जौनपुर कभी "शिराज़-ए-हिंद" के नाम से मशहूर था, और इसके इत्र की खुशबू पूरे तो भारत मशहूर थी | जौनपुर का अतीत गौरवशाली रहा है। शर्की शासनकाल में कला, साहित्य और संगीत का यह प्रमुख केंद्र हुआ करता था। मुगल काल में भी इसकी समृद्धि बढ़ी। ब्रिटिश काल में इसे व्यावसायिक केंद्र के रूप में पहचान मिली। 19वीं शताब्दी में यहां इत्र के कारोबार की भी शुरुआत हुई। चमेली, बेला, गुलाब, हरसिंगार के फूलों से बनने वाले इत्र राजा-महाराजाओं की तो पसंद थे ही, विदेशों में भी उनकी मांग थी। लोग बताते हैं कि इत्र बनाने और बेचने वालों की बड़ी संख्या के कारण शहर बलुआ घाट, मधारे टोला, नखास, कोतवाली चौराहा आदि मोहल्लों में हमेशा सुगंधित वातावरण रहता था। समय के थपेड़ों और सरकारी प्रोत्साहन के अभाव में यह उद्योग अब अंतिम सांस ले रहा है।इस वर्ष जौनपुर जाने पे मुझे लगा कि यहाँ के कुछ इलाके अब तरक्की कि राह पे चल पड़े हैं | लेकिन इस तरक्की को देख के भी दुःख हुआ कि यहाँ के लोग अब अपनी पहचान भी खोते जा रहे हैं |
जौनपुर का मशहूर इत्र जिसका ज़िक्र विध्यापति की काव्य रचना में भी हुआ है | जौनपुर कोतवाली के पास कि नवाब युसूफ रोड जो कभी हमेशा इत्र कि खुशबु से महका करती थी आज सुनसान दिखती है | इक्का दुक्का इत्र कि दुकानें अभी भी दिख जाया करती है |
इस बार नवाब युसूफ रोड पे स्थित इत्र की एक दूकान पे पहुँच और वहाँ पे बैठे जनाब ज़कारिया साहब से इत्र और चमेली के तेल के बारे में जानकारी हासिल की | ज़कारिया साहब का कहना है कि असली इत्र अब बहुत मंहगा होता जा रहा है इसलिए अब वो बनाया भी कम जाता है लेकिन बहार के मुल्कों में इसकी आज भी खपत अच्छी है |
आप भी लें जनाब ज़कारिया साहब से जौनपुर के इत्र और चमेली के तेल के बारे में कुछ जानकारी |
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