आज महानगरों से अपने वतन लौटते लोगों को देख क़ैस ज़ंगीपुरी के कलाम याद आ गए "हज़ार सामा हो साथ लेकिन, सफ़र सफ़र है वतन वतन है|
लगभग चालीस वर्षों से यह देखा गया है की लोग रोज़गार की तलाश में महानगरों की तरफ रुख करते हैं और सुख सुविधाओं के मिलने के बाद वहीँ के होक रह जाते हैं | आज जब कोरोना जैसी महामारी फैली तो केवल मज़दूर ही नहीं व्यापारी भी मुंबई दिल्ली जैसे महानगरों को छोड़ते नज़र आ रहे हैं |
इन महानगरों से आने का कारण केवल यह नहीं की महानगरों में रोज़गार नहीं या रहने का ढिकाना नहीं बल्कि एक मौत का डर ,अकेलापन भी है | वतन से दूर कोरोना से मर गए तो कोई देखने वाला भी न होगा ,लावारिस की मौत मर जाएंगे यही एहसास उन्हें अपने वतन की तरफ खींच के लिए आ रहा है |
आने वाले बस जैसे भी रास्ता मिले अपने घर अपने वतन पहुँच जाओ अपनों के बीच जहां आपकी अपनी एक पहचान है एक समाज है शुभचंतक है अपने रिश्तेदार है | यह वही वतन के लोग है जिनकी सुख के दिनों में हमने क़द्र नहीं की थी लेकिन आज जब दुःख के दिन आय तो यही अपने याद आये और याद आया अपना वतन अपना घर जो महानगरों में सुख सुविधाओं के बावजूद हम नहीं बना सके | महानगरों में आप आलिशान घर तो बना लेते हैं ऐश और आराम की वस्तुएं भी जमा कर लेते हैं लेकिन अपना कोई समाज , कोई पहचान हकीकत में नहीं बना पाते क्यों की वहाँ आस पास के अधिकतर मुसाफिर ही हुआ करते हैं |
मुसाफिरत के बीच कहाँ वतन के अपनेपन का सुख मिलने वाला | बस यह महानगरों से आते लोगों को देखा तो याद आ गया क़ैस ज़ंगीपुरी का कलाम |
"हज़ार सामा हो साथ लेकिन, सफ़र सफ़र है वतन वतन है|
लेखक एस एम् मासूम
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