बीमारी के दिनो मे रोजे का हुकम क़ुरान मे |
रोज़ा कुछ सीमित दिनों में तुम पर अनिवार्य किया गया है परन्तु तुम में से जो कोई ही उन दिनों में बीमार या यात्रा में हो तो वो, उतने ही दिन, अन्य दिनों में रोज़ा रखे। और जिन लोगों के लिए रोज़ा रखना बहुत कठिन है जैसे वृद्ध लोग तो उन्हें एक दरिद्र को खाना खिलाकर उस रोज़े का बदला देना चाहिए और जो कोई अपनी मर्ज़ी से अधिक भलाई करे तो वो उसके लिए बेहतर है और बहरहाल यदि तुम समझो तो रोज़ा रखना तुम्हारे लिए बेहतर है। (2:184)
ईश्वरीय आदेश कठिन और जटिल नहीं हैं बल्कि हर मनुष्य अपनी शक्ति और क्षमता के अनुसार उनके पालन के लिए बाध्य है। रोज़ा रखना भी वर्ष के एक भाग अर्थात रमज़ान के महीने में अनिवार्य है। यदि कोई इस महीने में बीमार हो या यात्रा पर हो तो इसके स्थान पर किसी अन्य महीने में रोज़ा रखेगा, और यदि वो रोज़ा रख ही नहीं सकता हो चाहे रमज़ान हो या कोई अन्य महीना, तो उसे रोज़े की भूख सहन करने के स्थान पर भूखों को याद रखना चाहिए और हर रोज़े के बदले एक भूखे को खाना खिलाना चाहिए।
अलबत्ता स्पष्ट सी बात है कि रोज़ा न रखने के बदले में यदि कोई एक से अधिक लोगों को खाना खिलाए तो बेहतर है। इसी प्रकार यदि कोई रमज़ान में रोज़ा रखने के महत्व को समझ जाए तो वो कभी भी यह नहीं चाहेगा कि उसे रमज़ान में रोज़े न रखने पड़े।
रोजा क्या है यह भी जानिये |
अक्सर लोग यह कहते सुने जाते है कि रमजान के महीने मे गुनाह से बचो और यह सही भी है लेकिन उनकी बातो से ऐसा महसूस होता है कि जैसे रमजान खत्म होने के बाद उन्हे गुनाह करने की आजादी है |
हम यह भूल जाते है कि रमजान के रोजे हमारे लिये एक ट्रेनिंग है कि कैसे गुनाहो से बचा जाय और अपनी दुनियावी ख्वाहीशात पे कैसे क़ाबु पाया जाय | इस ट्रेनिंग का मक़्सद केवळ इतना है कि बाद रमजान इन्सान पुरा साल गुनाहो से बचते हुये गुजार सके |
अब जिसने इस एक महीने की ट्रेनिंग से कुछ नही सिखा और फिर से रमजान बाद गुनाह करणे लगा उसके रोजे तो बेकार ही गये ना |
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