यही वह आवादी है जो सदियों से संास्कृ तिक सरोकारों को सहेज कर पीढि़यों को सौंपती रही है वही संस्कारों का पोषण करती रही है. कितने शीतल भाव से वह अपने दर्द को अपने भीतर समेटे रखती है और कितनी सहजता से अपना दर्द छिपाये रखती है. कहने को वह आधी आबादी है लेकिन षेश आधी आबादी यानी पुरूशों की दु निया में उसकी जगह सिर्फ हाशिऐ पर दिखती है जबकि हमारी दु निया में दु ख दर्द से लेकर उत्सव-त्योहार तक हर अवसर पर उसकी उपस्थिति अपरिहार्य दिखती है जहां तक मेरे चित्रो ं के परिवेश का सवाल है, उनमें गांव इसलिए ज्यादा दिखाई देता है क्योंकि मैं खु द अपने आप को गांव के नजदीक महशूस करता हूॅं सच कहूॅ तो वही परिवेश मु झे सजीव, सटीक और वास्तविक लगता है. बनावटी और दिखावटी नहीं.
बार-बार लगता है की हम उस आधी आवादी के ऋणी हैं और मेरे चित्र उऋण होने की सफल-असफल कोशिश भर है. मेरे चित्रों की ‘नारीजाति की तरंगे’ नारीजाति की तरंगे’ शीर्ष क से इन दिनों एक चित्र प्र दर्श नी ललित कला अकादमी, रवीन्द्र भवन की कलादीर्घा 7 व 8 में 19 मार्च 2011 तक चलेगी, प्र दर्शनी प्रातः 11 बजे से सायं 7 बजे तक खु ली रहती है।
इस चित्र प्रदर्षनी में नारीजाति की तरंगे विषय को केन्द्र में रखकर चित्रों का चयन करके उन्हें प्र दर्शि त किया गया है जिनमें भारतीय नारीजाति की विविध आयामी स्वरूपों का दृश्याकंन किया गया है जिनमें-यह दिखाने का प्र यत्न किया गया है जिनमें जिस रूप में स्त्रियां जन्म से लेकर अब तक आकर्शि त, प्र भावित और उत्प्रेरित करती आयी हैं परंतु इनकी अपनी व्यथा है जो पढ़ना बहुत
ही सरल होता है. आप मान सकते हंै कि मैं पु रुषों को उतनी आसानी से नहीं पढ़ पाता हूं । मैने बेशक स्त्रियो ं को ही अपने चित्रों में प्र मु ख रुप से चित्रित किया है, क्योकि मु झे नारी सृ जन की सरलतम उपस्थिति के रूप मे ं परिलक्षित होती रहती है कहीं कहं के फुहड़पन को छोड़ दंे तो वे आनन्दित करती आयी हैं जिसे हम बचपन से पढ़ते सुनते और देखते आए हैं यदि हम यह कहें कि नारी या श्रृंगार दोनों में से किसी एक को देखा जाए तो दूसरा स्वतः उपस्थित होता है ऐसे में सृ जन की प्र क्रि या वाधित नहीं
होती वैसे तो प्र कृ ति, पशु , पक्षी, पहाड,़ पठार और पुरूश कभी कभार बन ही जाते हैं . परन्तु शीतलता या सुकोमल लता के बदले किसी को चित्रित किया जा सकता है तो वह सम्भवतः नारी ही है.
मेरी स्त्रियां सीता नहीं हैं कृ श्ण की राधा नहीं है और न ही रानी लक्ष्मीबाई हैं ये स्त्रियां खेतों खलिहानों में अपने पुरूषों के साथ काम करने वाली जिन्हें वह अपना राम और कृष्ण समझती हैं लक्ष्मीबाई जैसे नहीं लेकिन अपनी आत्म रक्षा कर लेती हैं वही मु झे प्र ेरणा प्र दान करती हैं।
मेहनतकश लोगों की कु छ खूबियां भी होती हैं जिन्हें समझना आसान नहीं है यदि उन्हें चित्रित करना है तो उनके मर्म को समझना होगा उनके लय उनके रस के मायने जानना होगा, उनकी सहजता उनका स्वाभिमान जो पूरी देह को गलाकर या सु खाकर बचाए हैं दो जून रूखा सूखा खाकर तन ढक कर यदि कु छ बचा तो धराउूं जोड़ी का सपना और सारी सम्पदा समेटे वो जैसे नजर
आते हैं वैसे होते नहीं उनका भी मन है मन की गुनगुनाहट है जो रचते है अद् भूद गीत संगीत व चित्र जिन्हें लोक कह कर उपेक्षित कर दिया जाता है उनका रचना संसार और उनकी संरचना मेरे चित्रों में कैसे उपस्थित रहे यही प्र यास दिन रात करता रहता हूं. उनके पहनावे उनके आभू षण जिन्हें वह अपने हृदय से लगाये रात दिन ढ़ोती है वह सम्भव है भद्र लोक पसन्द न करता हो और उन्हें गंवार समझता हो ले किन इस तरह के आभूषण से लदी फदी स्त्रियां उस समाज की भद्र मानी जाती है ये भद्र 2 महिलाएं भी मेरे चित्रों में सु संगत रूपों में उपस्थित रहती हैं मेरे ग्रमीण पृ ष्ठभूमि के होने मतलब यह नहीं है कि मैं और भी विषय का वरण अपनी सृजन प्र क्रि या के लिये नहीं कर सकता था पर मेरे ग्रमीण परिवेश ने मु झे पकड़े रखा ऐसा भी नहीं मैंने छोटी सी कोशिश भर की है उनको समझने की।
जिस स्त्री का मेरी कला से सरोकार है मूलतः वह रंगों के प्र ति सजग होती है उसे प्र ारम्भिक रंगो से गजब का लगाव है जिन्हे वह सदा वरण करती हैं,मूलतः ये मूल रंग इनके मूल में बसे होते े हैं यथा लाल पीला नीला बहु त आगे बढ़ी तो हरा बैगनी और नारंगी इसके सिवा उसके जीवन में जो रंग दिखाई देते हैं वह सीधे सीधे कुछ अलग ही संदेष सम्प्र ेषित करते हैं इन रंगो मे प्र मु ख हैं काला और सफेद जिनके अपने अलग ही पारम्परिक सन्दर्भ हैं .
इन रंगो के साथ उसका सहज जुडाव उसे प्रकृ ति और सत्य के समीप रखता है, उत्सव एवं पारम्परिक मान्यताएं भी इन चटख रंगो को अंगीकृ त करते हैं। आज के बदलते दौर में हमारी स्त्री उतनी प्र भावित नहीं हो रही है, लेकिन अगली पीढ़ी सम्भव है तमाम बदलते सरोकारों को स्वीकारे लेकिन निकट भविष्य में मूलतः जो खतरा दिखाई दे रहा है वह यह है कि इस आपाधापी मे ं उसकी अपनी पहचान ही न खो जाए.समकालीन दु निया के बदलते परिवेष के चलते आज बाजार वह सामग्र ी परोस रहा है जो उस क्षेत्र तो क्या उस पूरे परिवेश तक की वस्तु नही है इसका मतलब यह नही हु आ कि मैं विकास का विरोधी हूं लेकिन जिन प्रतीकों से मेरा रचना संसार समृ द्ध होता है उसमें आमूल चूल परिवर्त न एक अलग दु निया रचेगा जिससे सम्भवतः उस परिवेश विशेष की निजता न विलु प्त हो जाए।
सहज है वेशकीमती कलाकृ तियां समाज या आमजन के लिए सपना ही होंगी मेरा मानना इससे भिन्न है जिस कला को बाजार का संरक्षण मिल रहा है उससे कला उन्नत हो रही है या कलाकार सदियों से हमारी कलायें जगह जगह विखरी पड़ी हैं अब उनका मूल्यांकन हीे भी तो उससे तब के कलाकारों को क्या लाभ. आज भी जिस प्रकार से बाजार कला की करोड़ो रूपये कीमत लगा रहा है बेशक उससे कलाकारों को प्र ोत्साहन मिलता है वह उत्साहित होता है लेकिन यह खोज का विषय है कि यह करोड़ो रूपये किन कलाकारों को मिल रहे हैं. कम से कम समाज ने तो इसे सु न सु न कर कलाकार को सम्मान देना आरम्भ कर दिया है कल तक जहां कला को कु छ विशेष प्र कार के लोगों का काम माना जा रहा था आज हर तबके के लोग कलाकार बनने की चाहत रखते हैं इससे कलाकार की समाज में प्र तिष्ठा बढ़ी है…………डॉ लाल रत्नाकर
पिछले दिनों मेरे चित्रों की एक प्रदर्शनी ललित कला अकेडमी नई दिल्ली की गैलरी सात और आठ में आयोजित हुयी जिसमें अनेक गणमान्य अतिथि शरीक हुए जिन्होंने कुछ न कुछ मेरे चित्रों के विषय में लिखा है . उनके विचारों को यहाँ दे रहा हूँ -
"महिलाओं के एसे रूप जो आजकल नज़र नहीं आते, औरतें जो तरक्की की खान हैं, लेकिन अपने को व्यक्त नहीं कर पा रहीं; उनकी समग्र शक्ति और रचना का दर्शन करने के लिए डॉ.लाल रत्नाकर बधाई के पात्र हैं."श्री संतोष भारतीय - संपादक 'चौथी दुनिया'
"वर्तमान परिदृश्य में मिडिया अथवा कला जगत में भारत को देख पाना कुछ मुश्किल हो गया है ! डॉ.लाल रत्नाकर के चित्रों भारत, भारत का ग्रामीण जीवन, ग्रामीण परिवेश देखकर ख़ुशी हुयी . महिलाओं की छवियों को विविध रूपों , आयामों में देखना एक सुखद अनुभव रहा . बहुत २ बधाई एवं शुभकामनाएं .
डॉ.लक्ष्मी शंकर वाजपेयी - केंद्र निदेशक 'आकाशवाणी' नई दिल्ली
ग्राम्य परिवेश में औरतों की भाव-भंगिमाएं, जिसमें वहां की अनेक विसंगतियां उभरती हैं , देखना ! सचमुच सुखद है. कुछ नए चित्रों और रेखांकनों में जीवन जिस तरह अभिव्यक्त है, वह कम सराहनीय नहीं . बधाई ! शुभकामनायें!
श्री हीरा लाल नागर
डॉ.रत्नाकर की कला प्रदर्शनी लोक जीवन का रंगोत्सव है . लोक मुहावरे की पकड़ और आधुनिकता के प्रयोग ने इनके कलाकर्म को विशिष्ट बनाया है. बधाई !
श्री प्रदीप सौरभ पत्रकार एवं साहित्यकार
कल मैंने आपकी पेंटिंग देखीं थीं। अभिभूत हूँ उन्हें देख कर। अन्य चित्र प्रदर्शनियों के समान आपकी चित्र प्रदर्शनी फर्नीचर की दुकान समान नहीं थीं। लाल रत्नाकर जी के चित्रों से रू ब रू होते ही आप एक सम्मोहन में बंध जाते हैं मानो। पेंटिंग के पात्र-दृश्य-रंग-ब्रुश स्ट्रोक मानो सांस लेते हैं आपके साथ। उनके दर्द में आप उदास होने लगते हैं, उनके उल्लास में आप मानो नाचने के लिए आतुर होने लगते है। पेंटिंग्स के बीच में खड़े हो कर लगता है मानो किसी भूले-बिसरे मित्र ने अचानक आप को छू लिया हो और धीरे से मानों कान में कहा हो-" इतने दिन बाद आए ! मैं कब से प्रतीक्षा कर रहा था/रही थी " रंग मानो आपके अंतस में पैठ कर आपको सराबोर कर देते है। ब्रुश स्ट्रोक ऐसे कि लगे मानो अभी भी पात्रों को सहला रहे हों। जीवन की कठोरता, दारिद्र्य में भी पात्रों,दृश्यों,रंग, संयोजन की कोमलता बनी रहती है। मैं अभिभूत हूँ। धन्यवाद रत्नाकर जी.
श्री उमराव सिंह जाटव
हिन्दी लेखक हैं
सृजनामकता/कलात्मकता को देर-सवेर लोग पसंद करते हैं/सराहते भी हैं बशर्ते की सृजनकर्ता/कलाकार कला के प्रति दिली जुड़ाव रखता हो.ऐसा ही जुड़ाव डॉ.रत्नाकर को अपनी कला से है जिसे मूर्त रूप दिया है उनके चित्रों ने.उन्हें लाखों-लाख बधाइयाँ.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद इतने अच्छे विचारों के लिए .
जवाब देंहटाएंडॉ.लाल रत्नाकर