जौनपुर कभी इ’मारतों, मंदिरों, मस्जिदों, मदरसों, ख़ानक़ाहों,आ’लिमों , सूफ़ियों के लिए प्रसिद्ध था |
जौनपुर को फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ ने सन 1361 में अपने चचेरे भाई मुहम्मद बिन तुग़लक़ उ’र्फ़ जूना ख़ान के नाम पर बसाया और दुर्ग का निर्माण किया था ताकि बंगाल और दिल्ली में शान्ति बनाये रखने में सुविधा हो. जौनपुर बंगाल और दिल्ली के बीच में स्थित है .यह नगर चौदहवीं शताब्दी में फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ द्वारा बसाये हुए शहरों में सर्वाधिक महत्त्व का है . शर्क़ी बादशाहों के काल में जौनपुर उन्नति के शीर्ष पर था. पंद्रहवीं शताब्दी के आरम्भ में ऐसी दो बड़ी घटनाएं हुईं जिन्होंने जौनपुर को एक समृद्ध शहर के रूप में स्थापित कर दियाजब दिल्ली पर तैमूर का आक्रमण हुआ, उस समय पूरे देश में अराजकता का माहौल था.तुग़लक़ साम्राज्य की नीव हिल चुकी थी. सन 1393 में महमूद शाह तुग़लक़ ने ख्व़ाजा जहाँ मलिक सरवर को विद्रोहियों के दमन के लिए भेजा. उसने विद्रोह दमन करने के पश्चात दिल्ली से अलग होकर अपना एक स्वतंत्र राज्य शर्क़ी शासन के नाम से स्थापित कर लिया और जौनपुर को अपनी राजधानी घोषित कर जौनपुर का बादशाह बन बैठा
दूसरी बड़ी घटना इब्राहीम शाह के बादशाह हो जाने के बा’द हुई. इब्राहीम शाह ने सन 1402 ई. से लेकर 1444 ई. तक राज किया. इतिहासकारों ने उसे बड़ा विद्वान और न्याय प्रिय शासक बताया है .तैमूर के आक्रमण के समय दिल्ली से बहुत सारे विद्वानों का पलायन हुआ और वह दिल्ली से जौनपुर आ गए. इसका परिणाम यह हुआ कि जौनपुर ज्ञान और कला का प्रमुख केंद्र बन गया. विद्वानों ने जौनपुर को शीराज़-ए- हिंद भी कहा है .
जौनपुर की ख्याति उस समय इतनी बढ़ गयी थी कि मिस्र, अ’रब, ईरान और अफ़ग़ानिस्तान आदि देशों से बड़ी संख्या में विद्यार्थी जौनपुर का रुख़ करने लगे .
इब्राहीम शर्क़ी, महमूद शाह, मुहम्मद शाह तथा हुसैन शाह सभी ने ज्ञान और कलाओं पर इतना ध्यान दिया कि थोड़े ही समय में जौनपुर अपनी इ’मारतों, मंदिरों, मस्जिदों, मदरसों, ख़ानक़ाहों,आ’लिमों , सूफ़ियों और भक्तों के लिए अन्य प्रदेशों में प्रसिद्ध हो गया.हुसैन शाह शर्क़ी स्वयं एक नायक था, उसने अनेक रागों और ख़याल का आविष्कार किया था
सूफ़ी, विद्वान् तथा विद्यार्थी शहर के अलग अलग क्षेत्रों में जीवन व्यतीत कर रहे थे.इनमें अधिकतर ऐसे लोग थे जो इ’राक़, अ’रब और ईरान से आकर भारत में बस गए थे .यहाँ सूफ़ियों और विद्वानों की चौदह सौ पालकियां एक साथ निकला करती थी और लोग जुमा’ एवं बकरा ई’द के दिन इनका दर्शन करते थे. ये लोग राजनीति से बिलकुल अलग थे और राजदरबार से कोई सम्बन्ध नहीं रखते थे
मुल्ला मुहम्मद अस्फ़हानी का कथन है कि यहाँ सैकड़ों मदरसे, ख़ानक़ाहें, और मस्जिदें निर्मित हुईं. सूफ़ी संत यहाँ दूर दूर के देशों से आए और उनके लिए वज़ीफ़े और जागीरें तय हुईं.जौनपुर का स्थान मुग़लों के समय तक बड़ा महत्वपूर्ण रहा. शाहजहाँ के शासन काल में अहमदाबाद, दिल्ली, जौनपुर शिक्षा के ऐसे केद्र थे कि यहाँ भारत के बाहर हेरात, अफ़ग़ानिस्तान आदि से लोग शिक्षा हेतु आया करते थे .
सिकंदर लोदी की विनाश लीला ने जौनपुर की उन्नति को तहस नहस कर दिया. इस के बाद जौनपुर के इस स्वर्णिम सूफ़ी अध्याय का मानो अंत हो गया और धीरे धीरे इस शहर ने अपना वह अद्वितीय गौरव भी खो दिया. आज भी जौनपुर में कई महान सूफ़ी संतों की दरगाहें और ख़ानक़ाहों के अवशेष हमें जौनपुर के उस गौरवमयी अतीत की याद दिलाते हैं
हज़रत क़ाबुद्दीनज़ी शहाबुद्दीन
अमीर तैमूर के समय मौलाना ख़्वाजगी ने दिल्ली का परित्याग कर दिया और उनके साथ क़ाज़ी शहाबुद्दीन भी चले आये. मौलाना ख़्वाजगी ने कालपी में निवास किया और आप सुलतान इब्राहीम शर्क़ी के बुलावे पर जौनपुर चले आये. सुल्तान ने आप का ख़ूब आदर सत्कार किया और सभा में बैठने के लिए चांदी की कुर्सी प्रदान की. क़ाज़ी शहाबुद्दीन में फ़क़ीरी और दर्वेशी का अद्भुत संगम था. आप मौलाना ख़्वाजगी के सबसे बड़े ख़लीफ़ा थे. आप ने सैयद अशरफ़ जहाँगीर समनानी की सोहबत से भी लाभ कमाया था.
सुल्तान इब्राहीम शाह शर्क़ी आप का बड़ा मुरीद था . कहते हैं कि एक बार आप बीमार पड़े और यह ख़बर जब सुल्तान तक पहुंची तो वह आप के पास पहुँचा और उसने एक पानी का प्याला आप के सर से घुमा कर यह कहते हुए पी लिया कि हे ईश्वर ! इनपर जो बलाएं हैं वह तू मुझे दे दे और इन्हें स्वस्थ कर दे . तारीख़-ए- फ़िरिश्ता के अनुसार क़ाज़ी साहब का देहांत सन 1446 ई. में हुआ . आप के देहांत के दो साल पहले ही बादशाह का निधन हो गया .
क़ाज़ी शहाबुद्दीन जौनपुर में मोहल्ला रिज़वी खाँ में रहते थे . मृत्यु के पश्चात इन्हें मोहल्ला रिज़वी खाँ में अटाला मस्जिद के दक्षिणी द्वार के पास दफ़्न किया गया. आप की मज़ार राज कॉलेज के घेरे के भीतर स्थित है
- मख़दूम ख्व़ाजा शैख़ अ’बुल फ़त्ह सोंबरी
जौनपुर आने के बहुत दिनों बा’द तक आप एक छायादार दीवार के पास रहकर ज़िक्र -ओ -मुराक़बा में तल्लीन रहते थे. खाने पीने का कोई प्रबंध न होने के कारण प्रायः कमज़ोरी का एहसास होता और हाथ पैर कांपने लगते थे. आप के घर वालों और मुरीदों ने आप के रहने का प्रबंध करना चाहा पर आप ने मना’ कर दिया . कुछ दिनों बा’द आप ने अपने निवास स्थान और ख़ानक़ाह का निर्माण करवाया. गंज -ए -अर्शदी में एक वाक़िआ’ आया है – एक दिन क़व्वाल आये और महफ़िल- ए –समाअ’ शुरू हुई. शैख़ झूमने लगे . आप के पास क़व्वालों को पुरस्कार में देने के लिए कुछ नहीं था .आप ने उसी हालत में ऊपर देखा और आसमान से अशर्फ़ियाँ बरसनी शुरू हो गईं. उसी दिन से आप सोंबरिस के नाम से प्रसिद्द हुए और उस स्थान का नाम सोनवर्षा पड़ गया. आप का देहांत सन 1453 ई. में हुआ और आप का मज़ार मुहल्ला सिपाह में स्थित है
- मख़दूम ख्व़ाजा ई’सा ताज चिश्ती
अर्थात – मैं अपनी गुदड़ी शाहों के अतलसी लिबास के बदले नहीं दे सकता और अपनी फ़क़ीरी को सुलैमान के राज्य के बदले भी नहीं दे सकता.मैंने अपने ह्रदय के भीतर जो दुःख और फ़क़ीरी का ख़ज़ाना एकत्र किया है उसे बादशाही भोग विलास के बदले नहीं दे सकता.मन दल्क़-ए-ख़ुद ब-अतलस-ए- शाहाँ नमी-देहममन फ़क़्र –ए- ख़ुद ब -मुल्क ए सुलैमाँ नमी-देहमअज़ रंज-ए- फ़क़्र दर दिलम गंजे कि याफ़्तमईं रंज रा ब-राहत-ए- शाहाँ नमी-देहम
आप की फ़क़ीरी का आ’लम यह था कि आप की ख़ानक़ाह में दीप तक न जलता था, जो कुछ आता था उसपर आप नज़र तक न डालते थे और संध्या तक उसे मुरीदों द्वारा ग़रीबों में बाँट दिया जाना अनिवार्य था .
आपके बारे में आस पास के लोग बताते हैं की आप एक बार बीमार पड़े तो बादशाह इब्राहिम शर्क़ी आपको इतना चाहता था की उसने दुआ की की ऐ अल्लाह इनको मेरी ज़िन्दगी दे दे और नतीजा यह हुआ की इब्राहिम शर्क़ी बीमार हुआ और इससे ताज ठीक हो गए |
शैख़ अ’ब्दुल हक़ मुहद्दिस देहलवी ने आप के देहांत का वर्ष 1468 ई. लिखा है. जौनपुर के प्रशासक जुनैद बिरलास ने बाबर के शासन काल में आप की दरगाह मोहल्ला अरजन में बनवाईi
- शैख़ वजीहुद्दीन अशरफ़ उ’र्फ़ शैख़ फ़रीद
- शैख़ मख़दूम रुकनुद्दीन सुहरवर्दी
आप में फ़क़ीरी कूट कूट कर भरी थी . कई दफ़ा’ आप ने घर की सारी चीज़ें ग़रीबों में बाँट दी .एक दिन एक क़लन्दर आया और उसने सवाल किया कि हमने सुना है कि हज़रत ने ईश्वर की याह में अपना घर लुटा दिया है अतः जो भी बचा हो वह हमें दे दो . हज़रत मख़दूम के एक मात्र पुत्र थे जिनका नाम शैख़ जलाल था. उस समय उनकी उ’म्र दस – बारह वर्ष की थी. क़लन्दर के प्रश्न को सुनकर उन्होंने अपने एक मात्र पुत्र का हाथ क़लन्दर के हाथ में दे दिया और कहा आप इसे ले जाएँ और आज से इस पर मेरा कोई हक़ नहीं है . यह समाचार जब इब्राहीम शाह के मंत्री मालिक ए’मादुल मुल्क को मा’लूम पड़ा तो वह दौड़े आये . उन्होंने पाँच सौ तनके क़लंदरों को दिए और शैख़ जलाल को अपने घर लेकर आये . उन्होंने अपनी बेटी का विवाह शैख़ जलाल से कर दिया . हर दिन लगभग एक लाख तुनका हज़रत मख़दूम के यहाँ फुतूह के रूप में आता था , जो वह फ़क़ीरों और ग़रीबों में वितरित कर देते थे . दूसरे दिन के लिए कुछ भी नहीं बचाने का सख़्त निर्देश था .
हज़रत मख़दूम का विसाल सन 1469 ई. में हुआ . आप की दरगाह गोमती तट पर मस्जिद के भीतर मोहल्ला ताड़ तला में स्थित है
- मख़दूम शैख़ मुहम्मद
बादशाह ने इस के बा’द ढूंढना प्रारंभ किया और बहुत ढूँढने के बा’द उसे ज्ञात हुआ कि एक सूफ़ी अपने कुछ सम्बन्धियों के साथ एक मैदान में ठहरे हुए हैं . इब्राहीम शाह मुहम्मद साहब की सेवा में उपस्थित हुआ और आनन फ़ानन में छप्पर का मकान तैयार करवाया गया. जैसे ही शैख़ ने परिवार सहित घर में प्रवेश किया बारिश आरम्भ हो गयी .
हज़रत का विसाल सन 1512 ई. में सिकंदर लोदी के शासन काल में जौनपुर में हुआ . आप की दरगाह मोहल्ला सिपाह में ख्व़ाजा सोंबरिस के दक्षिण में है
सैयद अ’लाउद्दीन लाजोरी
सैयद अ’लाउदीन की उम्र 100 साल से अधिक थी. यही कारण है कि आज भी बच्चों की जन्म तिथि पर आप का फ़ातिहा तिल के दाने पर दिलाते हैं क्यूंकि आप को तिल बड़ा प्रिय था.
आप ने सम्पूर्ण जीवन एकांत में व्यतीत किया. आप का विसाल सन 1472 ई. में हुआ और आप की दरगाह बलुआ घाट जौनपुर में स्थित है
- मख़दूम शाह इस्माई’ल
ऐसी मान्यता है कि आप हज़रत ख़िज़्र की संतान में से थे और आप ने उन्हीं से शिक्षा ग्रहण की. आप ने आजीवन घोर साधना की और आप का विसाल भी इसी अवस्था में हुआ . आप का मज़ार मोहल्ला मुल्ला टोले में स्थित है. मोहल्ला शाह इस्माई’ल आप ने ही आबाद किया था.
- शाह अजमेरी
- सैयद मख़दूम शाह मुहम्मद
1884 में अटाला मस्जिद से सड़क निकल रही थी पर क्यूंकि आप की समाधी बीच में थी इसलिए सड़क वहां से टेढ़ी निकाली गई . आप का देहांत महमूद शाह शर्क़ी के शासन काल के पूवार्ध में सन 1445 ई. में हुआ . अटाला मस्जिद के पूर्व में आपकी दरगाह स्थित है. प्रत्येक बृहस्पतिवार को यहाँ चादर चढ़ती है और लोग दुआ’ करते हैं
- मख़दूम बंदगी शाह लुत्फ़ुल्लाह
- शैख़ मख़दूम दानियाल
ख़ज़ीनतुल अस्फ़िया के लेखक तहरीर करते हैं कि शैख़ दानियाल हज़रत हामिद शाह मानिकपुरी के ख़लीफ़ा थे. आप को एक दिन ख़्वाजा मुइ’नुद्दीन चिश्ती का स्वप्न आया जिन्होंने आप को ख्व़ाजा ख़िज़्र को समर्पित किया. उनके एक पद में भी इस बात का ज़िक्र आता है
आप की दरगाह आप के हुज्रे के ही आँगन में हौज़ ख़ास के टीले के निकट स्थित हैजुग जुग उमर हज़रत जी ख्वाजी, हज़रत बिनती रसूल निवाजीदानियाल ज्यूँ परघट कीना, हज़रत ख्वाजा खिजिर पता दीना .
- शैख़ सदरुद्दीन साबित मदारी
आप आजीवन जंगलों में फिरते रहे. अंतिम समय में जौनपुर वापस आ गए और हज़रत क़ुतुबुल मदार के गुम्बद में मृत्यु हुई. आप का काल इब्राहीम शाह शर्क़ी से हुसैन शाह शर्क़ी के बीच का है .
- क़ाज़ी नसीरुद्दीन गुम्बदी
- मुल्ला शैख़ जैन ज़ाहिद
- हज़रत हमज़ा चिश्ती
शैख़ हमजज़ा चिश्ती को ईश्वर ने बड़ी शक्ति प्रदान की थी .कहते हैं कि स्वप्न में हज़रत अ’ली ने आप को बड़ा बल प्रदान किया था. यही कारण है कि कुश्ती लड़ने वाले पहलवान आप में बड़ी श्रद्धा रखते हैं . आप का देहांत सन 1567 ई. में अकबर के शासन काल में हुआ. आप की दरगाह शहर से थोड़ी दूरी पर ग्राम विशेषपुर में स्थित है
- हज़रत क़ुतुबुद्दीन बीना-ए- दिल क़लन्दर
मख़दूम सैयद नजमुद्दीन क़लन्दर सन 1422 ई. में इब्राहीम शाह के काल में जौनपुर आये और सुरहुर पुर में निवास कर आप को अपना मुरीद किया. क़लन्दर साहब ने आप को अपना ख़लीफ़ा नियुक्त किया और ख़िरक़ा प्रदान किया. ‘मनाक़िब –ए-क़लन्दरिया’ के अनुसार – सैयद ग़ौस धार क़क़लंदर जिस वर्ष सुलतान इब्राहीम शाह शर्क़ी ने कंतित दुर्ग पर्वत पर दुर्ग बनाया और उसका नाम जन्नाताबाद रखा, सुरहुर पुर पधारे. जब मांडू पर्वत का पक्का निश्चय कर लिया तब जौनपुर पधारे और तेरह दिन क़ाज़ी अरशद के यहाँ निवास किया. आ’रिफ़ नामक व्यवसायी जो मांडू जा रहे थे उन्होंने हज़रत ग़ौस धार का सामान अपने साथ ले लिया और हज़रत के साथ मांडू की यात्रा की .हज़रत क़ुतुब बीनाये दिल क़लन्दर ने कुछ दिनों तक साधना करने के पश्चात सुरहुर पुर से जौनपुर जाने का निश्चय किया. रास्ते में सोंगर नाम का एक बड़ा मनभावन स्थान आया इसलिए वहीं रुक गए और एक हुज्रा बना कर ज़िक्र- ए – ग़ौसिया और दायरा-ए- हू के काम में लाग गए .
इसी काल में शैख़ अ’ब्दुल्ला शत्तारी हिन्दुस्तान पधारे . वह जिस सूफ़ी से मिलते उन से तीन प्रश्न पूछते थे और जवाब न देने पर उसे झूठा सूफ़ी बता कर आगे बढ़ जाते थे . जब शत्तारी साहब जौनपुर पधारे तो हज़रत क़ुतुब के ख़लीफ़ा हज़रत दाउद सरमस्त क़लन्दर एक दिन उनसे मिलने पहुंचे. दरबानों ने उन्हें बहुत रोका मगर वह नहीं माने और कीचड़ सने क़दमों से शत्तारी साहब के निकट आ कर बैठ गए. शत्तारी साहब को बड़ा क्रोध आया और उन्होंने कहा – कोई अशिष्ट आदमी ईश्वर तक नहीं पहुँच सकता. इसपर दाउद साहब ने फ़रमाया – कोई अशिष्ट व्यक्ति ईश्वर तक नहीं पहुँच सकता मगर जब प्रेम हो तो अशिष्टता कहाँ ? शत्तारी साहब ने पूछा – किस से निस्बत है ? आप ने जवाब दिया – हज़रत क़ुतुब बीना-ए- दिल का तुच्छ सेवक हूँ . इसके बा’द अब्दुल्लाह शत्तारी हज़रत क़ुतुब साहब की सेवा में प्रस्तुत हुए और पूछा – सत्य और संसार में क्या अंतर है ? आप ने शाह नसीरुद्दीन क़लन्दर की ओरर संकेत करते हुए बताया कि इस प्रश्न का उत्तर ये देंगे . शाह नसीरुद्दीन ने फ़रमाया – सत्य और संसार में ऐसा ही सम्बन्ध है जैसे ताक़ और दीवार में है . अ’ब्दुल्लाह शत्तारी संतुष्ट होकर वापस लौट गए .
मनाक़िब –उल- अस्फ़िया में लिखा है – एक दिन क़ुतुब बीना-ए- दिल क़लन्दर सुल्तान इब्राहीम शाह शर्क़ी के साथ थे . बादशाह ने कहा कि सुफ़ियों को दुर्बल होना चाहिए और इस के उलट आप मोटे हैं . आप ने फ़रमाया – मेरा मोटापा मेरी असावधानी नहीं है. आप का देहांत सन 1519 ई. में हुआ . आप की दरगाह जेल के बाहर मोहल्ला अल्लनपुर में स्थित है जिस से लोग लाभान्वित होते है
- शाह मख़दूम सैयद कलां
- मख़दूम शाह अ’ब्दुल क़ुद्दूस क़लन्दर
आप की मृत्यु सन 1648 ई. में हुई और आप मोहल्ला जोगियापुर में दफ़्न हुए
- मख़दूम दीवान अ’ब्दुर्रशीद
आप ने अपना मूल निवास बरौना छोड़ कर जौनपुर में अपनी ख़ानक़ाह का निर्माण किया और अपने मुर्शिद की आज्ञानुसार उपदेश देना शुरूअ’ किया.आप ने कई रचनायें भी की है .
सन 1672 में आप का देहांत हुआ. आप की मृत्यु उस समय हुई जब आप प्रातः काल की नमाज़ पढ़ते समय सज्दे में झुके हुए थे . आप की दरगाह रशीदाबाद में है. रशीदाबाद का नाम भी आप के नाम पर ही पड़ा है
- ए’वज़ अ’ली शाह पीर दमकी
- शम्सुल हक़ बड़े हक़्क़ानी
कहते हैं कि एक बार आप के यहाँ आयोजित होने वाली महफ़िल–ए- समाअ’ में क़व्वाल ने वियोग का एक कलाम पढ़ा. आप झूमने लगे और झूमते झूमते बेहोश हो गए . लोगों ने समझा कि आप का देहांत हो गया. स्रोतागण आप के स्वाभाव के परिचित थे, उन्होंने क़व्वाल से कहा कि अब तुम ऐसा कलाम पढ़ो जो महबूब के विसाल से सम्बंधित हो . क़व्वालों ने ऐसा ही किया और कुछ ही पलों में शैख़ को होश आ गया. आप का देहांत हुमायूं बादशाह के शासन काल में सन 1547 ई. में हुआ . आप की दरगाह मोहल्ला पुराना बाज़ार जौनपुर में स्थित है
- शैख़ बहाउद्दीन चिश्ती
आप की गणना जौनपुर के प्रसिद्ध सूफ़ियों में होती है .आप क़ाज़ी हमीदुद्दीन नागौरी के वंशज थे . आप शैख़ मुहम्मद ई’सा के मुरीद थे और सैयद राज़-ए- हामिद शाह से आप को ख़िलाफ़त मिली थी .
एक बार शैख़ हुसैन गुजराती नामक एक सूफ़ी मुहम्मद ई’सा जौनपुरी से मिलने जौनपुर तशरीफ़ लाए. उन्हें किमियागरी आती थी . जब उन्होंने देखा कि एक नौजवान फ़क़ीरी में जीवन व्यतीत कर रहा है तो वह बहाउद्दीन साहब को जंगल लेकर गए और उन्हें कीमियागरी सिखा दी और फ़रमाया अब जब चाहो सोना बना लेना . शैख़ बहाउद्दीन ने फ़रमाया मुझे दुसरे कीमिया की तलाश है .शैख़ हुसैन उनके इस सादे दृष्टिकोण से बड़े प्रभावित हुए . इसी समय शैख़ हुसैन ने हज़रत ई’सा से ख़िलाफ़त प्राप्त की और वापस गुजरात चले गए . शैख़ हुसैन की वापसी के पश्चात शैख़ ई’सा के मुरीद हो गए और उनके ख़लीफ़ा हुए . मृत्यु के समाय हज़रत ई’सा ने फ़रमाया कि तुम्हें सूफ़ियों का ख़िरक़ा हामिद से मिलेगा जो मानिकपुर में रहते हैं .कुछ ही दिनों बा’द सैयद राज़-ए- हामिद शाह जौनपुर पधारे और उन्होंने ख़िलाफ़त का ख़िरक़ा शैख़ बहाउद्दीन को पहनाया .
शैख़ बहाउद्दीन का विसाल सन 1540 ई. में हुआ और आप की दरगाह मोहल्ला शाह अढहन जौनपुर में मौलवी इमाम हुसैन के घर में है
- मख़दूम शाह अढहन चिश्ती
- मख़दूम शाह कबीर सुहरवर्दी
आप मख़दूम जहाँगीर के पुत्र तथा उन्ही के मुरीद थे . गंज- ए- अर्शदी के लेखक तहरीर करते है – मैंने शैख़ नासिर और दुसरे प्रमुख लोगों से सुना है कि हज़रत मख़दूम के शरीर का प्रत्येक अंग पृथक होकर साधना करता है . सन 1554 ई. में आप का देहांत हुआ. आप की दरगाह मुहल्ला ताड़ तला में पत्थर की मस्जिद के दरवाज़ के पूर्व में स्थित है .
- बंदगी शैख़ फ़ख़्रुद्दीन फ़ख्र -ए –आ’लम सुहरावर्दी
- शाह फ़ज़्लुल्लाह मदारी
- मख़दूम बदरुल-हक़ मुहम्मद अरशद
आप के यहाँ हिन्दू और मुसलमानों की भीड़ लगी रहती थी . आप का देहांत सन 1731ई . में हुआ और आप की दरगाह रशीदाबाद में है
- मीर मुहम्मद ताहिर तेज़रौ
आप का देहांत सन 1637 ई. में हुआ. आप की दरगाह ख़ास हौज़ के टीले के पश्चिम में स्थित है
शैख़ आ’रिफ़ शेर सवार
आप शैख़ बुख़ारी की संतान में से थे. जब भी आप क़व्वाली सुनते, आत्मविभोर हो जाते थे . संगीत में इतने लीन हो जाते थे कि अपना ध्यान भी नहीं रहता था .प्रायः जंगलों और पर्वतों की ओर निकल जाते थे. कभी लोगों को शेर की सवारी करते दिखाई पड़ते थे . आप बाद में जौनपुर आ गए और यहीं बस गए . यहीं आप का देहांत भी हुआ . आप की दरगाह जौनपुर से प्रयागराज जाने वाली सड़क पर पोखरियापुर में है .- मीर हयात तेज़ क़दम
- मुल्ला नासिर मदारी
- मुल्ला नूर मुहम्मद मदारी
- मुल्ला नुरुद्दीन मदारी
सन 1664 में आप का देहांत हुआ . आप की दरगाह डाकघर के पीछे ख़ानक़ाह मदरिया के पास स्थित है
- मुफ़्ती सैयद अ’ब्दुल बक़ा
कहते हैं कि एक बार रोम के बादशाह ने एक किताब शाहजहाँ के पास भेजी जो बड़ी अनमोल थी . यह पुस्तक जब हिंदुस्तान पहुंची तो पाया गया कि रास्ते में इसके कुछ पन्ने क्षतिग्रस्त हो गए हैं . शाह जहाँ ने इस पुस्तक को संशोधन हेतु मुफ़्ती अ’ब्दुल बक़ा के पास भेजा. जब छः महीने बीत गए तो दरबार से अनुरोध शुरूअ’ हो गया .आप ने अपने हुज्रे में किताब को ढूंढा मगर किताब कहीं नहीं मिली . मुफ़्ती साहब ने यह किताब जब आई थी उसी समय इसे पढ़ लिया था अतः आपने अपनी याददाश्त के बल पर दूरी किताब तैयार कर दी और दरबार में भिजवा दी . दरबार में किसी को पता नहीं चल पाया कि यह मूल पुस्तक है या नहीं .
मुफ़्ती साहब का देहांत जौनपुर में हुआ और इनकी दरगाह मुफ़्ती मोहल्ला में स्थित है
- लुक्का शाह
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जौनपुर में तुग़लक़ काल से मुग़ल काल तक की ख़ानक़ाहें
फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ के शासनकाल की ख़ानक़ाहें
- ख़ानक़ाह क़िला फ़िरोज़ शाह . सज्जादानशीन – हज़रत मख़दूम शैख़ अ’ली
- मुल्ला क़ाज़ी ख़लीलुल्लाह.- आप की ख़ानक़ाह दरीबा में थी .
- ख़ानक़ाह मख़दूम मुल्ला नुरुद्दीन हरवी – मोहल्ला फ़िरोज़ शाहपुर में ख़ानक़ाह थी.
- हज़रत मख़दूम मुल्ला निजामुद्दीन – मोहल्ला फ़िरोज़ शाहपुर में ख़ानक़ाह थी
- शैख़ुल मुल्क मुबारक ख़ैर मुहम्मदी – मोहल्ला फ़त्तुपुर सिपाह में ख़ानक़ाह थी
- मुल्ला याक़ूब समरकंदी – मोहल्ला आदमपुर में ख़ानक़ाह थी
शर्क़ी शासन काल की ख़ानक़ाहें
- ख़ानक़ाह हज़रत मख़दूम क़ुतुब बीना-ए- दिल क़लन्दर – मोहल्ला अल्लान्पुरा –वर्तमान शेख़पुरा
- ख़ानक़ाह मुहम्मद शाह – मोहल्ला मियांपुर
- ख़ानक़ाह क़ाज़ी नसीरुद्दीन गुम्बदी – मोहल्ला चाचकपुर
- ख़ानक़ाह मुल्ला सदर जहाँ अजमल – मोहल्ला सिपाह
- ख़ानक़ाह अ’बुल फ़त्ह सोंबरसी – मोहल्ला सिपाह
- ख़ानक़ाह मख़दूम ई’सा ताज –मोहल्ला अरजन
- ख़ानक़ाह शैख़ अ’ली दाऊद – मोहल्ला लाल दरवाज़ा
- ख़ानक़ाह नूरुद्दीन मदारी – मोहल्ला मदार तला
- ख़ानक़ाह मीर माहिर तेज़ रौ – मोहल्ला डढ़ीयाना टोला
- ख़ानक़ाह अ’ब्दुल जलील –ताड़ तला
अकबर के शासनकाल की ख़ानक़ाहें
- ख़ानक़ाह मुल्ला महामिद – मोहल्ला शैख़ महामिद
- ख़ानक़ाह ख्व़ाजा अजमेरी – मोहल्ला अजमेरी
- ख़ानक़ाह ख्व़ाजा दोस्त – मोहल्ला ख्व़ाजा दोस्त
- ख़ानक़ाह अ’ब्दुल ग़नी – मोहल्ला सिपाह
- ख़ानक़ाह मुल्ला जमील – मोहल्ला हम्माम दरवाज़ा
- ख़ानक़ाह शाह मुज़फ़्फ़र – मोहल्ला रिज़वी ख़ान
- मख़दूम शाह अढहन – मोहल्ला शाह अढहन
- ख़ानक़ाह कबीर सुहरावर्दी- मोहल्ला ताड़ तला
- ख़ानक़ाह अ’ब्दुल बारी – मुल्ला टोला
- ख़ानक़ाह मुल्ला शम्स नूर – मोहल्ला सिपास
शाहजहाँ, आ’लमगीर, मुहम्मद शाह और शाह आ’लम के काल की ख़ानक़ाहें
- ख़ानक़ाह मुल्ला महमूद – मोहल्ला शैख़ महामिद
- ख़ानक़ाह दीवान अ’ब्दुर्रशीद – मोहल्ला मीर मस्त
- ख़ानक़ाह मौलाना रुकनुद्दीन सोहरवर्दी- मोहल्ला शाह कबीर
- ख़ानक़ाह क़ादरिया – मोहल्ला बाग़ हाशिम
- ख़ानक़ाह सनाउल्लाह – मोहल्ला तकिया जान अ’ली शाह
- ख़ानक़ाह मुफ़्ती सैयद मुबारक – मोहल्ला सिपाह
-सुमन मिश्र
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