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    मंगलवार, 2 फ़रवरी 2016

    सबका दर्द सुनाता पत्रकार लेकिन पत्रकारों का दर्द कौन समझेगा ?

    वास्तव में पत्रकारिता वह है जो तथ्यों की तह तक जाकर उसका निर्भिकता से विश्लेशण करती है और उसे जनता तक पहुंचाती है |जब हमारा देश गुलाम था तो हमने पत्रकारिता को निष्पक्ष और जनता की आवाज के रूप में बुलंद किया आज जब हम आज़ाद हैं तो हमारे शब्द गुलाम हो गए है क्यूंकि आज पत्रकारिता एक बड़े व्यवसाय का रूप लेती जा रही है | कभी जनता का इस पर पूर्ण विश्वाश हुआ करता था पर आज के समय में यह पूर्ण विश्वाश, अविश्वाश में परिवर्तित नजर होता आ रहा है| अभी तक हमारा परिचय मुख्यधारा की जिस कारपोरेट पत्रकारिता से है,वह अपने मूल चरित्र में राष्ट्रीय, पूंजी और विज्ञापन आधारित और वैचारिक तौर पर सत्ता प्रतिष्ठान के व्यापक हितों के भीतर काम करती रही है | आज भूमंडलीकरण के दौर की वास्तविक वैश्विक पत्रकारिता है जिसे अपने संकीर्ण बंधनों से बाहर निकलने का दु:साहस करना होगा | शायद हमारी पत्रकारिता का बदलता स्वरुप हमारे देश की आजादी और गुलामी के बीच की वो कड़ी है जो ऐसे हथकड़ी में बंध गयी है जिसकी चाभी कब मिलेगी इसका कोई पता नहीं है|




    आखिर पत्रकार कर ही क्या सकते है क्योंकि वो भी संस्थागत किसी प्रोडक्शन और किसी मीडिया हाउस में कार्य करते है, और अपने द्वारा किये गये कार्य का मेहनताना लेते है इसलिए उन्हें भी वही करना होता है जो ऊपर से निर्देश दिए जाते हैं ,क्योंकि पत्रकार तो उनके आधीन होतें हैं ,पुरानी कहावत में कहा भी गया है जिसकी लाठी उसकी की भैंस | सीमित शब्दों में कहा जा सकता है की पत्रकारिता अब असहज हो गयी है क्योंकि एक धीरे -धीरे व्यवसाय का रूप ले चुकी है| जौनपुर के एक वरिष्ट पत्रकार श्री राजेश श्रीवास्तव जी का मानना है कि जनता को भी ये आज तय करना पड़ेगा की उसे क्या पढना और कैसी खबर चाहिए ? क्यूँ की आज अखबारों में वही छपता है जो बिकता है और यकीनन खरीदने वाली तो जनता ही है | राजेश श्रीवास्तव जी ने बताया की उन्हें अच्छी तरह से याद है की एक बार बिहार में एक साथ ४० किसानो ने आत्महत्या कर ली और यह एक बड़ी खबर थी जिसे जनता तक अवश्य पहुंचना चाहिए था लेकिन इस खबर के फ़ौरन बाद एक खबर आ गयी राखी सावंत का किसी ने चुम्मा ले लिया जो की हैडलाइन बन गयी और ४० किसानो की आत्महत्या की खबर दब गयी |



    पत्रकारिता जिन पत्रकारों के दम पे चलती है हकीकत यह है की उनका दर्द कोई नहीं जान पाता | आज एक पत्रकार को सैलरी 10-१२ हज़ार से अधिक नहीं मिल पाती और दिन भर अपने खर्चे पे ख़बरों के पीछे भागता यह पत्रकार खुद नहीं जानता की उसकी भेजी कितनी खबर छपेगी या बिकेगी ,जिसका मेहनताना उसे मिलेगा | ध्यान देने की बात है की जो खबर नहीं बिकी या चैनलों या अख़बारों में नहीं चली उसके पीछे भी तो पत्रकार ने मेहनत दिन और रात का फर्क किये बिना की थी ? पत्रकार की समाज में बड़ी इज्ज़त है लेकिन जब उसका बच्चा मंहगे कोलेज में पढने की बात करता है तो वो एक बार यह अवश्य सोंचता होगा कि क्या मतलब है इस इज्ज़त का जो औलाद को बेहतर शिक्षा भी ना दिला सके |

    मैं पत्रकारों की बड़ी इज्ज़त करता हूँ क्यूँ की देश की सीमा पे पहरा देते सैनिक और देश के भीतर पहरा देते पत्रकार में बहुत सी समानताएं है |

    आपके सामने पेश है जौनपुर के वरिष्ट पत्रकार श्री राजेश श्रीवास्तव जी  से कुछ बात चीत जिन्हें सुनके आपको पत्रकारों के जीवन के बारे में बहुत कुछ जानने को मिलेगा | इसे एक बार अवश्य सुनें |.



    लेखक एस एम्  मासूम


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