भारत की नेचर्स फोरएवर सोसायटी ऑफ इंडिया फाउंडर और प्रेसिडेंट सुप्रसिद्ध पर्यावरणविद मोहम्मद ई दिलावर जैसे लोगों के प्रयासों से आज दुनिया भर में 20 मार्च को विश्व गौरैया दिवस मानाया जाता है, ताकि लोग इस पक्षी के संरक्षण के प्रति जागरूक हो सकें। डॉ दिलवर का कहना है कि यदि हम अपने आस पास रहने वाली गौरैया को नहीं बचा सकते तो टाइगर को बचाने की बातें केवल सपना ही साबित होंगी | गौरैया को बचाने की पहल को मद्देनज़र रखते हुए भारत की नेचर्स फोरएवर सोसायटी ऑफ इंडिया और इको सिस एक्शन फाउंडेशन फ्रांस के साथ ही अन्य तमाम अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों ने मिलकर गत 20 मार्च को ष्विश्व गौरैया दिवसष् मनाने की घोषणा की और वर्ष 2010 में पहली बार विश्व गौरैया दिवस मनाया गया।
इस दिन को गौरैया के अस्तित्व और उसके सम्मान में रेड लेटर डे (अति महत्वपूर्ण दिन) भी कहा गया। इसी क्रम में भारतीय डाक विभाग ने 9 जुलाई 2010 को गौरैया पर डाक टिकट जारी किए। कम होती गौरैया की संख्या को देखते हुए 14 अगस्त 2012 में दिल्ली सरकार ने इसे राज्य पक्षी घोषित किया। वहीं गौरैया के संरक्षण के लिए बम्बई नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी ने इंडियन बर्ड कंजरवेशन नेटवर्क के तहत ऑन लाइन सर्वे भी आरंभ किया हुआ है। कई एनजीओ गौरैया को सहेजने की मुहिम में जुट गए हैं|
ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, चेक गणराज्य, इटली, फिनलैंड और बेल्जियम में भी इसकी संख्या तेज़ी से गिरी है. आधुनिक युग में रहन-सहन और वातावरण में आए बदलावों के कारण आज गौरैया पर कई ख़तरे मंडरा रहे हैं. सबसे प्रमुख ख़तरा उसके आवास स्थलों का उजड़ना है| आज हमारे घरों में आंगन होते ही कहां हैं, फिर बेचारी गौरैया घोंसला बनाए कहां? आधुनिक युग में पक्के मकानों की बढ़ती संख्या एवं लुप्त होते बाग़-बग़ीचे भी उसके आवास स्थल को छीन रहे हैं| गौरैया का वैज्ञानिक नाम पासर डोमेस्टिकस है | भारत में गौरैया के कई नाम हैं, जैसे गौरा और चटक. तमिलनाडु और केरल में यह कूरूवी नाम से जानी जाती है, जबकि जम्मू-कश्मीर में इसे चेर, पश्चिम बंगाल में चराई पाखी और उड़ीसा में घरचटिया कहते हैं. तेलुगु में इसे पिच्चूका, कन्नड़ में गुब्बाच्ची, गुजराती में चकली, मराठी में चिमानी, पंजाबी में चिड़ी, उर्दू में चिड़िया और सिंधी में झिरकी कहा जाता है| मार्च माह शुरू होते ही नर-मादा संयुक्त रूप से घास-फूस के तिनके की मदद से घोंसला बनाना शुरू कर देते हैं ताकि अप्रैल में मादा उसमें अंडे दे सकें।
गौरैया सिर्फ एक चिडि़या का नाम नहीं है, बल्कि हमारे परिवेश, साहित्य, कला, संस्कृति से भी उसका अभिन्न सम्बन्ध रहा है। आज भी बच्चों को चिडि़या के रूप में पहला नाम गौरैया का ही बताया जाता है। ऐसा भी माना जाता है कि जिस घर में इनका वास होता है वहाँ बीमारी और दरिद्रता दोनों दूर-दूरतक नहीं आते और जब विपत्ति आनी होती है तो ये अपना बसेरा उस घर से छोड़ देती है|
जौनपुर की उन भाग्यशाली शहरों में से हैं जहां आज भी लोगों की सुबह गौरैया की चहचहाहट से हुआ करती है | मेरा घर जौनपुर शहर में गोमती किनारे होने के कारण आज भी सुबह सुबह आँगन में गौरैयों का झुण्ड आता जाता रहता है और उनकी चहचाहट से ही सुबह की शुरुआत हुआ करती है |जौनपुर के डॉ मनोज मिश्र इस बात पे गर्व महसूस करते हैं की उनके आँगन में आज भी गौरय्या चहचहाती है | मक्के के साथ गौरैया के चित्र उनके ही आँगन के हैं | शायद इसका कारण आज भी जौंपुरियों का अपनी माटी से जुड़ा रहना और मक्के की खेती है | आज भी आँगन में लोग इन गौरैयों को दाना बड़े प्रेम से डालते दिखा जाया करते है | वैसे भी मेरा मानना है की की गाँव का गरीब शहरों के अमीरों से बेहतर हुआ करते हैं क्यूँ की गाँव का गरीब कम से कम कुछ चिड़ियों को तो दाना खिला ही देता है लेकिन यह शहरों के अमीर गरीब को दो वक़्त भी खाना नहीं खिला पाते |
साहित्य में गौरैया- हमारे साहित्य में भी इस प्यारी गौरैया को बहुत स्थान मिला है। लोकगीतों में अक्सर हम सभी ने इसी चिड़िया को अपने आंगन में फ़ुदकते देखा और इसकी आत्मीयता को महसूस किया है|
“चिड़िया चुगे है दाना हो मोरे अंगनवा---मोरे अंगनवा”
इसकी भांति-भांति की क्रियाओं को कवियों साहित्यकारों ने अपने-अपने ढंग से चित्रित करने का प्रयास किया है। घाघ-भड्डरी की कहावतों में तो इसके धूल-स्नान की क्रिया को प्रकृति और मौसम से जोड़ा गया है|
“कलसा पानी गरम है, चिड़िया नहावै धूर। चींटी लै अंडा चढ़ै, तौ बरसा भरपूर।”
यानि कि गौरैया जब धूल में स्नान करे तो यह मानना चाहिये कि बहुत तेज बारिश होने वाली है। आधुनिक काल के कवियों ने भी इस प्यारी चिड़िया को रेखांकित किया है। “मेरे मटमैले आंगन में, फ़ुदक रही प्यारी गौरैया” (शिवमंगल सिंह सुमन) “गौरैया घोंसला बनाने लगी ओसारे देवर जी के” कैलाश गौतम।
खीरी जनपद के ओयल कस्बे में रहने वाले मशहूर लेखक रामेन्द्र जनवार जी की मशहूर कविता आपके सामने विश्व गौरैया दिवस के अवसर पे पेश है |
माँ चाहती है
माँ चाहती है
गोबर लिपा आँगन
लगा रहे आंगन में
तुलसी का बिरवा
माँ चाहती है
मुंडेर पर जब-तब
आता रहे कागा
बना रहे घर में
अपनों का आना-जाना
माँ चाहती है
आंगन के छप्पर से
चुन-चुन कर तिनके
नन्ही गौरैया बेखौफ़
बनाती रहे घोंसला अपना
माँ यही चाहती है
कि बची रहें संवेदनायें
कायम रहे सरोकार
बनी रहे दुनिया सारी
माँ चाहती है
कि हर घर के आंगन में
चहकती हुई, फ़ुदकती हुई
बाँटती रहे खुशियां यूं ही
मासूम नन्ही गौरैया
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गौरैया बहुत परेशान
सूखे-सूखे ताल-पोखर
सूने खलिहान
बीघा भर धरती में
मुठ्ठी भर धान
चुग्गा-चाई का कहीं
ठौर ना ठिकान
गौरैया बहुत परेशान
कौन जाने कहाँ गए
मेघों के साए
तपती दुपहरिया
पंखों को झुलसाए
भारी मुश्किल में है
नन्ही सी जान
गौरैया बहुत परेशान
घनी-घनी शाखों पर
बाज़ों का डेरा
कहां बनाए जाकर
अपना बसेरा
मंजिल अनजानी है
रस्ते वीरान
गौरैया बहुत परेशान
कविता ----रामेन्द्र जनवार जी से ramendra.janwar78@rediffmail.com व 09838980878 पर संपर्क कर सकते हैं।)
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