यौन सम्बन्ध विषयक अपने ताजे फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने विवाहेत्तर सम्बन्धों को और भी प्रोत्साहित कर कामुक गिद्धों को खुला छोड़ दिया है। अब तो कामपिपासु बास अपनी सेक्रेटरी को और भी शोषित करेगा। कामगार महिलाएं प्रबल यौनिक आग्रहों को झेलेंगी।
कानून के दंडे से जो यौनेच्छा दबी दबाई रहती थी अब और उद्दाम खेलेगी। व्यभिचार का खुला खेल फरुख्खाबादी होगा। यौनिक शोषण तो नारी का ही बढ़ेगा।
मैंने भारतीय सोसाइटी के मद्दे नज़र उक्त प्रेक्षण रखे हैं।पश्चिमी देश जैसे अमेरिकन वैचारिक दृष्टि से बहुत परिपक्व हैं। खुले भी हैं। यौन कुंठायें भी बहुत कम हैं।मगर भारतीय परिदृश्य एकदम जुदा है।
यहां तो जिन युवा पतियों की पत्नियां सुन्दर हैं उनके हाथ के तोते उड़ गये हैं। इस कानूनी बंदिश के हटने के बड़े दूरगामी परिणाम निकलेंगे। यौन सम्बन्धों में दबावपूर्वक निरन्तर आग्रह (persuation) की बड़ी भूमिका होती है। मतलब कोर्टशिप डिस्पले । अब विवाहेतर सम्बन्ध जो आज भी समाज की नज़र में एक व्यभिचार ही है, पर पुरुष के अवरोध हठ गये हैं। और आज की जीवन की अनेक विडम्बनाओं में कार्यस्थल पर इस कानून से उत्साहित प्रबलतर होती यौनाकांक्षा के सामने महिलाओं की प्रतिकार क्षमता भी घटनी स्वाभाविक है।
घर परिवार की रोज रोज की किच किच, पति की उपेक्षा सहती कामकाजी महिला का प्रतिरोध निरन्तर के 'कोर्टशिप परशुयेसन' के सामने कब तक रह पायेगा। अब विवाहेतर संबंध और बढेंगें और नारी को और उन्मुक्तता प्रदान करेंगे और लम्पटों को प्रोत्साहन। माननीय न्यायालय संभवतः इसी आइडियल स्टेट को चाहता है। मगर यह फैसला वृहत्तर समाज को कभी भी स्वीकार नहीं होगा।
और ज्यादातर कामकाजी महिलाओं के पति भी और शंकालु होंगे। और शक का इलाज हकीम लुकमान के पास भी न था और न आज किसी के पास है। परिवार और टूटेंगे। तलाक बढ़ेंगे। अमेरिकन समाज की ओर भारतीय सर्वोच्च न्यायालय की यह एक बड़ी छलांग है।
व्यभिचार के दो चार मामले समाज में हो रहे थे अब तो व्यभिचार को सार्वजनिक कर दिया गया। कुछ नारीवादी और वामपंथी न जाने क्यों उल्लसित हैं। एक भूतपूर्व जस्टिस भी खुल कर समर्थन में आ गये हैं।शायद सबको अपने अतीत के कर्मों को भी औचित्य का जामा पहनाने का सुनहरा अवसर मिल गया है।इसलिये खुशी समाई नहीं जा पा रही है। एक आपराधिक ग्लानि बोध से भी निजात मिल गयी है।
परिवार और वैवाहिक संस्था पर न्यायिक सक्रियता का यह बड़ा प्रहार है। जीवविज्ञान का अध्येता होने के नाते मैं बार बार कहूंगा कि मानव शिशु के लम्बे शैशवकाल को देखकर दाम्पत्य जीवन में कोई खलल न होनें दें। हुजूरे आला को कहने दीजिये।ज्यादा इधर उधर मुंह ना मारिये। परिवार👪को हर हाल में बचाइये।बिचारे शिशुओं का क्या दोष? उन्हे तो मां बाप का असंदिग्ध साझा वात्सल्य चाहिये। और व्यभिचारी मां बाप यह गारंटी नहीं दे सकते।
इस कानून को परिवार हित समाज हित और देशहित में संसद द्वारा बदलने की जरूरत है।
आप क्या इस संभावित परिदृश्य से आशंकित नहीं हैं? इसमें इतना हुलसित और उल्लसित होने की कौन सी बात है?
Science Fiction Writer.
Expertise in Fisheries Science and Management.
Social Activist.A Bibliophile
विज्ञान संचारक और कथाकार
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जानिये डॉ पवन विजय के विचार
नोट : लेखक के विचारों के लिए हमारा जौनपुर टीम ज़िम्मेदार नहीं आप सीधे लेखक से संपर्क करें |
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