होली या नौरोज़? लेखक मरहूम इमरान रिज़वी
इस के लेखन इमरान रिज़वी अब इस दुनिया में नहीं रहे लेखन इन शब्दों के साथ लेखक आज भी जीवित है | इस होली पे उनका एक यादगार लेख आप के सामने पेश है | ...... एस एम् मासूम

ऐसा नही है की मुझे त्यौहार नापसंद हों, इस दुःख और चिंताओं से भरी दुनिया में खुश होने के बहाने किस इंसान को बुरे लग सकते हैं....लेकिन बस अब मुझे रंगों से थोड़ी चिढ सी होती है. वो भी इसलिए की ये आसानी से छूटते नही और फिर एक तो अब मेरा ये बचकानी हुड़दंग बाज़ीयां करने का मन भी नही करता,
होली के बारे में जो बात मेरे लिये सबसे ख़ास है वो यह कि रंगो का त्यौहार मुझे हमेशा मेरे लखनऊ और मेरे बचपन की याद दिला देता है,
चैराहे पर टोली बनाकर खड़े होना और हर आने जाने वाले को रंगो से सराबोर कर देना.....दो गधे पकड़कर उनको रँगना और फिर उनपर किसी खिलौनेनुमा शख्स को उलटा बिठाकर पूरे मोहल्ले में उसका जुलुस निकालना....
फिर सारा दिन रंग खेलने के बाद इलाके की मस्जिद के हौज़ की साफ़ सफाई भी हम मोहल्ले के सारे लड़के मिलकर करते थे।इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता था की हौज़ की कोई मछली मरने ना पाये और उनको एक बड़ी पन्नी में जमा करके वापस सफाई के बाद हौज़ में छोड़ने का इंतज़ाम पूरी ज़िम्मेदारी से किया जाता था,
चूँकि हम नौरोज़ में खूब रंग खेलते थे लिहाज़ा बचपन से ही हमारे लिए हमारे नौरोज़ की तरह होली भी बस एक रंगों का और खुशियों के मनाने का त्यौहार हुआ करता था....और होली में भी बगल के चौपटियां या अम्बरगंज साइड निकल कर अपने हिंदी नाम वाले दोस्तों के साथ रंग खेल आया करते थे और दावत भी उड़ा लेते थे। (इस होली की दावत के एवज़ बक़रीद की मटन बिरयानी की दावत हमारे ज़िम्मे होती थी)
खैर.....होली और नौरोज़ के बीच हमे कोई फर्क तब तक नही समझ आया था जब तक किसी शैताननुमा इंसान ने कानों में हिन्दू और मुसलमान नामी दो शब्दों का ज़हर नही घोला था।बहरहाल हमने भी नीलकंठ की तरह इस ज़हर को अपने गले में ही रोक लिया दिल में ना उतरने दिया कभी...
और जब तक नौरोज़ में रंग खेला किये तब तक कोई होली भी सूखी न जाने दी।
शब् ए बरात जब तक आतिशबाज़ी की तब तक दीवाली को भी अपने घर से अँधेरे में ना गुजरने दिया।
फिर वक़्त के साथ ज़ेहन बूढा सा हो गया और रंग खेलना और पटाखे जलाना बचकानी हरकतें लगने लगीं।
अब यही काम बच्चों को करते देख खुश भर हो लेते हैं....हाँ लेकिन "अन्य पर्वोचित खान पान" और मेल मिलाप से अब भी कोई परहेज़ नही करते....अभी ये लिखते वक़्त भी पड़ोस से आई मीठी गुझिया की प्लेट सामने रखी हुई है।
एक सबसे ख़ास हमारे साथ चीज़ और होली और नौरोज़ की यादों से जुडी है यह की ये दोनों दिन हमारी सालाना पिटाई के दिन हुआ करते थे।
मसला दरअसल ये था की हम रंग खेलना नही छोड़ सकते थे और पापा हमारा मोहल्ले के "लोफर लौंडों" के साथ खेलना बर्दाश्त नही कर सकते थे...
लेकिन जब तक हमारे मन में होली और नौरोज़ के रंगों के खेलने की इच्छा जीवित रही तब तक पापा से बावजूद पिटाई खाने के यह असहमति भी चलती रही।
ना मेरा विद्रोही स्वभाव किसी पिटाई के डर से मुझे मेरी पसंद का खेल खेलने से रोकने देता ना पापा की मुझे "सुधारने" की ज़िद उन्हें मेरी पिटाई करने से रोकती....
बाद में थोडा बड़े होने पर पापा से यह असहमतियां वैचारिक रूप धारण करती गयीं। ऐसा होने पर अब पिटाई बन्द हो गयी और सम्मान मिलना शुरू हो गया।
खैर अब तो न रंग खेलने वाला वो बालमन रहा न अब पापा ही रहे। लेकिन सच कहें, होली और नौरोज़ के उन रंगों से ज़्यादा आज पापा और उनकी वो पिटाई याद आती है, मन करता है किसी तरह पापा वापस उस बेकार सुनसान से क़ब्रिस्तान की अपनी आरामगाह से उठकर वापस आएँ और अपना वही खादी का कड़क सफेद कुर्ता पैजामा पहन मेरे सामने आकर खड़े हो जाएँ, मुझको डांटे,मुझसे तर्क वितर्क करें....मुझे शुद्ध वाली हिंदी सिखाएं...मेरे साथ कैरम खेलें और हमेशा की तरह मुझसे जानबूझ कर हार जाएँ.....मेरे साथ क्रिकेट खेलें और जानबूझ कर मुझे चौका जड़ने वाली गेंद फेंके...जान बूझकर मेरी गेंद पर आउट हो जाएँ...और मैं उनसे ज़िद करूँ की मेरे साथ ये जानबूझकर वाला नही सही वाला खेल खेलिए।
कभी कभी तो मन करता है की किसी नौरोज़ या होली पर खुद को रंगों में सराबोर करके उनकी आरामगाह के सामने जाकर खड़ा हो जाऊं...
शायद वो मुझे सज़ा देने ही सही एक बार बस एक बार उठकर मुझसे बात ही कर लें...मुझको बता तो दें की कौन सी नाराज़गी के चलते मुझसे बिना बात किए वो उस दिन अचानक ऐसे क्यों चले गए थे मुझे छोड़कर उस सुनसान जगह रहने...
लेकिन फिर मेरा ज़ेहन मुझे समझा ही ले जाता है कि ठहर जाओ मियां,अब वो दिन नही आने वाले ।
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