जो लोग जौनपुर और आसपास के इलाक़े में आया जाया करते हैं उन्होंने यह अवश्य देखा होगा की यहाँ जगह जगह क़ब्रें और रौज़े बने हैं जिनपे हरी चादरें पडी रहती है या उनपे उर्स साल में एक बार लगता है या फिर ऐसी मजारें हैं जहाँ गाँव वाले मुरादें मांगने जाया करते हैं । इसके साथ साथ ऐसी हज़ारों क़ब्रें या मक़बरे बने हुए हैं जो बादशाहों के उनके परिवार के और फ़ौज के सिपहसालारों और अहम् ओहदे रखने वालों के हैं | यहां इस बार सिर्फ सूफी संतों की क़ब्र रौज़े और मक़बरे का ज़िक्र करूँगा |
हर इंसान एक बार ऐसे नज़ारे देख के यह सोंचने पे मजबूर एक बार अवश्य हो जाएगा की ये किसकी मज़ारे हैं जिनके इतने मुरीद आज भी हैं ? जब मैंने इसके बारे में शोध किया तो मुझे महसूस हुआ की ये मजारें और क़ब्रें तीन तरह के लोगों की है । सबसे पहले जो बड़ी मजारें मिलती है सय्यद संत थे जो शर्क़ी समय में जौनपुर में आ के बस गए थे । दुसरे वो सय्यद थे जो शाही घराने में उच्च पदो में थे और जंग में मारे गए । तीसरे वो सूफी या संत हैं जो जौनपुर में रह के ज्ञान अर्जित किया करते थे और दूर गाँव इत्यादि में बसे हुए थे ।
इन संतो और सूफियों की जौनपुर में आमद शर्क़ी काल में १४०१ इ० के आस पास शुरू हुयी तब तैमूर लंग ने दिल्ली पे आक्रमण किया और सब तरफ मारकाट शुरू हो गयी और दौर में अगर कहीं शान्ति थी तो वो केवल जौनपुर और शर्क़ी राज्य में थी । इब्राहिम शाह उस समय जौनपुर का बादशाह था और सभी धर्मो के लोगो को और ज्ञानी ,संतो को इज्जत दिया करता था ।
जब यह महान संत जिनकी तादात १४०० से अधिक बातायी जाती है जौनपुर मे बसे तो इनके मुरीद हिंदू और मुसलमान दोनो हो गये इसीकारण से आज भी उनकी मजारो पे दोनो धर्म के लोग जाते, चादर चढाते और उरस मे शरीक हुआ करते है ।
ये वही संत और ज्ञानी है जिनके कारण जौनपुर को शिराज ए हिंद कहा गया ।
लेकिन इन सबसे हट के ऐसी क़ब्रों की तादात भी बहुत है जो कौन लोग थे नहीं लेकिन गाँव वालों ने उनको अपनी मुरादें मांगने का ज़रिया बना लिया और उनके बारे में तरह तरह किवदंतियां मशहूर हो गयी जिनकी सत्यता प्रमाणित नहीं ।
शार्क़ी समय मे आये १४०० संतो मे से से ४-५ क़ब्रें तो हमारे ही पूर्वजो की हैं जो सय्यद भी थे ज्ञानी भी थे लेकिन हम में से कोई उन मज़ारों मांगने नहीं जाता हाँ रौशनी करने कभी कभी जाय करते हैं । उनपे उर्स आस पास के गाँव वाले लगाते हैं जहा वो दफन हैं और चांदरें भी वही लोग चढ़ाया करते हैं ।
बहुत मशहूर है कि इब्राहिम शाह के दौर में ईद और बकरईद पे नौ सौ चौरासी विद्वानो की पालकियां निकला करती थी ।
कुछ महान संतो के नाम इस प्रकार है ।
शेख वजीहुद्दीन अशरफ ,उस्मान शीराज़ी ,सदर जहा अजमल,क़ाज़ी नसीरुद्दीन अजमल, क़ाज़ी शहाबुद्दीन मलिकुल उलेमा क़ाज़ी निजामुद्दीन कैक्लानी, मालिक अमदुल मुल्क बख्त्यार खान, दबीरुल मुल्क कैटलॉग खान, मालिक शुजाउल मुल्क मखदू ईसा ताज,शेख शम्सुल हक़ ,मखदूम शेख रुक्नुद्दीन, सुहरवर्दी, शेख जहांगीर, शेख हसन ताहिर,मखदूम सैय्यद अली दाऊद कुतुबुद्दीन, मखदूम शेख मुहम्मद इस्माइल ,शाह अजमेरी,ख्वाजा क़ुतुबुद्दीन ,ख्वाजा शेख अबु सईद चिस्ती ,मखदूम सैयद सदरुद्दीन, शाह सैय्यद ज़ाहिदी, मखदूम बंदगी शाह,साबित मदारी।, शेख सुलतान महमूद इत्यादि
सबको तो पेश करना यहा आसान नही लेकिन कुछ को पेश कर रहा हू ।
ये हमारे ७०० वर्ष पुराने पूर्वज सय्यद अली दाऊद की क़ब्र है जो सदल्ली पूर इलाक़े में है और आस पास हिन्दू घर बसे है जो इन्हे सय्यद बाबा कहते हैं और चादरें चंढाते है ।लाल दरवाज़ा १४४७ लाला दरवाज़ा मस्जिद का निर्माण १४४७ में सुलतान महमूद शार्की के दौर में उनकी पत्नी बीबी राजे ने करवाया और उसे उस दौर के एक सैय्यद आलिम जनाब सयेद अली दाउद कुतुब्बुद्दीन को समर्पित कर दिया |
लाल दरवाज़ा का निर्माण बीबीराजे ने एक सैयद संत की शान में करवाया|
सय्यिद बरे हजरत मुहम्मद (स.अ.व) की ३२ वीन नस्ल थे और ७७० हिजरी १३६८ इस्स्वी में वो दिल्ली से जाफराबाद के करीन एक इलाके सरसौन्दा (अब मसौन्दा) में आकर बस गए और एक तालाब के किनारे छप्पर डाल के रहने लगे | सय्यिद बरे ने वहाँ के गांव वालों को गुमराही से बचाया और एक ऐसे संत जो हर अमावस्या को गाँव के लोगों से सोना चांदी ,धन दौलत की मांग करता था उसके ज़ुल्म से बचाया |
जानिये कजगांव तेढ़वान की दो भाइयों की टेढ़ी कब्र का रहस्य
पुराने जौनपुर के दरिया किनारे के कुछ इलाके शर्की लोगों की ख़ास पसंद रहे थे | पानदरीबा रोड पे आपको पुराने समय की बहुत सी इमारतें मिलेंगी जिनमे से बहुत से इमामबारगाह जो इमाम हुसैन (अ.स) की याद में बनाए गए थे ,मिलेंगे | यहाँ पान दरीबा रोड पे मकबरा सयेद काजिम अली से सटी हुई एक मस्जिद मौजूद है जिसे खालिस मुखलिस या चार ऊँगली मस्जिद कहते हैं | शर्की सुलतान इब्राहिम शाह के दो सरदार इस इलाके में आया जाया करते थे कि एक दिन उनकी मुलाक़ात जनाब सैयेद उस्मान शिराज़ी साहब से हुई जो की एक सूफी थे और इरान से जौनपुर तैमूर के आक्रमण से बचते दिल्ली होते हुए आये थे और यहाँ की सुन्दरता देख यहीं बस गए | सयेद उस्मान शिराज़ी साहब से यह दोनों सरदार खालिस मुखलिस इतना खुश हुए की उनकी शान में इस मस्जिद की तामील करवायी | जनाब उस्मान शिराज़ी की कब्र वहीं चार ऊँगली मस्जिद के सामने बनी हुई है जिसके बारे में कम ही लोग जानते हैं |जनाब उस्मान शिराज़ी के घराने वाले आज भी पानदरीबा इलाके में रहते हैं जिनके घर को अब मोहल्ले वाले “मीर घर “ के नाम से जानते हैं |
खालिस मुखलिस मस्जिद जिसे चार ऊँगली मस्जिद भी कहते हैं |
हर इंसान एक बार ऐसे नज़ारे देख के यह सोंचने पे मजबूर एक बार अवश्य हो जाएगा की ये किसकी मज़ारे हैं जिनके इतने मुरीद आज भी हैं ? जब मैंने इसके बारे में शोध किया तो मुझे महसूस हुआ की ये मजारें और क़ब्रें तीन तरह के लोगों की है । सबसे पहले जो बड़ी मजारें मिलती है सय्यद संत थे जो शर्क़ी समय में जौनपुर में आ के बस गए थे । दुसरे वो सय्यद थे जो शाही घराने में उच्च पदो में थे और जंग में मारे गए । तीसरे वो सूफी या संत हैं जो जौनपुर में रह के ज्ञान अर्जित किया करते थे और दूर गाँव इत्यादि में बसे हुए थे ।
इन संतो और सूफियों की जौनपुर में आमद शर्क़ी काल में १४०१ इ० के आस पास शुरू हुयी तब तैमूर लंग ने दिल्ली पे आक्रमण किया और सब तरफ मारकाट शुरू हो गयी और दौर में अगर कहीं शान्ति थी तो वो केवल जौनपुर और शर्क़ी राज्य में थी । इब्राहिम शाह उस समय जौनपुर का बादशाह था और सभी धर्मो के लोगो को और ज्ञानी ,संतो को इज्जत दिया करता था ।
जब यह महान संत जिनकी तादात १४०० से अधिक बातायी जाती है जौनपुर मे बसे तो इनके मुरीद हिंदू और मुसलमान दोनो हो गये इसीकारण से आज भी उनकी मजारो पे दोनो धर्म के लोग जाते, चादर चढाते और उरस मे शरीक हुआ करते है ।
ये वही संत और ज्ञानी है जिनके कारण जौनपुर को शिराज ए हिंद कहा गया ।
लेकिन इन सबसे हट के ऐसी क़ब्रों की तादात भी बहुत है जो कौन लोग थे नहीं लेकिन गाँव वालों ने उनको अपनी मुरादें मांगने का ज़रिया बना लिया और उनके बारे में तरह तरह किवदंतियां मशहूर हो गयी जिनकी सत्यता प्रमाणित नहीं ।
शार्क़ी समय मे आये १४०० संतो मे से से ४-५ क़ब्रें तो हमारे ही पूर्वजो की हैं जो सय्यद भी थे ज्ञानी भी थे लेकिन हम में से कोई उन मज़ारों मांगने नहीं जाता हाँ रौशनी करने कभी कभी जाय करते हैं । उनपे उर्स आस पास के गाँव वाले लगाते हैं जहा वो दफन हैं और चांदरें भी वही लोग चढ़ाया करते हैं ।
बहुत मशहूर है कि इब्राहिम शाह के दौर में ईद और बकरईद पे नौ सौ चौरासी विद्वानो की पालकियां निकला करती थी ।
कुछ महान संतो के नाम इस प्रकार है ।
शेख वजीहुद्दीन अशरफ ,उस्मान शीराज़ी ,सदर जहा अजमल,क़ाज़ी नसीरुद्दीन अजमल, क़ाज़ी शहाबुद्दीन मलिकुल उलेमा क़ाज़ी निजामुद्दीन कैक्लानी, मालिक अमदुल मुल्क बख्त्यार खान, दबीरुल मुल्क कैटलॉग खान, मालिक शुजाउल मुल्क मखदू ईसा ताज,शेख शम्सुल हक़ ,मखदूम शेख रुक्नुद्दीन, सुहरवर्दी, शेख जहांगीर, शेख हसन ताहिर,मखदूम सैय्यद अली दाऊद कुतुबुद्दीन, मखदूम शेख मुहम्मद इस्माइल ,शाह अजमेरी,ख्वाजा क़ुतुबुद्दीन ,ख्वाजा शेख अबु सईद चिस्ती ,मखदूम सैयद सदरुद्दीन, शाह सैय्यद ज़ाहिदी, मखदूम बंदगी शाह,साबित मदारी।, शेख सुलतान महमूद इत्यादि
सबको तो पेश करना यहा आसान नही लेकिन कुछ को पेश कर रहा हू ।
दानियाल खिजरी पुरानी बाजार जौनपुर |
ये हमारे ७०० वर्ष पुराने पूर्वज सय्यद अली दाऊद की क़ब्र है जो सदल्ली पूर इलाक़े में है और आस पास हिन्दू घर बसे है जो इन्हे सय्यद बाबा कहते हैं और चादरें चंढाते है ।लाल दरवाज़ा १४४७ लाला दरवाज़ा मस्जिद का निर्माण १४४७ में सुलतान महमूद शार्की के दौर में उनकी पत्नी बीबी राजे ने करवाया और उसे उस दौर के एक सैय्यद आलिम जनाब सयेद अली दाउद कुतुब्बुद्दीन को समर्पित कर दिया |
लाल दरवाज़ा का निर्माण बीबीराजे ने एक सैयद संत की शान में करवाया|
सय्येद बडे और उनके भाई |
जानिये कजगांव तेढ़वान की दो भाइयों की टेढ़ी कब्र का रहस्य
सय्येद उस्मान शिराजी |
खालिस मुखलिस मस्जिद जिसे चार ऊँगली मस्जिद भी कहते हैं |
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