आज जा पहुंचा वाराणसी के राजघाट स्थित १७७३ ईस्वी में मुग़ल वास्तुशिल्प से बने लाल खान में खूबसूरत मक़बरे पे जो गंगा किनारे खड़ा अपनी गंगा जमुनी तहज़ीब की मिसाल बना आज भी खड़ा है |
काशी की धरोहर में मौजूद 'लाल खां का रौजा' जिसे महाराजा बनारस ने अपने वीर सेनापति लाल खान की याद में 1773 ईस्वी में बनवाया था। वाराणसी के राजघाट इलाक़े में गंगा के तट पर मौजूद लाल खां का रौजा खुद में बनारस का इतिहास समेटे हुए है। विशालकाय चार दीवारी में घिरे इस खूबसूरत मकबरे में वीर योद्धा लाल खां और उनके परिवार के सदस्यों की मजार मौजूद हैं।
लाल खां तत्कालीन काशी नरेश के सेनापति थे और अपनी वीरता से उन्होंने काशी के विस्तार और विकास में बड़ा योगदान दिया रहा था जीवन के अंतिम दिनों में काशी नरेश ने उनसे कुछ मांगने के लिए कहा तो उन्होंने कहा कि कुछ ऐसा इंतजाम करें कि मृत्यु के बाद भी वो महल की चौखट के दीदार कर सकें। काशी नरेश ने उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए लाल खां की मृत्यु के बाद राजघाट में उन्हें दफन कराया। यहां उनका भव्य मकबरा बनवाया।
1773 में मुगल वास्तु शिल्प के अनुसार बने इस मकबरे में एक आयताकार आंगन है जिसके चारों कोने पर मीनारों के अलावा एक विशाल गुंबद है जिसे तराशे हुए पत्थरों से सज्जित किया गया है। इसी स्थान पर लाल खां के परिवार के सभी लोगों के भी मकबरे हैं उद्यान के चारों कोनों पर चार पथरीली छतरियां बनीं हैं, मक़बरे की मुख्य ईमारत को एक चौकोर चबूतरे पर बनाया गया है, मक़बरे के चारों बाहरी दरवाज़ों पर तीन मेहराब बने हैं जिनमें बीच वाला मेहराब तुलनात्मक रूप से बाकी मेहराबों से थोड़ा ऊँचा है।
मक़बरे में प्रवेश करने के लिये दक्षिण एवं पश्चिम दिशा से दो दरवाज़े बनाये गये हैं। मक़बरे के ऊपरी हिस्से में बने विशाल गुम्बद को नीले रंग खपरैल से सजाया गया है। मक़बरे के चारों कोनों पर चार छोटी छतरियां भी बनायी गयी हैं लाल खां के मकबरे से थोड़ी ही दूर पर स्थित है बनारस का एक मुग़लकालीन मोहल्ला जिसे कभी लाल खां का निवास स्थान होने के कारण "चौहट्टा लाल खां" के नाम से जाना गया। आज भी यह मोहल्ला उसी नाम से आबाद है, इस मोहल्ले से भारतीय हिंदी सिनेमा के प्रसिद्ध सितारे आमिर खान का भी एक जज़्बाती रिश्ता है क्यूंकि इसी मोहल्ले में उनका ननिहाल है जहाँ कभी उनकी माँ ने अपना बचपन बिताया था।
लाल खां, न सिर्फ एक प्रसिद्द नायब थे बल्कि एक न्यायप्रिय अफसर भी थे और उन्हें गुण्डे बदमाशों से सख्त नफरत थी। उन्होंने उस दौर में नगर में अलग अलग स्थानों पर सार्वजनिक खूँटे गड़वाये थे जिसमें वे चोरों और बदमाशों को बँधवा दिया करते थे और उन्हें कुछ दिनों के लिए वहीँ रहने देते थे। ऐसा करने से सारा शहर उन्हें देखता था और आता जाता व्यक्ति उन बदमाशों का उपहास भी करता था। इस सजा की वजह से बदमाश अपनी पहचान जाहिर होने के कारण या तो अपराध छोड़ देते थे या फिर वे नगर छोड़ कर कहीं दूर चले जाते थे। इन खूँटों के खौफ के कारण नगर में अमन चैन बना रहता था |
लगभग २ शताब्दी पूर्व लिखे गये इस शेर की तर्ज़ पर बनारस में वर्षों तक कजरी गायी जाती थी |
"ख़ुदा करे गुण्डे पकड़े जांय , लाल खां के खूँटे में जकड़े जांय।
ऐतिहासिक दस्तावेज बताते हैं कि लाल खां के जीवनकाल के दौरान काशीराज का नियंत्रण महाराजा बलवन्त सिंह के हाथ में था जिन्होंने सन्-१७३९ से १७७० ई. तक शासन किया।
काशी की धरोहर में मौजूद 'लाल खां का रौजा' जिसे महाराजा बनारस ने अपने वीर सेनापति लाल खान की याद में 1773 ईस्वी में बनवाया था। वाराणसी के राजघाट इलाक़े में गंगा के तट पर मौजूद लाल खां का रौजा खुद में बनारस का इतिहास समेटे हुए है। विशालकाय चार दीवारी में घिरे इस खूबसूरत मकबरे में वीर योद्धा लाल खां और उनके परिवार के सदस्यों की मजार मौजूद हैं।
लाल खां तत्कालीन काशी नरेश के सेनापति थे और अपनी वीरता से उन्होंने काशी के विस्तार और विकास में बड़ा योगदान दिया रहा था जीवन के अंतिम दिनों में काशी नरेश ने उनसे कुछ मांगने के लिए कहा तो उन्होंने कहा कि कुछ ऐसा इंतजाम करें कि मृत्यु के बाद भी वो महल की चौखट के दीदार कर सकें। काशी नरेश ने उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए लाल खां की मृत्यु के बाद राजघाट में उन्हें दफन कराया। यहां उनका भव्य मकबरा बनवाया।
1773 में मुगल वास्तु शिल्प के अनुसार बने इस मकबरे में एक आयताकार आंगन है जिसके चारों कोने पर मीनारों के अलावा एक विशाल गुंबद है जिसे तराशे हुए पत्थरों से सज्जित किया गया है। इसी स्थान पर लाल खां के परिवार के सभी लोगों के भी मकबरे हैं उद्यान के चारों कोनों पर चार पथरीली छतरियां बनीं हैं, मक़बरे की मुख्य ईमारत को एक चौकोर चबूतरे पर बनाया गया है, मक़बरे के चारों बाहरी दरवाज़ों पर तीन मेहराब बने हैं जिनमें बीच वाला मेहराब तुलनात्मक रूप से बाकी मेहराबों से थोड़ा ऊँचा है।
मक़बरे में प्रवेश करने के लिये दक्षिण एवं पश्चिम दिशा से दो दरवाज़े बनाये गये हैं। मक़बरे के ऊपरी हिस्से में बने विशाल गुम्बद को नीले रंग खपरैल से सजाया गया है। मक़बरे के चारों कोनों पर चार छोटी छतरियां भी बनायी गयी हैं लाल खां के मकबरे से थोड़ी ही दूर पर स्थित है बनारस का एक मुग़लकालीन मोहल्ला जिसे कभी लाल खां का निवास स्थान होने के कारण "चौहट्टा लाल खां" के नाम से जाना गया। आज भी यह मोहल्ला उसी नाम से आबाद है, इस मोहल्ले से भारतीय हिंदी सिनेमा के प्रसिद्ध सितारे आमिर खान का भी एक जज़्बाती रिश्ता है क्यूंकि इसी मोहल्ले में उनका ननिहाल है जहाँ कभी उनकी माँ ने अपना बचपन बिताया था।
लाल खां, न सिर्फ एक प्रसिद्द नायब थे बल्कि एक न्यायप्रिय अफसर भी थे और उन्हें गुण्डे बदमाशों से सख्त नफरत थी। उन्होंने उस दौर में नगर में अलग अलग स्थानों पर सार्वजनिक खूँटे गड़वाये थे जिसमें वे चोरों और बदमाशों को बँधवा दिया करते थे और उन्हें कुछ दिनों के लिए वहीँ रहने देते थे। ऐसा करने से सारा शहर उन्हें देखता था और आता जाता व्यक्ति उन बदमाशों का उपहास भी करता था। इस सजा की वजह से बदमाश अपनी पहचान जाहिर होने के कारण या तो अपराध छोड़ देते थे या फिर वे नगर छोड़ कर कहीं दूर चले जाते थे। इन खूँटों के खौफ के कारण नगर में अमन चैन बना रहता था |
लगभग २ शताब्दी पूर्व लिखे गये इस शेर की तर्ज़ पर बनारस में वर्षों तक कजरी गायी जाती थी |
"ख़ुदा करे गुण्डे पकड़े जांय , लाल खां के खूँटे में जकड़े जांय।
ऐतिहासिक दस्तावेज बताते हैं कि लाल खां के जीवनकाल के दौरान काशीराज का नियंत्रण महाराजा बलवन्त सिंह के हाथ में था जिन्होंने सन्-१७३९ से १७७० ई. तक शासन किया।
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