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    मंगलवार, 15 फ़रवरी 2022

    लखनऊ में गुजरे वक़्त की याद मुकेश चित्रवंशी के साथ।

    कहते हैं कि गुज़रते व़क्त के साथ-साथ
    न जाने कितनी ही चीजें है जो कि बदलती रहती है.... वाकई कभी-कभी तो हैरत होती है.... वही शहर है वही आबोहवा है लेकिन दरों दीवार कूचा ए बाज़ार और इमारतें अपने पुरानें कलेवर और पारंपरिक बनावट को खोकर नई नई शक्लें इख़्तेयार कर लेतीं हैं।

    जी हां आज आपकी जानिब हम ज़िक्र कर रहे हैं  अपने इस मारुफ शहर ए ल़ख़नऊ का जिसके अदब और विरासत का मैं बयान अक्सर ही अपनी पोस्ट के ज़रिए आप सबके सामने करता रहा हूं।

    अपने ननिहाल और ददिहाल दोनों ही बड़े ख़ानदानों की तरफ से मिले हुए एंटीक और पुरावस्तु संबंधित वस्तुओं के संग्रह का शौक मुझे अपनी बचपनें से ही रहा था....
    धीरे धीरे हम शहर ल़ख़नऊ के कुछ बड़े एंटीक डीलर्स की सोहबत में आये... उनकी दरियादिली और दयानत के चलते उनसे बहुत कुछ सीखने और समझने की सलाहियत का मौक़ा मुझे आज तक हासिल होता रहा है।

    दोस्तों मेरा मिजाज़ ही कुछ ऐसा था कि शुरू से ही एंटीक और उसमें बसी कलात्मकता को देखनें और समझने का मौका मुझे अक्सर ही मिलता रहता था क्योंकि मेरा उठनां बैठना नवाबीन ए अवध के बड़े ही नामचीन ख़ानदानों में रहा है.... उनकी बड़ी बड़ी शानदार हवेलियों में उनके विरासत में पाए हुए बेशुमार नांयाब और बेहद बेशकीमती एंटीक मैंने देखे और परखे है।

    अगर आप ल़ख़नऊ के असल बाशिंदे हैं और आपकी रिहाइश यहां के किसी पुरानें महल्ले की रही है तो यक़ीनन आप और आपके बाप दादा तक सदियों से सुबह के नींम अंधेरे लगनें वाले हर इतवार के नक्ख़ास बाज़ार के बारे में ज़रुर ही जानते होंगे।



    चूंकि मेरी रिहाइश पुरानें ल़ख़नऊ के इलाके भदेवां नाम के एक महल्ले की रही है जिसके बीच का एक सीधा रास्ता बिल्लौच पुरे से होता हुआ नक्ख़ास तक जाता है,,, इसलिए हर इतवार को मुह अंधेरे तकरीबन 4:00 बजे सुबह मैं टॉर्च लेकर वहां पर पहुंच जाए करता था,,, उस क़द़ीमी ज़माने में इस बाज़ार की शुरुआत बड़े इमामबाड़े के पीछे जहां पर आजकल नींबू बाग़ है उन दिनों वहां तीतर बटेर और लड़ाकू मुर्गों की बाक़ायदा कुश्तियां हुआ करती थी खाने पीने के सामान से लेकर रुपये पैसों तक की बाजी वहां पर लगाई जाती थी साथ ही साथ तरह-तरह की देसी और विदेशी नस्लों के जानवर भी यहां पर बिका करते थे,, पुराने बुज़ुर्गवार तो ये तक बताते हैं कि यहां पर हाथी घोड़े और ऊंटों की ख़रीद-फ़रोख़्त बड़े पैमाने पर हुआ करती थी,,,,  ये बाज़ार विक्टोरिया स्ट्रीट तक सीधी सड़क के दोनों तरफ लगती थी और नक्ख़ास चौराहे से लेकर प्रकाश सिनेंमा हाल के आगे पीछे होते हुए नादान महल रोड तक लगा करती थी।

    एक से बढ़कर एक अतरंगी दुकनदार और उनके हमेशा के बंधे बंधाए अतरंगी गहक और उनके बीच की ख़रीद फ़रोख़्त का दिलचस्प अंदाज़ वाकई क़ाबिल ए तारीफ हुआ करता था।

    बस जनांब ए आली यू समझ लीजिए कि उस हसीन दौर में सुई से लेकर हवाई जहाज़ तक का सामान इस बाज़ार में बड़ी ही मुफ़ीद और मन माफ़िक क़ीमतों में मिल जाया करता था।

    ये कहनें में मुझे कतई गुरेज नहीं है के हर इतवार को इस बाज़ार में आना किसी नशे की लत के बराबर है,,, जिसकी पिनक में इसके लती नशेबाज़
    शनिवार की रात लगभग  तीन बजे तक हर हालत और किसी भी हालात में यहां तक पहुंच ही  जाते हैं,,, और इतवार को दिन ढलनें तलक हर सूरत यहीं मौजूद रहते हैं... खानें पीनें की फ़िक्र नहीं.... इलाके की तमाम लज़्जतें जिसमें सुबह के नाश्ते में निहारी कुल्चे ,हल्वा पराठा, पूरी कचौरी से लेकर दोपहर के खानें में बेहतरीन मुर्ग़ बिरियानी ,पुलाव क़ौरमा शामी और ग़लावटी क़वाब तक की तमाम लवाज़तें यहां मौजूद रहती थीं।

    एस से बढ़कर एक समान और उनके पीढ़ी दर पीढ़ी दुकनदारों की एक मुश्त हर हफ़्ते की महफ़ूज जगहें उनके ख़रीदारों को बड़ी ही आसानी से उन तक पहुंचा दिया करतीं थीं.... हुजूर वो दौर ज़ुबान के पक्के और बेहद ईमानदार लोगों का था,,, मसलन यहां की किसी भी जगह से खरीदा हुआ कोई भी सामान किसी तरह अगरचे आपकी नज़र को जच नहीं रहा है तो किसी भी सूरत ए हाल में बड़ी ही मुआफी तलाफ़ी और माज़रत के साथ यहां उसकी वापसी की पूरी उम्मीद होती थी।

    मैं और मेरे साथ ही साथ मेरे हम उम्र आप सब हाज़रात यक़ीनन उस बेहतरीन दौर से वाक़िफ होंगे।

    पुराने दौर में गुज़रे ज़माने की एक से बढ़कर एक नांयाब चीज़े इस बाज़ार में बड़ी सी आसानी से ख़ास ओ आम को दस्तयाब हो जाती थीं,,,, जो कि मौजूदा व़क्त में आज भी क़िस्मत के धनीं लोगों को यदा कदा अक्सर ही यहां मिल जाती हैं... जरूरत है तो बस आपकी सलाहियत तजुर्बे और पारखी नज़रों की।

    जनाबे अली आइए आपको इस बाज़ार के कुछ बेहद दिलचस्प और खुद की आंखों से देखे और कुछ सुने सुनाए किस्से सुनाते हैं

    जगत सेठ के पन्ने यानी के बेशकीमती जवाहरात से जुड़ी हुई एक सच्ची कहानी

    आज से तकरीबन कोई साठ सत्तर बरस पहले की बात है उन दिनों नक्खास की इस बाज़ार में एक से बढ़कर एक बेशकीमती सामान कौड़ियों के दाम पर मिल जाया करता था,,, सुबह का व़क्त था और सड़क के दोनों ओर फुटपाथ पर कुछ पटरी दुकानदार अपनी अपनी दुकानों को सजाए हुए बैठे थे ....इन्हीं दुकानदारों की फेहरिस्त में एक गरीब बूढ़ी औरत एक चादर पर अपने साथ लाए हुए कुछ सामान को बेचने की ख़ातिर आते जाते खरीदारों को बड़ी ही हसरत भरी निगाहों से देख रही थी दरअसल उसके पास जो सामान था वो सारा का सारा एक नज़र में तो देखने में बड़ा ही मामूली सा मालूम होता था इसलिए ज्यादातर लोग एक सरसरी निगाह से उसके सामान को देखते हुए आगे बढ़ जाते थे,, उसके पास कुछ टूटी हुई शीशे की मालूम पड़ने वाली प्यालियां और प्लेटे थी जोकि बड़े ही बेतरतीब ढंग से रखी हुई थी.... थोड़े बहुत किसी टूटे हुए झाड़ फानूस के रंग-बिरंगे हिस्से भी थे ,,दरअसल ऐसा था कि उन दिनों कुछ बड़े ही रईस और नवाबीन ए अवध के खा़नदानी लोग अपनी हवेलियों का पुराना और टूटा फूटा सामान भंगारी कबाड़ी वालों के हाथ औने-पौने दामों बेंच देते थे और फिर ये लोग नक्खास के बाज़ार में दुकान लगाने वाले फुटपाथिये दुकानदारों को ही दो चार पैसे का फायदा ऊपर से लेकर उनके हाथ बेच देते थे ....तो साहब इसी तरह का कोई कबाड़ी इस बूढ़ी औरत को अपना टूटा फूटा बेकार का सामान एक गठरी की शक्ल में चल आठ आने में बेच गया था जिसे खरीदने के बाद ये बूढ़ी औरत अपने फूटे हुए नसीब को रो रही थी।

    धीरे-धीरे दिन चढ़ता जा रहा था लेकिन इस बेचारी का सामान कोई खरीदना तो दूर देखने तक को राजी ना था..... मायूसी के हाल में बुढ़िया बार-बार आसमान की तरफ देखती और धीरे-धीरे कुछ बड़ बड़ाती जा रही थी शायद वो ऊपर वाले से अपनी बदकिस्मती का उलाहना दे रही थी..... भूख प्यास से बुरा हाल हो रहा था उसका और वो अपनी गठरी को लगभग लपेटते हुए वहां से रुख़सत होने वाली ही थी के तभी अचानक एक रईस सा दिखने वाला अधेड़ उम्र की शानदार शख्सियत का मालिक वहां से गुज़रते हुए ठिठक सा गया और झुक कर बुढ़िया के सामान को एक-एक करके देखने लगा तो बूढ़ी औरत की कमज़ोर आंखों में उम्मीद की रौशन शमां जगमगाने लगी थी..... एकबारगी तो ऐसा लगा कि अब उसे उसके सामान की वाजिब कीमत मिल जाएगी लेकिन अंदर ही अंदर कहीं ना कहीं वो ना उम्मीद भी होती जा रही थी क्योंकि ये शख्स हर एक सामान को बार-बार उठाकर धूप और छांव में देख रहा था या यूं भी कह लीजिए कि वो एक एक करके सारे सामान को परख रहा था...

    थोड़ी देर के बाद उसने बूढ़ी औरत से पूछा के बाजी आपका यह सामान लगभग कितनी कीमत का होगा... एक साथ सारे सामान को बिकने की उम्मीद में बूढ़ी औरत नें कहा कि भाई ये तुम्हारे किसी काम का हो तो फिर इस पूरे सामान की कीमत अगर मुझे एक रुपए मिल जाती तो बड़ा अच्छा होता फिर भी अगर आप चाहे तो मुझे बारह आने दे दीजिए..... कीमत सुनकर वो शख्स कुछ अलग ही अंदाज में मुस्कुराया और बोला की बाजी मैं आपको इस सारे सामान के नगद पच्चीस रुपए देना चाहता हूं अगर आपको मंजूर हो तो यह सारा सामान मेरा हुआ..... उम्मीद से भी परे इतने ज़्यादा रुपए सुनकर बूढ़ी औरत की आंखें हैरत से फैल गई उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वो क्या करें ऐसा लग रहा था कि कहीं ये आदमी उसके साथ मज़ाक तो नहीं कर रहा है।

    उसे असमंजस में देखकर उस आदमी ने नोटों की शक्ल में पच्चीस रुपए गिन कर उसकी मुट्ठी में थमा दिये..... बुढ़िया दोनों हाथ आसमान की जानिब उठाकर बा आवाज़ ए बुलंद इस फरिश्ता इंसान को लाखों दुआएं दे रही थी.... यह देखकर आसपास के दुकानदारों का मजमा वहां पर इकट्ठा हो गया और सभी उस खरीदार को बड़ी हसरत और हैरत भरी निगाह से देख रहे थे और आपस में कानाफूसी भी कर रहे थे कि अमां मियां ये कैसा सरफिरा आदमी है जो इस टूटे-फूटे सामान के इतने सारे रुपए दे रहा है..... ख़ैर उस गठरी को संभाल के और बड़े ही शाइस्ता अंदाज में उस बूढ़ी औरत का शुक्र अदा करके तमाम भीड़ को दरकिनार करते हुए वो शख्स अपने चमचमाते हुए इक्के पर बैठकर चौक की तरफ चल पड़ा......

    उधर चौक का सर्राफा बाज़ार पूरी तरह से सज चुका था महाजन सुनार अपनी अपनी दुकानदारी को चमकाने में लगे हुए थे कि तभी एक बड़ी सी सुनारी की दुकान के सामने वो इक्का रुका और उस पर से उतर कर वही शख्स लंबे डग भरता हुआ दुकान के भीतर जैसे ही दाख़िल हुआ तो महाजन सेठ और उसके कारिंदों ने बड़ी ही गर्मजोशी से उनका इस्तकबाल करते हुए उन्हें अपनी गद्दी पर बिठाया.... दुआ सलाम और ख़ैर सल्ला के बाद शरबत पेश करते उनके आने का सबब पूंछते हुए बड़ी हैरत के साथ उस मैली कुचैली गठरी की ओर इशारा करते हुए कहा अमां जगत भाई ये गठरी कहां से उठा लाए तो लगभग हंसते हुए उन्होंने जवाब दिया कि यहीं आपके नक्खास की बाज़ार से।

    महाजन सेठ समझ चुका था कि हो ना हो जगत भाई कोई बड़ी ही नायाब चीज़ इस मैली गठरी में समेट कर ले आए हैं..... तो उसने गठरी को खोल कर दिखाने का इसरार किया... तो उन्होंने उठने का इशारा करते हुए लॉकर और तिजोरी वाले कमरे में चलकर देखने को कहा.... महाजन सेठ और जगत भाई दोनों ही दुकान के पिछले वाले हिस्से मैं मौजूद एक कमरे में आ चुके थे..... नौकरों से एक बड़े परात में साफ पानी भरकर लाने के लिए कहा गया,, पानी से भरी परात रखने के बाद नौकर वहां से चले गए तो दरवाज़ा बंद करके जगत भाई नें धीरे धीरे गठरी की गांठ को खोलना शुरू किया गठरी खुलने के बाद प्लेट और प्यालियों को बड़े ही आहिस्ता अंदाज में पानी में डुबो दिया गया थोड़ी देर भीगने के बाद उन पर लगी हुई धूल और मिट्टी लगभग साफ हो चुकी थी... मलमल के कपड़े से पोंछ कर जब महाजन के हाथों में उन्होंने प्लेट और प्यालियां पकड़ाई तो उनको देखकर महाजन की आंखें फटी की फटी रह गई.... हरे शीशे का टूटा फूटा वो चमकदार डिनर सेट जो देखने में बिल्कुल पारदर्शी था..... वो पूरे का पूरा बेशकीमती पन्ने का था और वो पन्ना भी कहां का बकस की खान का था जो कि उस दौर में गोलकुंडा की हीरे की खान से भी बढ़कर दुनियां के सबसे नायाब पन्ने उगलती थी।

    महाजन सेठ को अपनी आंखों पर यकीन नहीं हो रहा था वो बदहवासी के आलम में बार-बार अपनी आंखों को मलते हुए हर एक चीज़ को उलट पलट कर देख रहा था....... इसी गठरी में खालिस बर्मीज़ माणिक्य और शफ्फ़ाफ आब के मानिंद ब्राजीलियन बिल्हौर जिसे स्फटिक भी कहा जाता है उसके अलग-थलग 24 कैरेट गोल्ड प्लेटेड और बेहतरीन नक्काशी दार टूटे-फूटे हिस्सों से बना हुआ बेल्जियम का एक झाड़ फानूस भी था.....
    जिसकी कीमत उस कदीमी दौर में भी करोड़ों में थी।

    कहते हैं कि बाद में ये सारा सामान लेकर जगत भाई जयपुर रवाना हो गए और वहां पर जयपुर के जौहरी बाज़ार में रत्नों के नफीस तराशगीरों ने इस सारे बेशकीमती सामान के टुकड़ों को नगीनों की शक्ल में तराश दिया...... जिसके एक एक नगींने की कीमत आज भी करोड़ों रुपयों में है...... जो कि जवाहरात की दुनियां में आज भी जगत सेठ के पन्नों के नाम से मशहूर हैं।

    इस सच्ची कहानी के बाबत मेंरे बहुत ही छानबीन करने के बाद हमारे पहले उस्ताद मरहूम जनाब डॉक्टर आफताब साहब जो कि पुराने ल़ख़नऊ के मंसूर नगर महेल्ले में बाल्दे के पीछे रहते थे,, उन्होंने बस हमें इतना ही बताया के हुसैनाबाद में कहीं एक अमीर जादे मीर तुराब अली की एक बहुत बड़ी और आलीशान पुरानी सी हवेली थी.... उसी हवेली से ये सारा बेशकीमती सामान कबाड़ी कौड़ियों के भाव खरीद कर लाए थे।

    आज भी हमारा मुंबई से जब भी ल़ख़नऊ जाना होता है तो बिला नागे के हर इतवार को मैं सुबह के नीम अंधेरे से ढलती हुई सुरमई शाम तलक इस बाज़ार में भटकता रहता हूं ,,और मेरी बेचैन निगाहें बड़ी तिश्नगी के साथ गुज़रे हुए उस दौर कि इस सच्ची घटना की पुनरावृति की तलाश करती रहती हैं ....आज भी ऐसा लगता है कि कहीं ना कहीं सड़क के किसी छोर पर वो बुढ़िया अपने कुछ टूटे फूटे और पुराने सामान के साथ मेरी राह देख रही होगी..........

    दोस्तों उम्मीद करता हूं कि ये कहानी यकीनन ही आपको दिलचस्प लगी होगी,,, आप सभी से तहे दिल से गुज़ारिश है इस कहानी को आप अपने अपने पेज पर अपने दोस्तों के साथ शेयर जरूर कीजिएगा ताकि उन्हें भी पता चले के इस बाज़ार में न जाने क्या क्या खरीदा और बेंचा गया है।

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    Dr Mukesh Chitravanshi

     सोना बेंच गया कोई, यहां मिट्टी के दाम में
    तो शीशा भी यहां बिक गया हीरे के दाम में।

    साहिल 🌹

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