एक प्रसिद्ध शायर का शेर है-
"हम आह भी भरते हैं तो हो जाते हैं बदनाम,
वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होती."
शायद प्रधान मंत्री जी यही कह रहे हैं आजकल.क्योंकि चारों और से उनकी घेराबंदी जो की जा रही है किन्तु जो आज सुबह के अमरउजाला में उनका बयान पढ़ा
जिसमे उन्होंने कहा "कि जितना दोषी नहीं उससे ज्यादा दिखाया जा रहा हूँ,इस्तीफ़ा नहीं दूंगा."
बयान पसंद आया.आप सोच सकते हैं कि मैं शायद चापलूसी की राह पर चल रही हूँ सोचिये सोचने से कौन रोकता है किन्तु यदि हम ध्यान से सोचे तो हमें उनकी ये बात कि गठबंधन धर्म के कारण मजबूरी की बात में कोई झूठ नजर नहीं आएगा.आप खुद सोचिये पहले संयुक्त परिवार की प्रथा थी और उसमे करने वाला एक होता था और खाने वाले सौ.उस का ही ये नतीजा है कि आज यह प्रथा टूट चुकी है.राजनीति में ये प्रथा अभी अभी आरंभ हुई है और इसके खामियाजे अभी से ही नजर आने लगे हैं.गलत हो या सही परिवार को बनाये रखना परिवार के मुखिया की जिम्मेदारी हो जाती है और प्रधानमंत्री जी वही कर रहे हैं.
अब एक बात और ,प्रधानमंत्री जी पर सारी जिम्मेदारी डाल कर हम अपनी जिम्मेदारी से मुहं नहीं मोड़ सकते.हमारे संविधान ने हमें वोट का अधिकार दिया और हम अपने इस अधिकार का क्या इस्तेमाल करते हैं?कुछ नहीं .कहने को शिक्षित वर्ग अपने अधिकारों का अच्छी तरह इस्तेमाल कर सकता है किन्तु ये शिक्षित वर्ग ही है जो वोट के समय अपने वक़्त को कथित रूप से वोट डालने में बर्बाद नहीं करता.अपनी जरूरी मीटिंग्स करता है.घर बैठता है और अपने जितने काम "पेंदिंग्स -सूची "में होते हैं पूरे करता है और जो वर्ग कुछ नहीं जानता सिर्फ दो वक़्त की रोटी के, शराब की चसक के,भूख प्यास के वह वोट डालने जाता है और अपनी वोट बेच कर आ जाता है.मनमोहन सिंह जी जैसे काबिल नेता चुने नहीं जाते और चम्बल छोड़ नेता बने उम्मीदवार चुन लिए जाते हैं और सदन में बैठ देश का सर झुकाते हैं.मनमोहन जी जैसे नेता को राज्य सभा के जरिये सत्ता में शामिल किया जाता है और उस पर भी हम सच्चाई का साथ न दे हर समय उनकी आलोचना ढूंढते रहते हैं.और किसी को सही लगा हो या न हो पर मुझे बहुत अच्छा लगा है कि इस तरह की बातों से प्रधान मंत्री जी घबराये नहीं और इस्तीफा देने से मुकर गए.वैसे भी जो व्यक्ति देश की बागडोर सँभालते हैं उन्हें ऐसी छोटी-मोटी परेशानियों से घबराना भी नहीं चाहिए क्योंकि उनकी नजर देश के लिए ज्यादा करने की ओर रहती है.जैसी कि "अनवर हुसैन"कहते हैं-
"मौसमों की खबर नहीं रखता,
वो परिंदा जो पर नहीं रखता,
देखता हूँ मैं मंजिलों को ,
बहुत अच्छा आलेख.
जवाब देंहटाएंअगर मजबूरी है तो उसे ख़त्म करो भ्रष्टाचारियो को सहने कि क्या जरूरत
जवाब देंहटाएंशालिनी कौशिक जी आप तो बाज़ी मार ले गयीं, इस ब्लॉग की पहली पोस्ट पेश करने का शुक्रिया.
जवाब देंहटाएंभाई सही तो कह रहे हैं जनाब की "जितना दोषी नहीं उससे ज्यादा दिखाया जा रहा हूँ"
आपने सच में बहुत खुबसूरत बात कही में आपकी बात से पूरी तरह से सहमत हूँ की कहने और करने में बहुत बड़ा अंतर है जो इतने बड़े देश की बागडोर संभाल के चल रहा है तो वो आराम से बेठकर मज़े तो ले नहीं रहा होगा अब देश की तरक्की की तरफ तो नज़र जाती नहीं किसी की और बस हर कोई बुराइयों को ढूंडता नज़र आता है | अगर उन्हें राजनीती से अलग करके देखें तो वो हमारी तरह एक आम इन्सान ही तो हैं |
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लेख |
mere utsah vardhan hetu dhanyawad..
जवाब देंहटाएंचलिये हमारे प्रधानमंत्री जी ने ये तो माना कि वो कुछ तो दोषी है , शायद ऐसा कहने वाले वो पहले ही प्रधानमंत्री होंगें ।
जवाब देंहटाएंमगर क्या ही अच्छा होता कि वो यह भी बता देते कि वो कौन कौन से दोषों के दोषी है ।
और उन दोषो की क्या कोई भरपाई सम्भव है ?