कलांपुर गॉव तहसील शाहगंज ज़िला जौनपुर का भूला हुआ इतिहास : असद जाफ़र
जैसा की जौनपुर का इतिहास की जानकारी रखने वाले जानते हैं की इस शहर की तरक्की शार्की समय में बहुत हुयी थी और आस आप का इलाका या तो शार्की समय में वजूद में आया या कुछ तुग़लक के समय में आबाद हुआ | सूफियों का आगमन जौनपुर और आस पास के इलाकों में शार्की समय से ही शुरू हो गया था जो अधिकतर इरान से आये थे और तैमूर लंग के ज़ुल्म से बचते हुए शार्की राज्य में इन्होने पनाह ली | आज भी इस सूफियों की यादें जौनपुर से बिहार तक क़ब्रों और मजारों के रूप में मौजूद हैं |![]() |
| लेखक असद जाफर |
हमारे मित्र और कलांपुर निवासी जनाब असद जफ़र साहब ने मुझे कलांपुर का इतिहास भेजा जिसके लिए मैं दिल से उनका आभारी हूँ | आप भी जानिये कलांपुर का इतिहास असद जफ़र की ज़बानी |

उत्तर प्रदेश की राजधानी से २०० किलोमीटर की दुरी पर एक गांव जिसने हिंदुस्तान की आज़ादी में एक महत्पूर्ण योगदान किया तथा संविधान के लिखे जाने में भागीदारी सराहनीय है। यह मेरा गांव है उसका नाम कलानपुर है और वह ज़िला जौनपुर ब्लॉक - खेतासराय में स्थीत है। यह मुख्यता शिया मुस्लमान बहुल गांव है जहाँ सैकड़ो सालो से भैस/गाय नही काटी गयी, कोई शराब की दुकान नही है साक्षरता १००% है। मुस्लिम परिवार मुहर्रम के शुरुआती १० दिनों में दुनिया के तमाम मुल्को से एकत्रित होते है फिर अपनी नौकरी/कारोबार पर वापस हो जाते है और ११ महीने २० दिन उनके घरो और खेतो की देखभाल इस गांव में रहने वाले दलित और दुसरी गैर-मुस्लिम लोगो के ज़िम्मे होती है। गज़ब का भाईचारा बेमिसाल मुहब्बत जो आज के नफरत भरे राजनीतिक परिवेश में अपवाद लगता है।

सूफी कलाँ पर्सिया के एक छोटे से गॉव के रहने वाले थे और शायद बानी-उम्मिया जो की शिया विरोधी था उससे अपनी जान को खतरा देख वो भारत आ गये थे। उस समय कलाँपुर जंगल हुआ करता था और राजभर के प्रेम ने उन्हें अपनी तमाम उम्र यही रहने के लिये विवश किया। शाह सयेद कलाँ के वंशज भी कलाँपुर में ही बस गये। कहते है उनके बेटे सयेद ताहा और सयेद मीर उम्मे जरी मशहुर सुलेखक थे जो कलाँपुर में आबाद हो गये। सयेद मीर जरी के पाँच बेटे थे १. मीर मोहम्मद अली २. मीर तसद्दुक अली ३. मीर अली नक़ी ४. मीर तुफैल अली ५. मीर अली हुसैन। इन पाचो बेटो की नस्ल कलाँपुर की शिया आबादी का मुख्य कारण रही और कलाँपुर की गैर-मुस्लिम आबादी में अक्सरियत दलित और भर (एक जाति जो कृषि प्रधान है) की रही। विकास और समय के साथ अन्य जातीय दूसरे गॉव से आकर यहाँ बस्ती गयी जैसे तेली, लुहार, कुम्हार और फूलो का काम करने वाले। इस तरह गांव अपने आप में स्व-निर्भर होता गया, यही सामाजिक संरचना आज भी देखी जा सकती है। कलाँपुर के मुख्य विशेषता यह रही की मिया लोगो ने अन्य जातियों का सदा की सम्मान किया और इतिहास में किसी भी प्रकार के उत्पीड़ण का कोई उद्धरण समान्यता नही मिलता। मोहर्रम यहाँ बड़ी श्रदा के साथ मनाया जाता है जो बिना गैर-मुस्लमान आबादी के सहयोग के मुमकिन नही हो सकता गांव की गैर-मुस्लिम आबादी को ईमाम साहेब (ईमाम हुसैन) से काफी उम्मीदे रहती है वो उनकी सारी मुरादे पुरी करते है। शिया मुसलमानो की अनदेखी और व्यवहार से गैर-मुस्लमान आबादी मोहर्रम से कुछ वर्ष दुर रही मगर ईमाम हुसैन से दुरी उन्हें वापस आने के लिये प्रेरणास्रोत बनी और आज भी उनकी बड़ी संख्या ईमाम हुसैन की आखरी विदाई को ग़मगीन बनाने में महत्वपूर्ण योगदान प्रदान करती है।![]() |
| कलांपुर का मशहूर इमामबाड़ा |
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| बाबा साहब आंबेडकर |
लेखक असद जाफर
दुःख की बात यह है की आज जब इस लेख को फिर से प्रकाशित कर रहा हूँ तो असद जाफर हमारे बीच नहीं रहे | श्रद्धांजलि


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