जो भारतीय संस्कृति की दुहाई दे रहे वह पहले अपने घर की संस्कृति को देखें समझें. ४९७ से पहले भी व्यभिचार था इसके बाद भी व्यभिचार रहेगा. गाँवों में लोग ४९७ नही जानते लेकिन परिवार सुचारू रूप से चल रहे हैं. पिता को गाली देना, माँ को घर से निकालना, बेटा बेटी में भेद, घर को कलह का केंद्र बना देना ये सब ४९७ से कम खतरनाक तो नही. परिवार के टूटने का कारण कोई दूसरी औरत या दूसरा आदमी नही बल्कि जमीन जायदाद का लालच और परिवार में भेदभाव, महत्वाकांक्षा होती है. खामखा इस पर हल्ला मचाने के अलावा बहुत से ऐसे काम हैं जिसे करने से परिवार की सुदृढ़ता बनी रहेगी. आदमी और औरत का रिश्ता इतना जटिल नही है जितना हल्ला मचाया जा रहा है. जो लोग ज्यादा हल्ला मचाते हैं अवसर मिलने पर चूकते नही. व्यक्ति अपनी मर्यादा खुद स्थापित करे तो वह कहीं बेहतर कि न्यायलय कोई सीमा बांधे, मैं यहाँ एक हद तक अराजक हूँ . मेरा मानना है कि कोर्ट और पुलिस का कम से कम प्रयोग जिस राज्य में हो वह उतना ही कल्याण कारी और नियोजित होगा. हमारे व्यवहार प्रतिमान में खोट है. जहाँ चाहें थूक दें, गन्दगी फैला दें , गाली गुफ्ता करने लगें कोर्ट कहाँ कहाँ निगरानी करेगा. स्व को देखिये न्यायलय की जरूरत नही रहेगी. और हाँ भारतीय संस्कृति के नाम पर तो इस निर्णय को कदापि न देखें नही तो लोक परम्परा में ऐसी चीजें प्रचलित हैं कि नैतिकता के सारे खोखले मापदंड कपूर की तरह उड़ जायेंगे.
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