जौनपुर में फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ के आबाद करने के साथ साथ यहां मस्जिदों का निर्माण शुरू हो चूका था लेकिन यह मस्जिदें बहुत बड़ी नहीं हुआ करती थीं | जफराबाद और जौनपुर में तुग़लक़ के दौर मस्जिदें बहुत सी मिलती हैं | जैसे ज़फराबाद की चौरासी खम्बों वाली जामा मस्जिद ज़फर खान ,झंझरी मस्जिद ज़फराबाद और जौनपुर में बनी मस्जिदें जिसमे पानदरीबा जौनपुर में बानी मस्जिद तुग़लक़ दौर की सबसे पुरानी मस्जिद कही जाती है जो अब अपनी पुरानी जगह पे तो है लेकिन पुरानी शक्ल में नहीं है |
फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ का दौर
तुग़लक़ समाज की मस्जिद पानदरीबा की पुरानी तस्वीर
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जौनपुर के जफराबाद इलाक़े के मध्य में एक जामा मस्जिद ज़फ़र शाह तुग़लक़ ने बनवाई है जिसके बारे में कहते हैं कि इस आर्किटेक्ट की दूसरी मस्जिद मुल्तान में है। इसकी विशेषता यह है कि 20 फ़ीट ऊंची इस मस्जिद में 84 खंबे हैं। बाद में शेख बडन जो शाह कबीर के शिष्य थे उन्होंने इस मस्जिद की पूरी तरह से मरम्मत करवाई और तब से नाम शेख बडन की मस्जिद पड़ गया । इस मस्जिद का निर्माण ७२१ हिजरी या १३२१ इ में हुआ ।
तुग़लक़ के दौर के बाद शर्क़ी दौर आया जो सबसे अधिक समय तक चला और इस दौर में जौनपुर में एक से एक बड़ी मजिदों का निर्माण हुआ | इन मस्जिदों में शिल्पकला और नक़्क़ाशी के साथ साथ सुलेखकला का इस्तेमाल हुआ है |
शर्क़ी दौर
अटाला मस्जिद |
सबसे पहले अटाला मस्जिद की नीव पडी जिसकी शुरुआत १३६३ ईस्वी में फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ ने डाली थी लेकिन वो इसे पूरी नहीं करवा सका और बाद में इब्राहिम शर्क़ी के दौर में इसकी तामीर की गयी जो मुकम्मल १४०८ ईस्वी में हुयी | इस मस्जिद के मेहराब इत्यादि जगहों पे कारीगरों के बनाय निशाँ और नाम देखे जा सकते हैं जो उस दौर का चलन था |
पान दरीबा रोड पे मकबरा सयेद काजिम अली से सटी हुई एक मस्जिद मौजूद है जिसे खालिस मुखलिस या चार ऊँगली मस्जिद कहते हैं | शर्की सुलतान इब्राहिम शाह के दो सरदार इस इलाके में आया जाया करते थे कि एक दिन उनकी मुलाक़ात जनाब सैयेद उस्मान शिराज़ी साहब से हुई जो की एक सूफी थे और इरान से जौनपुर तैमूर के आक्रमण से बचते दिल्ली होते हुए आये थे और यहाँ की सुन्दरता देख यहीं बस गए | सयेद उस्मान शिराज़ी साहब से यह दोनों सरदार खालिस मुखलिस इतना खुश हुए की उनकी शान में इस मस्जिद की तामील करवायी | इस मस्जिद को बनवाने का सन १४१७ ईस्वी कहा जाता है जो की सही है लेकिन कुछ इतिहासकार १४३० भी लिखते हैं |
इस मस्जिद की एक ख़ास बात यह भी है की जौनपुर में शिया मुसलमानों को नमाज़ ऐ जुमा सबसे पहले इसी मस्जिद में सय्यद दीदार अली साहब ने शुरू की जो पेश ऐ नमाज़ भी थे फिर उसके बाद काजिम अली साहब ने नमाज़ पढवाई और उसके बाद जाहिद साहब मरहूम इस नमाज़ ऐ जुमा को नवाब बाग स्थित शिया जामा मस्जिद ले गए जहां आज तक नमाज़ ऐ जुमा होती है |
लाल दरवाज़ा मस्जिद १४४४ -१४५७ ईस्वी |
लाल दरवाज़ा के नाम से जो मस्जिद आज जानी जाती है इसे सुलतान महमूद शाह शार्की की पत्नी बीबी राजे ने १४४४ ईस्वी में एक मशहूर संत सय्यद अली दाऊद के जौनपुर आगमन के बाद बनवाया था जिनकी सीधी नस्ल आज भी पानदरीबा मोहल्ले में रहती है| आज की मशहूर लाल दरवाज़ा मस्जिद का सही नाम "नमाज़ गाह " था | इस मस्जिद के पहले इसी के पास शार्की क्वीन राजे बीबी ने अपना महल था जिसे "महल सरा " के नाम से जाना जाता था जिसका मुख्य द्वार "लाल रंग के याकूत नगीने का बना हुआ था और उसी के नाम पे इस महलसरा को लोग लाल दरवाज़े के नाम से जानने लगे | यह मस्जिद १४४४ में बनना शुरू हुयी और १४५७ में मुकम्मल हुयी |
बड़ी मस्जिद जौनपुर |
जनपद की प्रमुख ऐतिहासिक इमारतों में से एक नगर में आदि गंगा गोमती के उत्तरावर्ती क्षेत्र में शाहगंज मार्ग पर स्थित बड़ी मस्जिद जो जामा मस्जिद के नाम से भी जानी जाती है, वह शर्की कालीन प्रमुख उपलब्धि के रूप में शुमार की जाती है। जिसकी ऊंचाई दो सौ फिट से भी ज्यादा बताई जाती है। इस मस्जिद की बुनियाद इब्राहिम शाह के जमाने में सन् 1438 ई. में उन्हीं के बनाये नक्शे के मुताबिक डाली गयी थी जो इस समय कतिपय कारणों से पूर्ण नहीं हो सकी। बाधाओं के बावजूद विभिन्न कालों और विभिन्न चरणों में इसका निर्माण कार्य चलता रहा तथा हुसेन शाह के शासनकाल में यह पूर्ण रूप से सन् 1478 में बनकर तैयार हो गया।
Jhanjree Masjid
झंझरी मस्जिद जौनपुर शहर के सिपाह मोहल्ले में गोमती नदी के उत्तरी तट पर बनी है| यह मस्जिद पुरानी वास्तुकला का अत्यन्त सुन्दर नमूना है ऐसा लगता है की यह अटाला मस्जिद और खालिस मुख्लिस मस्जिद की समकालीन है और इसे इब्राहिम शाह शर्की ने बनवाया था| सिपाह मुहल्ला भी स्वयं इब्राहिम शाह शर्की का बसाया हुआ है और शर्की बादशाह यहॉ पर सेना तथा हाथी, घोड़े, उंट एवं खच्चर रहते थे| सिकन्दर लोदी ने शर्की सलतनत पर आक्रमण के दौरान इस मस्जिद को ध्वस्त करवा दिया था और कहा जाता है की सिकन्दर लोदी द्वारा ध्वस्त किये जाने के बाद यहॉ के काफी पत्थर शाही पुल में लगा दिये गये थे |वर्तमान में मस्जिद का झंझरी वाला हिस्सा ही अस्तित्व में है| इसके बनवाने की तिथि का ज़िक्र किसी इतिहासकार ने नहीं किया लेकिन यह १४५० ईस्वी के आस पास की बानी हुयी लगती है |
शाही क़िला में एक मस्जिद बानी हुयी है जिसकी लोगों को मोहित कर लेती है | इस मस्जिद को मिस्र शिल्पकला का नमूना भी बताया जाता है लेकिन हकीकत में इस मस्जिद का नाम मस्जिद इब्राहिम नायब बारबाक है जिसकी तामीर अप्रैल १३७६ ईस्वी हुयी | इस मस्जिद के मेहराब पे अरबी में क्रां की सूरा फत की आयात लिखी हुयी है | और इस मस्जिद के बहार एक खम्बा लगा हुआ है जिसपे क़ुरआन की आयत के साथ बादशाह अब्ल मुज़फ्फर फ़िरोज़ शाह और बादशाओं के बादशाह इब्राहिम नायब बारबाक ने इसे ज़ीक़ादा ७७८ में बनवाया था | इस तारिख के अनुसार इसकी तामील अप्रैल १३७६ में इब्राहिम नायब बारबाक द्वारा हुयी |
शाही क़िला में एक मस्जिद बानी हुयी है जिसकी लोगों को मोहित कर लेती है | इस मस्जिद को मिस्र शिल्पकला का नमूना भी बताया जाता है लेकिन हकीकत में इस मस्जिद का नाम मस्जिद इब्राहिम नायब बारबाक है जिसकी तामीर अप्रैल १३७६ ईस्वी हुयी | इस मस्जिद के मेहराब पे अरबी में क्रां की सूरा फत की आयात लिखी हुयी है | और इस मस्जिद के बहार एक खम्बा लगा हुआ है जिसपे क़ुरआन की आयत के साथ बादशाह अब्ल मुज़फ्फर फ़िरोज़ शाह और बादशाओं के बादशाह इब्राहिम नायब बारबाक ने इसे ज़ीक़ादा ७७८ में बनवाया था | इस तारिख के अनुसार इसकी तामील अप्रैल १३७६ में इब्राहिम नायब बारबाक द्वारा हुयी |
इसके बाद दौर आया मुग़ल काल का जिसमे बानी मुख्य मस्जिदें है शेर वाली मस्जिद शाही क़िला , दारा शिकोह मस्जिद इत्यादि | यह मस्जिद जौनपुर के मिया पूर इलाक़े में स्थित है जिसे दिल्ली के बादशाह शाहजहाँ के पुत्र दारा शिकोह की इजाज़त से उनके दरबारी मुहम्मद नूह ने शाहजहाँ के शासन काल में बनवाया । शाहजहाँ के शासन काल में दारा शिकोह जौनपुर के प्रबंधक के रूप में आया और जब उसने शार्की समय की बनी मस्जिदों को देखा तो बड़ा प्रभावित हुआ और उसने भी एक मस्जिद निशानी के तौर पे गोमती नदी के तट पे मियांपुर इलाक़े में बनवाई । ये गोमती नदी से केवल ५० फुट की ऊंचाई पे स्थित है ।
जौनपुर में मौजूद मस्जिदों के बनने की तारिख में मतभेद का मुख्या कारन यह था की कहीं जब मस्जिद की नीव पडी वो तारिख बताई जाती थी तो कहीं मुकम्मल होने की और बहुत बार फ़ारसी में लिखे उसके बनने की तारिख को सही से ना समझ पाने की वजह से मतभेद रहा लेकिन कौन सी मस्जिद किस दौर में बनी है इसमें कोई मतभेद नहीं रहा क्यों की जौनपुर के पथ्थर और नक़्क़शीयाँ खड़ बोलती है |
लेखक
एस एम् मासूम
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"बोलते पथ्थरों के शहर जौनपुर का इतिहास " लेखक एस एम मासूम
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