कुछ और छपी बाकि अप्रकाशित है | इसी दौर में उन्होंने खुदाबख्श ओरियंटल पब्लिक लाइब्रेरी पटना के लिए अपनी आत्मकथा ‘गुफ्तनी-नागुफ्तनी’ लिखी |
वामिक जितना जाने जाते है उतना पढ़े नहीं गए | 1984 में उनकी 75 वी सालगिरह पर आयोजित सेमिनार, वामिक के बहाने हिंदी उर्दू की प्रगतिशील कविता पर बातचीत’ में उर्दू तरक्कीपसंदो की दो पीढ़ी के दिग्गज मौजूद थे लेकिन तान सबकी ‘जरस’ (1950) पर टूटती थी|
आपको कई सम्मान भी मिले 1979 में ‘इम्तेयाजे मीर’, 1980 में सोवियत लैंड नेहरु अवार्ड, १९९१ में उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी सम्मान, 1998 में ग़ालिब अकादमी का कविता सम्मान |
21 नवम्बर 1998 वो दिन था जब आपने दुनिया को अलविदा कहा | सुनिए वामिग जौनपुरी की आवाज़ में उनकी मशहूर ग़ज़ल |
वामिग जौनपुरी विडियो
मसला यह नहीं ये मसले हल कौन करे
मसला यह है की अब इसमें पहल कौन करे
आसमा दूर ज़मीन सख्त कहाँ जाय कोई
काश ऐसे में चला आये कोई
भूका बंगाल / 'वामिक़' जौनपुरी
पूरब देस में डुग्गी बाजी फैला सुख का हाल
दुख की आगनी कौन बुझाए सूख गए सब ताल
जिन हाथों में मोती रो ले आज वहीं कंगाल
आज वही कंगाल
भूका है बंगाल रे साथ भूका है बंगाल
पीठ से अपने पेट लगाए लाखों उल्टे खाट
भीक-मँगाई से थक थक कर उतरे मौत के घाट
जियन-मरन के डंडे मिलाए बैठे है चंडाल रे साथी
बैठे हैं चंडाल
भूका है बंगाल रे साथी भूका है बंगाल
नद्दी नाले गली डगर पर लाशों के अम्बार
जान की ऐसी मंहगी शय का उलट ग्या व्यापार
मुट्ठी भर चावल से बढ़ कर सस्ता है ये माल रे साथी
सस्ता है ये माल
भूका है बंगाल रे साथी भूका है बंगाल
कोठरियों में गांजे बैठे बनिए सारा अनाज
सुदंर-नारी भूक की मारी बेचे घर-घर लाज
चौपट-नगरी कौन सँभाले चार तरफ़ भूँचाल
चार तरफ़ भूँचाल
भूका है बंगाल रे साथी भूका है बंगाल
पुरखों ने घर बार लुटाया छोड़ के सब का साथ
माएँ रोईं बिलक बिलक कर बच्चे भए अनाथ
सदा सुहागन बिधवा बाजे खोले सर के बाल रे साथी
खोले सर के बाल
भूका है बंगाल रे साथी भूका है बंगाल
अत्ती-पत्ती चबा-चबा कर जूझ रहा है देस
मौत ने कितने घूँघट मारे बदले सौ सौ भेस
काल बकुट फैलाए रहा है बीमारी का जाल रे साथी
बीमारी का जाल
भूका है बंगाल रे साथी भूका है बंगाल
धरती-माता की छाती में चोट लगी है कारी
माया-काली के फंदे में वक़्त पड़ा है भारी
अब से उठ जा नींद के माते देख तू जग का हाल रे साथी
देख तू जग का हाल
भूका है बंगाल रे साथी भूका है बंगाल
प्यारी माता चिंता मत कर हम हैं आने वाले
कुंदन-रस खेतों में तेरी गोद बसाने वाले
ख़ून पसीना हल हंसिया से दूर करेंगे काल रे साथी
दूर करेंगे काल
भूका है बंगाल रे साथी भूका है बंगाल
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