मा पलायनम से साभार-- गतांक से आगे....
21 सितम्बर 1995 को देव प्रतिमाओं ने अपने भक्तजनों के हाथों दुग्धपान किया , पूरे देश की तत्कालीन मीडिया ने उसे खूब प्रचारित किया। कन्याकुमारी से काश्मीर तक केवल यही खबर तैर रही थी। देश में हाई एलर्ट की स्थिति थी,तब राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार परिषद, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग,भारत सरकार, के वैज्ञानिक दल ने जिसमें डॉ मनोज पटैरिया भी शामिल थे, इस चमत्कार के सच को जनता के सामने रखा था। वैज्ञानिक दल का मानना था कि वास्तव में प्रत्येक द्रव का अपना पृष्ठ तनाव होता है,जो कि द्रव के भीतर अणुओं के आपसी आकर्षण बल पर निर्भर करता है और इसका आकर्षण बल उस ओर भी होता है, जिस पदार्थ के सम्पर्क में आता है। देव प्रतिमाओं के दूध पीने में भी ऐसा ही हुआ है। जैसे ही दूध संगमरमर पर सीमेंट या अन्य चीजों से बनी मूर्तियों के सम्पर्क में आया वह तुरन्त मूर्तियों के सतह पर विसरित हो गया,जिससे श्रद्धालुओं को लगता है कि चम्मच से मूर्ति ने दूध खींच लिया है जबकि हकीकत में दूध की पतली सी धार नीचे से निकलती रहती है जो कि लोग विश्वास के कारण देख नहीं पाते। जब दूध में रंग,रोली मिलाकर देखा जाय तो रंगीन धार स्पष्ट रूप से दिखाई देगी। इस में कोई वास्तविकता नहीं है यह वैज्ञानिक नियमों के अन्तर्गत सामान्य प्रक्रिया है जिसे अज्ञानता के चलते लोग चमत्कार का नाम दे रहे हैं।इसमें सबसे दःखद पहलू यह है कि इस बात को हम अभी भी भारतीय जनता तक नहीं पहुंचा पाये हैं। आश्चर्य है कि अभी भी हमारी भोली-भाली जनता अज्ञानता के मोहपाश में जकड़ी है। वह अपनी कुंभकर्णी निद्रा का त्याग ही नहीं कर पा रही है या फिर हम वास्तव में अपने वैज्ञानिक संदेशों एवं उपलब्धियों को उन तक पहुंचा नहीं पा रहे हैं।
इसके साथ ही एक और चमत्कार ने तो कुछ वर्ष पूर्व देश को और भी शर्मसार किया था। पेयजल का मुद्दा जन स्वास्थ से जुड़ा है। मुम्बई म्युनिसपल कारपोरेशन एवं अन्य सरकारी संगठनों द्वारा की गयी घोषणा के बाद कि माहिम के तट पर तथाकथित मीठा जल स्वास्थ के लिए हानिकारक है एवं उसे पीने से तबियत खराब हो सकती है,लेकिन लोग थे कि मानते ही नहीं थे, पिये ही जा रहे थे। निश्चित रूप से यह चमत्कार नहीं है वैज्ञानिकों ने इसकी पुष्टि कर दी कि यह बारिश का पानी हैं। संचार माध्यमों ने इसको अपनें तरीके से खूब प्रसारित भी किया . ऐसी अज्ञानता से देश अँधेरे में ही जायेगा. सवाल यह है कि हम दुनिया में अगली पंक्ति के नायक इसी अज्ञानता के बदौलत होगें। हमारी शिक्षा प्रणाली या फिर नेतृत्व देने वाले लोग , कौन इसका जवाब दे। महामहिम पूर्व राष्ट्रपति जी के 2020 तक महाशक्ति बनने के ख्वाब को हम क्या ऐसे ही पूरा करेंगे? जब तक विशाल आबादी वाले इस महान देश के जन-जन में वैज्ञानिक चेतना का समावेश नहीं होगा तब तक महाशक्ति बनने का दावा करना कितना बेमानी लगता है और जब हम 64 वर्ष बीतने के बाद भी तथाकथित जागरूकता और प्रगति की आकडे़बाजी में फॅसे है,भौतिक धरातल पर जागरूकता की यह हालत है तो कैसे भविष्य में त्वरित सुधार की उम्मीद कर सकते हैं। आजादी के वर्षो को गिनने से तो रिटायर होने का समय आता दिखता है,ज्ञान सीखने का नहीं। भविष्य की आहट बहुत भयावह है। यदि हमें दुनिया के देशों की कतार में आगे बैठना है तो ज्ञान की शक्ति चाहिए,वैज्ञानिक जागरूकता चाहिए न कि अन्ध विश्वास । दुष्यंत कुमार जी की ये पंक्तिया सम्भवतःसटीक हैं कि-
कहाँ तो तय था चिरांगा हरेक घर के लिए,
कहाँ चिराग मयस्सर नहीं म के लिए।।
समाप्त.
21 सितम्बर 1995 को देव प्रतिमाओं ने अपने भक्तजनों के हाथों दुग्धपान किया , पूरे देश की तत्कालीन मीडिया ने उसे खूब प्रचारित किया। कन्याकुमारी से काश्मीर तक केवल यही खबर तैर रही थी। देश में हाई एलर्ट की स्थिति थी,तब राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार परिषद, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग,भारत सरकार, के वैज्ञानिक दल ने जिसमें डॉ मनोज पटैरिया भी शामिल थे, इस चमत्कार के सच को जनता के सामने रखा था। वैज्ञानिक दल का मानना था कि वास्तव में प्रत्येक द्रव का अपना पृष्ठ तनाव होता है,जो कि द्रव के भीतर अणुओं के आपसी आकर्षण बल पर निर्भर करता है और इसका आकर्षण बल उस ओर भी होता है, जिस पदार्थ के सम्पर्क में आता है। देव प्रतिमाओं के दूध पीने में भी ऐसा ही हुआ है। जैसे ही दूध संगमरमर पर सीमेंट या अन्य चीजों से बनी मूर्तियों के सम्पर्क में आया वह तुरन्त मूर्तियों के सतह पर विसरित हो गया,जिससे श्रद्धालुओं को लगता है कि चम्मच से मूर्ति ने दूध खींच लिया है जबकि हकीकत में दूध की पतली सी धार नीचे से निकलती रहती है जो कि लोग विश्वास के कारण देख नहीं पाते। जब दूध में रंग,रोली मिलाकर देखा जाय तो रंगीन धार स्पष्ट रूप से दिखाई देगी। इस में कोई वास्तविकता नहीं है यह वैज्ञानिक नियमों के अन्तर्गत सामान्य प्रक्रिया है जिसे अज्ञानता के चलते लोग चमत्कार का नाम दे रहे हैं।इसमें सबसे दःखद पहलू यह है कि इस बात को हम अभी भी भारतीय जनता तक नहीं पहुंचा पाये हैं। आश्चर्य है कि अभी भी हमारी भोली-भाली जनता अज्ञानता के मोहपाश में जकड़ी है। वह अपनी कुंभकर्णी निद्रा का त्याग ही नहीं कर पा रही है या फिर हम वास्तव में अपने वैज्ञानिक संदेशों एवं उपलब्धियों को उन तक पहुंचा नहीं पा रहे हैं।
इसके साथ ही एक और चमत्कार ने तो कुछ वर्ष पूर्व देश को और भी शर्मसार किया था। पेयजल का मुद्दा जन स्वास्थ से जुड़ा है। मुम्बई म्युनिसपल कारपोरेशन एवं अन्य सरकारी संगठनों द्वारा की गयी घोषणा के बाद कि माहिम के तट पर तथाकथित मीठा जल स्वास्थ के लिए हानिकारक है एवं उसे पीने से तबियत खराब हो सकती है,लेकिन लोग थे कि मानते ही नहीं थे, पिये ही जा रहे थे। निश्चित रूप से यह चमत्कार नहीं है वैज्ञानिकों ने इसकी पुष्टि कर दी कि यह बारिश का पानी हैं। संचार माध्यमों ने इसको अपनें तरीके से खूब प्रसारित भी किया . ऐसी अज्ञानता से देश अँधेरे में ही जायेगा. सवाल यह है कि हम दुनिया में अगली पंक्ति के नायक इसी अज्ञानता के बदौलत होगें। हमारी शिक्षा प्रणाली या फिर नेतृत्व देने वाले लोग , कौन इसका जवाब दे। महामहिम पूर्व राष्ट्रपति जी के 2020 तक महाशक्ति बनने के ख्वाब को हम क्या ऐसे ही पूरा करेंगे? जब तक विशाल आबादी वाले इस महान देश के जन-जन में वैज्ञानिक चेतना का समावेश नहीं होगा तब तक महाशक्ति बनने का दावा करना कितना बेमानी लगता है और जब हम 64 वर्ष बीतने के बाद भी तथाकथित जागरूकता और प्रगति की आकडे़बाजी में फॅसे है,भौतिक धरातल पर जागरूकता की यह हालत है तो कैसे भविष्य में त्वरित सुधार की उम्मीद कर सकते हैं। आजादी के वर्षो को गिनने से तो रिटायर होने का समय आता दिखता है,ज्ञान सीखने का नहीं। भविष्य की आहट बहुत भयावह है। यदि हमें दुनिया के देशों की कतार में आगे बैठना है तो ज्ञान की शक्ति चाहिए,वैज्ञानिक जागरूकता चाहिए न कि अन्ध विश्वास । दुष्यंत कुमार जी की ये पंक्तिया सम्भवतःसटीक हैं कि-
कहाँ तो तय था चिरांगा हरेक घर के लिए,
कहाँ चिराग मयस्सर नहीं म के लिए।।
समाप्त.
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