बचपन से 15 अगस्त को आज़ादी दिवस मानते आये हैं | राष्ट्रगान गाना और आज़ादी के शहीदों को याद करना अधिकतर हिन्दुस्तानियों के जीवन का एक हिस्सा रहा है | बात यह सोंचने की है कि हिन्दुस्तान कितनी बार गुलाम हुआ और कब आज़ाद हुआ ? घबराएं मत हिन्दुस्तान के इतिहास की गहराई में नहीं जाऊंगा | हाँ यह अवश्य सोंचता हूँ की क्या मुगलों ने हिन्दुस्तान पे हमला करके इसे गुलाम बनाया था ? यदि हाँ तो क्या अंग्रेजों ने हिन्दुस्तान को आज़ाद करवाया मुगलों की ताक़त को कम करके ? ज़ाहिरी तौर में तो ऐसा ही दिखता है | लेकिन यह कैसे आज़ादी मिली हिन्दुस्तान को को कि आज़ाद करवाने वाले अंग्रेजों ने मुगलों से भी अधिक ज़ुल्म हिन्दुस्तानियों पे करना शुरू कर दिया | यह ज़ुल्म इतना बढ़ा की जो हिन्दुस्तानी मुगलों के समय में चुप था ,अंग्रेजों से बगावत पे उतर आया और इतने जोश के साथ उतरा कि अपने धन की अपने पतियों तक की क़ुरबानी दे डाली | यह आजादी की ऐसी जंग थी जिसमे हिन्दुस्तान के हिन्दू और मुसलमानों ने मिल के संघर्ष किया और कुर्बानियां दी | और यह संघर्ष इतना बढ़ा की अंग्रेजों को देश से भागना पड़ा लेकिन जाते जाते हिन्दुस्तान को बाँट गए और हमेशा के लिए भारत के दुश्मनों के हाथ में इंसानी दिलों में नफरत फैलाने का एक हथियार दे गए जिसका इस्तेमाल आज भी हिन्दुस्तान और पाकिस्तान दोनों जगह किया जा रहा है | मुगलों से आज़ादी का जश्न तो नयी गुलामी के कारण हिन्दुस्तान वासी नहीं मना सके लेकिन अंग्रेजों से आजादी तो हमने खुद ली थी और उसे मान्य भी ज़ोर शोर के साथ जाता है |
हर देशप्रेमी 15 अगस्त के दिन को शहीदों की दी हुई कुर्बानियों को याद करता है आजादी की ख़ुशी मनाता है और कुर्बानियों को याद करके दुखी भी होता है | मैं अक्सर सोंचता हुआ की हिन्दुस्तान को आज़ाद करवाने वाले शहीदों के घरवालों का हाल आज बदहाल क्यूँ है ?
जौनपुर के पत्रकार श्री राजेश श्रीवास्तव जी बताते हैं कि स्वतंत्रता की सुगंध है वो उन्हे युगों का प्रणाम बोलो। इसी आस्था और वि”वास के साथ जौनपुर के हजारों लोग धनियाॅमऊ पुल के पास स्थिति शहीद स्तंम्भ पर अपना श्रद्वासुमन अर्पित करते हैं। ये उन शहीदो का स्तंम्भ जिन्होने 16 अगस्त 1942 को अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ विगुल फूकते हुए बदलापुर थाने पर तिरंगा लहराने जा रहे थे। इसी बीच धनियॅामऊ पुल को तोड़ते समय अंग्रंेजी सेना से मुडभेड़ के दौरान भारत माँ के चार वीर सपूत शहीद हो गये और दर्जन भर से अधिक लोग जख्मी हो गये।
वाराणसी-लखनऊ हाईवे पर स्थिति यह पुल स्वतंत्रता आन्दोलन का प्रमुख गवाह हैं। 16 अगस्त 1942 को आजादी के दीवानो ने सर पर कफन बांधकर बदलापुर थाने पर तिरंगा लहराने के लिए जा रहे थे। अंग्रेजी फौजो को रोकने के लिए पहले भारत मां के वीर सपूतो ने इस पुल को तोड़ना शुरू कर दिया था , इसी बीच गोरो की फौजे वहां पहुंच गयी। आजादी के दीवाने विना कोई प्रवाह किये अपने अभियान में आगे बढ़ते गये। इसी बीच अग्रेजो ने धुवांधार फायरिंग शुरू कर दिया। इस गोलीबारी में टोली के लिडर जमींदार सिंह, रामनंद, रघुराई और राजदेव सिंह मौके पर ही शहीद हो गये और दर्जन भर से अधिक लोग घायल हो गये।
देश की आजादी में अपने प्राणो की आहूती देने वाले रामनंद और रघुराई के घर और गांव की हालात गुलामी ही जैसा बरकार हैं। शहीद के परिवार वाले दूसरे के खेतो में कड़ी मेहनत करके अपना पेट पाल रहे हैं। उधर विधायक और मंत्री ने शहीदों के नाम पर शहीदी स्तंम्भ और मैरेज हाल तो बनवा दिया है लेकिन विजली पानी और सड़क जैसी मूल भूत सुविधाओं से मरहूम ही रखा।
शहीदो की चिताओं पर लगेगे हर बरस मेले वतन पर मरने वालो का यही निशा बाकी होगा। इस नारे के साथ हम हर 15 अगस्त और 26 जनवरी को तिरंगा फहराकर आजाद होने का गर्व करते हैं क्या यह गर्व आज तक शहीद रमानंद और रघुराई के परिवार वाले महसूस कर पाते है यह किसी ने पता लगाने की जहमत नही उठाई हैं।
जौनपुर जिले के स्वतंत्रता आन्दोलन का इतिहास स्व0 पंडित सूर्यनाथ उपाध्याय की चर्चा किये वेगैर अधूरा है। अंतिम साँस तक समाज के विकास की सोच रखने वाले पंडित जी जनपद में काग्रेस के केद्र बिंदु रहे। वह अपने जुझारू तेवर , ओजपूर्ण भाषण एंव तेज - तर्रार नेतृत्व के लिए चर्चित रहे। उपाध्याय जी पुरे जीवन भर समाज के दबे कुचले , गरीबो की लड़ाई लड़ते रहे। वे इसी लिए गरीबो के मसीहा कहे जाते थे।
श्री उपाध्याय का जन्म 16 जनवरी 1918 दिन बुधवार को सिकरारा थाना क्षेत्र के देह्चुरी गाँव में हुआ था। श्री उपाध्यायमात्र 20 वर्ष की आयु में स्वतंत्रता के आन्दोलन में कूद गये थे। उन्होंने ने पहले भगत सिंह को अपने खून से पत्र लिखा कर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के सदस्य बने। 1938 में ट्रेनिगं लेकर व्यक्तिगत सत्याग्रह में भाग लिया और 18 मार्च 1941 को अग्रेजी हुकूमत ने गिरफ्तार कर लिए। 9 माह की कठोर कारावास भी इनके हौसला कम नही हुआ। इस जेल यात्रा में जौनपुर और चुनार जेल में रहते हुए जबर्दस्त क्रांतिकारी संगठन बनाया यही सेना सन 1942 के आन्दोलन में तख्त पलटने में मुख्य भूमिका निभाई थी। बरईपार - सिरसी के शिव मंदिर में जनपद के क्रांतकारियों की बैठक बन्दूको , रिवाल्वरो , पिस्तौलो एंव भाला गडासो की गगन भेदी टंकार के बीच हुई। जिसमे अपने नेतृत्व क्षमता तथा अदम्य शाहस के बलपर सूर्यनाथ जिले के कमांडर चुने गये। इस जत्थे में लगभग पांच सौ नवजवान 150 रिवाल्वरो , पिस्तौलो के साथ प्राणों को न्यवछावर करने के लिए निकल पड़े थे। इस जथे का आतंक इतना था कि अग्रेजी और दो - चार थाने मुडभेड करने से कतराते थे। नेदरसोल कमिशनर ने कई बार पकड़ने के लिए अभियान चलाया लेकिन असफलता ही हाथ लगी। इस जत्थे ने कई बड़े कांड किये। मछलीशहर तसील पर धावा बोला , सुजानगंज थाना लूटा, सिकरारा में राजा बनारस की छावनी को तहसनहस किया साथ ही कई गोदाम और डाकखाना भी लूटा कर अग्रेजी हुकूमत के नाक में दम कर दिया था। अग्रेजी शासको ने सूर्यनाथ और उनके साथियों को गोली से उड़ाने का फरमान जारी कर दिया साथ में दस हजार रूपये इनाम भी घोषित किया गया। 16 अक्टूबर 1942 को कुल्हनामऊ डाकखाना लूटने के बाद कुछ देश द्रोहियों कारण श्री उपाध्याय उनके साथी बैजनाथ सिंह , दुखरन मौर्य , उदरेज सिंह , शिवब्रत सिंह और दयाशंकर के साथ गिरफ्तार हुए। इन लोगो घर अग्रेजो ने फूंक दिया। सूर्यनाथ को 30 दिसम्बर 1942 को 7 वर्ष की कठोर सजा सुनाई गई और 100 रूपये अर्थ दण्ड भी लगाया गया। इसके बाद मडियाहूँ के एक केस में 9 जनवरी 1943 को दो साल की सजा हुई। कुल मिलकर 24 वर्ष की कठोर कारावास श्री उपाध्याय जी को हुआ था। सजा काटने के लिए फरवरी 1943 को बनारस सेंट्रल जेल भेजे गये। इस जेल में 15 दिनों तक अमरण अनशन किया और 6 अप्रैल 1943 को हरदोई रेलवे स्टेशन पर भारत माँ का नारा लगाने के कारण पुलिस से तीखी नोकझोक हुआ गाली देने पर उपाध्याय जी ने एसपी जेटली का सर फोड़ दिया। जिसके कारण 38 डी आई आर का मुकदमा चला और बरेली जेल से वापस हरदोई लाये गये। इस जेल में हथकड़ी और बेडी लगने के बावजूद जेल के सिखचो को काटकर भागे किन्तु अंतिम दीवाल पर पकडे गये और इतना पिटे गये कि उनका शरीर मांस का टुकड़ा बनकर रह गया। जेल में बंद साथियों ने उन्हें मरा समझकर जेलों शोक सभाए हुई। लेकिन 12 दिन बाद उन्हें होश आ गया था।
साभार श्री राजेश श्रीवास्तव
हर देशप्रेमी 15 अगस्त के दिन को शहीदों की दी हुई कुर्बानियों को याद करता है आजादी की ख़ुशी मनाता है और कुर्बानियों को याद करके दुखी भी होता है | मैं अक्सर सोंचता हुआ की हिन्दुस्तान को आज़ाद करवाने वाले शहीदों के घरवालों का हाल आज बदहाल क्यूँ है ?
वाराणसी-लखनऊ हाईवे पर स्थिति यह पुल स्वतंत्रता आन्दोलन का प्रमुख गवाह हैं। 16 अगस्त 1942 को आजादी के दीवानो ने सर पर कफन बांधकर बदलापुर थाने पर तिरंगा लहराने के लिए जा रहे थे। अंग्रेजी फौजो को रोकने के लिए पहले भारत मां के वीर सपूतो ने इस पुल को तोड़ना शुरू कर दिया था , इसी बीच गोरो की फौजे वहां पहुंच गयी। आजादी के दीवाने विना कोई प्रवाह किये अपने अभियान में आगे बढ़ते गये। इसी बीच अग्रेजो ने धुवांधार फायरिंग शुरू कर दिया। इस गोलीबारी में टोली के लिडर जमींदार सिंह, रामनंद, रघुराई और राजदेव सिंह मौके पर ही शहीद हो गये और दर्जन भर से अधिक लोग घायल हो गये।
देश की आजादी में अपने प्राणो की आहूती देने वाले रामनंद और रघुराई के घर और गांव की हालात गुलामी ही जैसा बरकार हैं। शहीद के परिवार वाले दूसरे के खेतो में कड़ी मेहनत करके अपना पेट पाल रहे हैं। उधर विधायक और मंत्री ने शहीदों के नाम पर शहीदी स्तंम्भ और मैरेज हाल तो बनवा दिया है लेकिन विजली पानी और सड़क जैसी मूल भूत सुविधाओं से मरहूम ही रखा।
शहीदो की चिताओं पर लगेगे हर बरस मेले वतन पर मरने वालो का यही निशा बाकी होगा। इस नारे के साथ हम हर 15 अगस्त और 26 जनवरी को तिरंगा फहराकर आजाद होने का गर्व करते हैं क्या यह गर्व आज तक शहीद रमानंद और रघुराई के परिवार वाले महसूस कर पाते है यह किसी ने पता लगाने की जहमत नही उठाई हैं।
जौनपुर जिले के स्वतंत्रता आन्दोलन का इतिहास स्व0 पंडित सूर्यनाथ उपाध्याय की चर्चा किये वेगैर अधूरा है। अंतिम साँस तक समाज के विकास की सोच रखने वाले पंडित जी जनपद में काग्रेस के केद्र बिंदु रहे। वह अपने जुझारू तेवर , ओजपूर्ण भाषण एंव तेज - तर्रार नेतृत्व के लिए चर्चित रहे। उपाध्याय जी पुरे जीवन भर समाज के दबे कुचले , गरीबो की लड़ाई लड़ते रहे। वे इसी लिए गरीबो के मसीहा कहे जाते थे।
श्री उपाध्याय का जन्म 16 जनवरी 1918 दिन बुधवार को सिकरारा थाना क्षेत्र के देह्चुरी गाँव में हुआ था। श्री उपाध्यायमात्र 20 वर्ष की आयु में स्वतंत्रता के आन्दोलन में कूद गये थे। उन्होंने ने पहले भगत सिंह को अपने खून से पत्र लिखा कर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के सदस्य बने। 1938 में ट्रेनिगं लेकर व्यक्तिगत सत्याग्रह में भाग लिया और 18 मार्च 1941 को अग्रेजी हुकूमत ने गिरफ्तार कर लिए। 9 माह की कठोर कारावास भी इनके हौसला कम नही हुआ। इस जेल यात्रा में जौनपुर और चुनार जेल में रहते हुए जबर्दस्त क्रांतिकारी संगठन बनाया यही सेना सन 1942 के आन्दोलन में तख्त पलटने में मुख्य भूमिका निभाई थी। बरईपार - सिरसी के शिव मंदिर में जनपद के क्रांतकारियों की बैठक बन्दूको , रिवाल्वरो , पिस्तौलो एंव भाला गडासो की गगन भेदी टंकार के बीच हुई। जिसमे अपने नेतृत्व क्षमता तथा अदम्य शाहस के बलपर सूर्यनाथ जिले के कमांडर चुने गये। इस जत्थे में लगभग पांच सौ नवजवान 150 रिवाल्वरो , पिस्तौलो के साथ प्राणों को न्यवछावर करने के लिए निकल पड़े थे। इस जथे का आतंक इतना था कि अग्रेजी और दो - चार थाने मुडभेड करने से कतराते थे। नेदरसोल कमिशनर ने कई बार पकड़ने के लिए अभियान चलाया लेकिन असफलता ही हाथ लगी। इस जत्थे ने कई बड़े कांड किये। मछलीशहर तसील पर धावा बोला , सुजानगंज थाना लूटा, सिकरारा में राजा बनारस की छावनी को तहसनहस किया साथ ही कई गोदाम और डाकखाना भी लूटा कर अग्रेजी हुकूमत के नाक में दम कर दिया था। अग्रेजी शासको ने सूर्यनाथ और उनके साथियों को गोली से उड़ाने का फरमान जारी कर दिया साथ में दस हजार रूपये इनाम भी घोषित किया गया। 16 अक्टूबर 1942 को कुल्हनामऊ डाकखाना लूटने के बाद कुछ देश द्रोहियों कारण श्री उपाध्याय उनके साथी बैजनाथ सिंह , दुखरन मौर्य , उदरेज सिंह , शिवब्रत सिंह और दयाशंकर के साथ गिरफ्तार हुए। इन लोगो घर अग्रेजो ने फूंक दिया। सूर्यनाथ को 30 दिसम्बर 1942 को 7 वर्ष की कठोर सजा सुनाई गई और 100 रूपये अर्थ दण्ड भी लगाया गया। इसके बाद मडियाहूँ के एक केस में 9 जनवरी 1943 को दो साल की सजा हुई। कुल मिलकर 24 वर्ष की कठोर कारावास श्री उपाध्याय जी को हुआ था। सजा काटने के लिए फरवरी 1943 को बनारस सेंट्रल जेल भेजे गये। इस जेल में 15 दिनों तक अमरण अनशन किया और 6 अप्रैल 1943 को हरदोई रेलवे स्टेशन पर भारत माँ का नारा लगाने के कारण पुलिस से तीखी नोकझोक हुआ गाली देने पर उपाध्याय जी ने एसपी जेटली का सर फोड़ दिया। जिसके कारण 38 डी आई आर का मुकदमा चला और बरेली जेल से वापस हरदोई लाये गये। इस जेल में हथकड़ी और बेडी लगने के बावजूद जेल के सिखचो को काटकर भागे किन्तु अंतिम दीवाल पर पकडे गये और इतना पिटे गये कि उनका शरीर मांस का टुकड़ा बनकर रह गया। जेल में बंद साथियों ने उन्हें मरा समझकर जेलों शोक सभाए हुई। लेकिन 12 दिन बाद उन्हें होश आ गया था।
साभार श्री राजेश श्रीवास्तव
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