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    रविवार, 6 मार्च 2016

    बहु-प्रतिभाशाली है जौनपुर जनपद के डॉ लाल रत्नाकर


    जौनपुर जनपद के एक ग्रामीण परिवेश के गाँव बिशुनपुर में जन्मे डॉ लाल रत्नाकर जी एक बहु-प्रतिभाशाली व्यक्ति है | डॉ लाल रत्नाकर  जी ने बताया की उनका जन्म 12 अगस्त 1957 को एक ऐसे किसान के घर हुआ जिसमें शिक्षा की महत्ता का मतलब और सामाजिक तानाबाना की समझ प्रभावी रही. उसी परिवेश में लालन पालन, कड़ी मेहनत का पिताजी का नजरिया, दादी मन की ईमानदारी और माता जी का हाड़तोड़ मेहनत का स्वाभाव चाचा और बुजुर्गों से भरा पूरा परिवार हर ओर से सलाह मशविरा, मित्रों की पिताजी की फौज का दिशा निर्देश, ननिहाल का लाड प्यार, बूआओन  की फौज ने जो दिया उसी को लेकर कई विश्वविद्यालयों में जाने का अवसर मिला यथा गोरखपुर कानपुर बनारस अवध और अब मेरठ | इनके पिताजी  डा.रमापति यादव, माताःश्रीमती रामरति यादव थे |दुनिया जिसे आधी आबादी कहती है वही आधी आवादी मेरे चित्रों की पूरी दुनिया बनती है. यही वह आवादी है जो सदियों से संास्कृतिक सरोकारों को सहेज कर पीढि़यों को सौंपती रही है वही संस्कारों का पोषण करती रही है. कितने शीतल भाव से वह अपने दर्द को अपने भीतर समेटे रखती है और कितनी सहजता से अपना दर्द छिपाये रखती है. कहने को वह आधी आबादी है लेकिन शेष आधी आबादी यानी पुरूषों की दुनिया में उसकी जगह सिर्फ हाशिऐ पर दिखती है जबकि हमारी दुनिया में दुख दर्द से लेकर उत्सव-त्योहार तक हर अवसर पर उसकी उपस्थिति अपरिहार्य दिखती है जहां तक मेरे चित्रों के परिवेश का सवाल है, उनमें गांव इसलिए ज्यादा दिखाई देता है क्योंकि मैं खुद अपने आप को गांव के नजदीक महशूस करता हूँ सच कहू तो वही परिवेश मुझे सजीव, सटीक और वास्तविक लगता है. बनावटी और दिखावटी नहीं.  बार-बार लगता है की हम उस आधी आवादी के ऋणी हैं और मेरे चित्र उऋण होने की सफल-असफल कोशिश भर है|

    डॉ लाल रत्नाकर जी दुनिया के मशहूर चित्रकार हैं जिन्हें न जाने कितने अवार्ड्स से अब तक नवाज़ा जा चुका है |


    डॉ लाल रत्नाकर जी एम.एम.एच. कालेज गाजियाबाद में एसोसिएट प्रोफेसर एवं अध्यक्ष चित्रकला विभाग, हैं |





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    S.M.Masoom
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    डॉ लाल रत्नाकर जी ने एक साक्षात्कारमें कहा था कि बचपन में कला दीर्घाओं के नाम पर पत्थर के कोल्हू की दीवारें, असवारी और मटके के चित्र, मिसिराइन के भित्ति चित्र आकर्षित ही नहीं, सृजन के लिए प्रेरित भी करते थे. गांव की लिपी-पुती दीवारों पर गेरू या कोयले के टुकड़े से कुछ आकार देकर जो आनंद मिलता था, वह सुख कैनवास पर काम करने से कहीं ज्यादा था. स्कूल की पढ़ाई के साथ-साथ रेखाएं ज्यादा सकून देती रहीं और यहीं से निकली कलात्मक अनुभूति की अभिव्यक्ति, जो अक्षरों से ज्यादा सहज प्रतीत होने लगी. एक तरफ विज्ञान की विभिन्न शाखाओं की जटिलता वहीं दूसरी ओर चित्रकारी की सरलता. ऐसे में सहज था चित्रकला का वरण. तब तक इस बात से अनभिज्ञता ही थी कि इस का भविष्य क्या होगा. जाहिर है, उत्साह बना रहा.ग्रेजुएशन के लिए बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और गोरखपुर विश्वविद्यालय में आवेदन दिया और दोनों जगह चयन भी हो गया. अंतत: गोरखपुर विश्वविद्यालय के चित्रकला विभाग में प्रवेश लिया और यहीं मिले कलागुरू श्री जितेन्द्र कुमार. सच कहें तो कला को जानने-समझने की शुरुवात यहीं से हुई. फिर कानपुर से बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के कलाकुल पद्मश्री राय कृष्ण दास का सानिध्य, श्री आनन्द कृष्ण जी के निर्देशन में पूर्वी उत्तर प्रदेश की लोक कला पर शोध, फिर देश के अलग-अलग हिस्सों में कला प्रदर्शनियों का आयोजन...तो कला के विद्यार्थी के रुप में आज भी यह यात्रा जारी है. कला के विविध अछूते विषयों को जानने और उन पर काम करने की जो उर्जा मेरे अंदर बनी और बची हुई है, उनमें वह सब शामिल है, जिन्हें अपने बचपन में देखते हुए मैं इस संसार में दाखिल हुआ.


    डॉ साहब एक सफल चित्रकार के साथ साथ एक कवी भी हैं और उनकी कविताएँ भी उनके चित्रों की तरह जीविन हैं | अपने वतन जौनपुर से उन्हें बहुत प्रेम है और अपने गाँव को आज भी याद करते नहीं थकते | जब भी समय मिलता है अपने गाँव अपनों के बीच समय बिताने आ जाया करते हैं | देखिये अपनी इस कविता में कैसे उन्होंने अपने गाँव को याद किया है |






    यादों में बसा गाँव, साँसों में बसा गाँव
    अपनों से भरा गाँव, एहसाश भरा छाँव .

    उम्मीदों से भरा गाँव, गोबर से सना गाँव
    मडहों से सजा गाँव, खलिहानों से भरा गाँव

    पुरवट से सिंचाई, फसलों की दौरिआहि
    हेंगा की सवारी, भैसों की चरवाही .

    बकरी का औषधि दूध, गदहे की सौम्य पीठ
    खेतों की रखवाली, घस्छोलानियों की चिरौरी

    गन्नों से सजे खेत, गदराये हुए खेत
    ताजे अनाजों से सुबहा ही भरे पेट

    बागों की छैयां में, गोंदी हो मैया की
    खटिया हो भैया की, भौजी का आक्रोश

    चूल्हे की पकी रोटी, कितनी ही ओ मोटी
    माँ की कछरी की, ललछौं लिए दही की

    चूनी की रोटी की, चोटे की फजीहत की
    गुड की मारामारी, जलेबी की खरीददारी

    नदिया में नहाने की, हर खेल में हार जाने की
    घर में मार खाने की, बाबूजी के सामने आने की

    भैसों को नहलाने की, नदी में डूब जाने की
    पेड़ों पे चढ़ जाने की, कई बार गिरने की

    बहुत याद आती है गुजरे हुए जमाने की
    अब गाँव न जा पाने की और शहरी न हो पाने की

    यादों में बसा गाँव, साँसों में बसा गाँव
    अपनों से भरा गाँव, एहसाश भरा छाँव




     लेकिन अपने गाँव की बदहाली पे दुखी भी होते हैं | दखी डॉ लाल जी का मन अपने गाँव की बदहाली को कैसे बयां कर रह है |



    हे गाँव तुम्हारी बदहाली का .......डॉ.लाल रत्नाकर


    हे गाँव तुम्हारी बदहाली का
    क्या क्या दर्ज करूं  ?

    प्रकृति प्रदत्त संसाधनों का
    या सरकारी बंदोबस्त !

    सड़कें, बिजली, पानी का
    या स्वास्थ्य जनित इंतजामों का

    झोला छाप डाक्टरों का
    या लम्पट नेतागिरी का

    जन्म मृत्यु के पहरेदारों
    या सरकारी हिस्सेदारी का

    नात-बात या अपनों का
    किसकी बात करूं

    जिनको देखो वही सुखी हैं
    या सुख का नाटक करते हैं

    अपने अपने छाँट छाँट कर
    सम्बन्ध जताते हैं

    भाई बंदी गुजर गयी है
    किसी जमाने में

    अब जो नयी संस्कृति आयी
    गाँवोँ  की हिस्सेदारी में

    आयातीत है, देशी है,या
    परदेश से आयी है !

    सरकारी है या उधार की
    करमचारिणी विचारी है

    स्कूलों में, हस्पतालों में
    उसकी जो कारगुजारी है

    अच्छे अच्छे गुजर जा रहे
    इनके  इंतजामों से

    ये विकास के सरकारी नाटक
    दर्ज करूं ! या ....

    माँ बाप तो ज़िंदा हैं
    पर दुःख के मारे हैं

    नौजान के हाल देखकर
    हलाकान संरक्षक हैं

    मेहनतकश के मेहनत की
    कीमत सरकारी है

    मोबाइल पर खबर मिली है
    वो बेहद दुखदायी है

    हे गाँव तुम्हारी बदहाली का
    क्या क्या दर्ज करूं  ?

    गाय भैंस के गोबर का
    या दूध दही की मार्केटिंग का

    स्कूलों के उन्नतीकरण का
    या बढ़ते पब्लिक स्कूलों का

    गाँवो के उन्नतिकरण का
    या शहरी होने का

    भाईचारा या अपनेपन में
    हिस्सेदारी का

    ये लेखा इतना विकट हो गया
    भाई हिस्सेदारी का

    बाबूजी फिर खड़े हो गए
    आखिर सबकुछ खोने पर

    रोते रोते बयां कर रहे
    देखो मैं तो जिन्दा हूँ

    बच्ची तुम अब फिकर न करना
    मैं यूँ ही खड़ा रहूँ

    कौन बताये उनको अब ये
    बैशाखी टूट गयी

    इसी व्यवस्था ने छिनी है
    जिनकी खुशियों को

    आश सांत्वना दे रहे हैं
    हम उसी विचारी को।

    हे गाँव तुम्हारी बदहाली का
    क्या क्या दर्ज करूं  ?

    हम जौनपुर वासियों को डॉ लाल जैसे बहु-प्रतिभाशाली कलाकार पे नाज़ है | डॉ लाल रत्नाकर जी के बारे में अधिक जानकारी के लिए उनके ब्लॉग और वेबसाईट पे जाएं |

    पेशकर्ता : एस एम् मासूम
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    2 comments:

    1. रत्नाकर जी हमारे शहर गाजियाबाद के भी चहेते हैं. इसे कलाक्षेत्र बनाने में उनकी भूमिका बहुत बड़ी है. मैं उन्हें इस अवसर पर बधाई देता हूं.

      जवाब देंहटाएं
    2. रत्नाकर जी एक बहुत ही उम्दा इन्सान हैं। और इनकी कलाकृतियाँ गाँव के जीवन को बख़ूबी बयान करती हैं।

      जवाब देंहटाएं

    हमारा जौनपुर में आपके सुझाव का स्वागत है | सुझाव दे के अपने वतन जौनपुर को विश्वपटल पे उसका सही स्थान दिलाने में हमारी मदद करें |
    संचालक
    एस एम् मासूम

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