गंगा-जमुनी तहजीब को मजबूत करती रही यह सूफ़ियों की ईद ए गुलाबी |
इतिहास में वर्णन है कि शाहजहाँ के ज़माने में होली को सूफ़ियों की ईद ए गुलाबी
या आब-ए-पाशी (रंगों की बौछार) कहा जाता था।
इतिहासकारों के अनुसार मुगल शासकों के दौर में होली को ईद-ए-गुलाबी कहा जाता था। तब महलों में फूलों से रंग बनाते और पिचकारियों में गुलाब जल, केवड़े का इत्र डाला जाता था। बेगमें-नवाब और प्रजा साथ मिलकर होली खेलते थे। मुगल राजाओं के हर दौर में होली का जिक्र मिलता है। आईना-ए-अकबरी में अबुल फजल लिखते हैं कि बादशाह अकबर को होली खेलने का इतना शौक था कि वह साल भर ऐसी चीजें जमा करते थे, जिनसे रंगों का छिड़काव दूर तक किया जा सके।
तुज्क-ए-जहांगीरी नामक पुस्तक में मुगल बादशाह जहांगीर की होली का जिक्र मिलता है। गीत-संगीत के शौकीन जहांगीर होली के दिन संगीत की महफिल लगाते थे। इस आयोजन में सभी शामिल होते थे। इसी काल में होली को ईद-ए-गुलाबी अर्थात रंगों का त्योहार व आब-ए-पाशी यानी पानी के बौछार जैसे नाम दिए गए। जहांगीर के लिए मशहूर है की वह हर होली में एक सभा का आयोजन करता था |
मुगल शासक शाहजहां के दौर में दिल्ली में होली मनाई जाती थी। जहां आज राज घाट है, वहां शाहजहां प्रजा के साथ रंग खेलते थे। बहादुर शाह जफर सबसे आगे निकले। उन्होंने होली को लालकिले का शाही उत्सव बना दिया। जफर ने इस दिन पर गीत भी लिखे, जिन्हें होरी नाम दिया गया। यह उर्दू गीतों की एक खास श्रेणी ही बन गई। जफर का लिखा एक होरी गीत
यानी फाग आज भी होली पर खूब गाया जाता है, क्यों-मोपे रंग की मारी पिचकारी, देखो कुंवरजी दूंगी मैं गारी। इस अंतिम मुगल शासक का यह मानना था कि होली हर मजहब का त्योहार है। उर्दू अखबार जाम-ए-जहांनुमा ने साल 1844 में लिखा कि होली पर जफर के काल में खूब इंतजाम होते थे। टेसू के फूलों से रंग बनाया जाता और राजा-बेगमें-प्रजा सब फूलों का रंग खेलते थे।
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