शाही पुल पे स्थित "गज सिंह मूर्ती" को लोग वर्षों से देख रहे हैं लेकिन इसका सही इतिहास आज भी किसी को नहीं पता बस लोगों के बीच बहुत सी किंवदंतियाँ है जो एक दुसरे से लोग बताया करते हैं | इतिहासकारों ने भी इसके बारे में लिखा जैसे जौनपुर नामा में लिखा गया की यह बौध मंदिर के द्वार पे लगा हुआ था जिसे अपनी विजय का प्रतीक बौध मानते थे | इस बात में सच्चाई की सम्भावना मुझे कम दिखती है क्यूंकि मैंने पूरे देश में इसी शार्दुल के अलग अलग रूप देखे हैं | जैसे कोणार्क मंदिर में और खजुराहो में जिसमे बौद्ध काल का कोई निशाँ नहीं है | |
गज सिंह या शार्दुल जौनपुर |
इसमें कोई शक नहीं की यह गज सिंह मूर्ती ग्यारहवीं या बारहवीं शताब्दी में या उस से पहले की बनी है | जिसपे राजपूत युग के चंदेल राजाओं की छाप है जिन्होंने खजुराहो ,कोणार्क सूर्या मंदिर इत्यादि बनवाये | इन मंदिरों में आपको मंदिर के मुख्य द्वार पे गज सिंह या सिंह के नीचे स्त्री जैसी कलाकृतियाँ और मूर्तियाँ देखने को मिलेंगी |इस दौर में राजपूत वंश ने इन मंदिरों को बनाया और इसी दौर के बने कोणार्क मंदिर में मंदिर के द्वार पे सिंह मूर्ती जो एक हाथी पे सवार है बनी हुयी है | यहाँ यह कहा जा सकता है की इस मूर्ती में शेर (शार्दुल ) गर्व का प्रतिनिधित्व करता है और हाथी धन का प्रतिनिधित्व करता है|
जौनपुर के इतिहास पे नज़र डालें तो उत्तर प्रदेश पुरातत्व विभाग द्वारा खोज के अनुसार प्राचीन काल में जौनपुर से सटे जनपद प्रतापगढ़ का सराय नाहर हिस्सा 8000 वर्ष पूर्व बसा था | जौनपुर में 500 से 325 BC को बौध काल कहा जाता है जिसमे जौनपुर कौशल नामक महाजनपद के अंतर्गत आता था और यह वो समय था जब जौनपुर में बौद्ध मंदिरों की भरमार ही | इसी लिए कुछ इतिहासकारों ने यह अनुमान लगा लिया की यह गज सिंह मूर्ती किसी बौध मंदिर के मुख्य द्वार पे लगी हुयी थी |
जौनपुर की इस गज सिंह मूर्ती के बारे में कहा जाता है कि किले की खुदाई में मिली थी और स्थानीय मान्यताओं के अनुसार किले के स्थान पे करार वीरा राछस का किला था और एक मान्यता के अनुसार कन्नौज के राजा विजयचंद्र का मंदिर भी उसी किले के स्थान पे है |यह गज सिंह मूर्ती उस समय की हो सकती है जो इसी किले के स्थान पे स्थित किसी महल या मंदिर के मुख्य द्वार पे लगी रही होगी |
प्रारम्भिक मध्यकाल में भरो के पतन के बाद बारहवीं शताब्दी के अंत तक जौनपुर में राजपूत शासन रहा और ये गज सिंह मूर्ती का शेर राजपूत चदेल राजाओं द्वारा निर्मित खजुराहो के शेर से मिलता जुलता है |
इस काल्पनिक शेर की सच्चाई |
इस काल्पनिक शेर की सच्चाई |
चंदेल राजाओं द्वारा निर्मित इस काल्पनिक सिंह को हकीकत में "शार्दुल " कहा जाता है जो एक काल्पनिक चित्रण है या आप कह लें की यह शार्दुल उस दौर का पौराणिक पशु है जिसका जिस्म शेर का हुआ करता था और मुख डरावना किसी अन्य काल्पनिक जानवर का होता था | इस दौर में सबसे अधिक इन शर्दुलों का चित्रण हुआ है |
इसी वर्ष मेरा जाना पटना से २५ किलोमीटर दूर एक ऐतिहासिक स्थाल "मनेर " जाना हुआ जहां जो सूफियों का किसी समय गढ़ रहा था और 1180 इस्स्वी में यहाँ एक छोटी से मस्जिद हजरत मखदूम शेख कमाल उद्दीन मनेरी रहमतुल्लाह अलैह के दादा हजरत इमाम मखदूम मो. ताज फकीह कुरैशी हाशमी ने बनवाई | यहाँ पे महान सूफी शेख याहया (1291 AD) मनेरी की दरगाह है जिसे बड़ी दरगाह कहा जाता है |
यहाँ इस दरगाह के बाहर एक मैदान में मुझे ठीक वैसी ही गज सिंह मूर्ती दिखी जैसी की जौनपुर में शाही पुल पे स्थित है | दोनों में कोई अंतर नहीं था केवल इतना ही अंतर था की इस सिंह का चेहरा थोडा अधिक डरवाना था और यह मशहूर भी है की जौनपुर के सिंह का चेहरा बड़ा डरवाना था और आते जाते घोड़े उसे देख के भड़क जाते तो अंग्रेजों ने इसे बदल दिया था |
मैंने जब मनेर के इतिहास पे नज़र डाली तो यहाँ भी बौध स्थल होने के सुबूत मिले और राजा कन्नौज गोविन्द चन्द्र और राजा जयचन्द्र का नाम मिला | आप कह सकते हैं की "मनेर " और जौनपुर के इतिहास में बहुत समानताएं है और वहाँ के लोगों का रहन सहन भी मिलता जुलता है | बौध और राजा कन्नौज ने यहाँ मठ, मंदिर और किले बनवाय थे जैसा की जौनपुर में भी किया गया था | शायद यह गज सिंह मूर्ती उसी में से किसी मुख्य द्वार पे लगी रही हो |
मनेर के लोगों से जब इस गज सिंह मूर्ती की जानकारी मांगी तो उन्होंने कहा की इसका नाम " शार्दुल ' है और कुछ लोगों ने इसे " सिंह सादुल " बताया लेकिन इसके इतिहास से अनजान दिखे |
यहाँ इस दरगाह के बाहर एक मैदान में मुझे ठीक वैसी ही गज सिंह मूर्ती दिखी जैसी की जौनपुर में शाही पुल पे स्थित है | दोनों में कोई अंतर नहीं था केवल इतना ही अंतर था की इस सिंह का चेहरा थोडा अधिक डरवाना था और यह मशहूर भी है की जौनपुर के सिंह का चेहरा बड़ा डरवाना था और आते जाते घोड़े उसे देख के भड़क जाते तो अंग्रेजों ने इसे बदल दिया था |
मैंने जब मनेर के इतिहास पे नज़र डाली तो यहाँ भी बौध स्थल होने के सुबूत मिले और राजा कन्नौज गोविन्द चन्द्र और राजा जयचन्द्र का नाम मिला | आप कह सकते हैं की "मनेर " और जौनपुर के इतिहास में बहुत समानताएं है और वहाँ के लोगों का रहन सहन भी मिलता जुलता है | बौध और राजा कन्नौज ने यहाँ मठ, मंदिर और किले बनवाय थे जैसा की जौनपुर में भी किया गया था | शायद यह गज सिंह मूर्ती उसी में से किसी मुख्य द्वार पे लगी रही हो |
मनेर के लोगों से जब इस गज सिंह मूर्ती की जानकारी मांगी तो उन्होंने कहा की इसका नाम " शार्दुल ' है और कुछ लोगों ने इसे " सिंह सादुल " बताया लेकिन इसके इतिहास से अनजान दिखे |
Shardul at Maner, Bihar |
इन सभी तथ्यों को ध्यान में रखते हुए ऐसा लगता है कि खजुराहो या कोनार्क मंदिर के गज सिंह की प्रष्टभूमि जौनपुर और मनेर में स्थित गज सिंह से थोड़ी अलग है इसलिए इनके बनाय जाने के समय में अंतर होगा जबकि इन सभी जगहों पे स्थित सिंह वही काल्पनिक जीव शार्दुल है जिसका इस्तेमाल राजपूत राजाओं ने अपने मंदिर के द्वार पे किया | इस बात की सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता की यह शार्दुल की कल्पना राजपूत राजाओं की नहीं बल्कि बौध समाज की दें है जिसका इस्तेमाल बाद के ग्यारहवीं शताब्दी में राजपूत राजाओं ने सबसे अधिक किया |
इन दोनों गज सिंह मूर्ती में यह कहा जा सकता है की इस मूर्ती में सिंह शार्दुल गर्व और शक्ति का प्रतिनिधित्व करता है और हाथी धन का प्रतिनिधित्व करता है | मेरा मानना है की यह जौनपुर , मनेर या खजुराहो की मूर्ती जिसमे शेर (शार्दुल) और हाथी या स्त्री आपसी प्रेम और दो सभ्यताओं के आपसी मिलन और प्रेम को दर्शाता है | आप यह भी कह सकते हैं की जौनपुर और मनेर के शार्दुल और हाथी की मूर्ती शक्ति और धन के मिलन से विजय के प्रतीक हैं क्यूँ की इन मूर्तियों में शार्दुल हाथी की हिफाज़त करता अधिक नज़र आता है |
इस काल्पनिक जीव जिसे जौनपुर में सिंह समझा या कहा जाता है के कई नाम है जैसे शार्दुल या व्याल और यदि जौनपुर में खुदाई करवाई जाय तो यह दोनों अवश्य मिलेंगे इस मुझे यक़ीन है और इसी के साथ जौनपुर के तुग़लक़ के पहले का इतिहास सामने आ जायगा |
आज इस बात की आवश्यकता है की इस गज सिंह या शार्दुल के पथ्थरों की जांच की जाय की ये किस युग का है तो जौनपुर उस इतिहास पे से पर्दा उठा सकता है जो आज किसी को याद भी नहीं है | प्राचीन जौनपुर के इतिहास में इसका नाम अयोध्यपुरम था ऐसे सवालों से पर्दा उठा सकता है और शायद ऐसी गज सिंह मूर्तियाँ और भी किले के खंडहरों से मिल जाएँ |
आज इस बात की आवश्यकता है की इस गज सिंह या शार्दुल के पथ्थरों की जांच की जाय की ये किस युग का है तो जौनपुर उस इतिहास पे से पर्दा उठा सकता है जो आज किसी को याद भी नहीं है | प्राचीन जौनपुर के इतिहास में इसका नाम अयोध्यपुरम था ऐसे सवालों से पर्दा उठा सकता है और शायद ऐसी गज सिंह मूर्तियाँ और भी किले के खंडहरों से मिल जाएँ |
लेखक एस एम् मासूम
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