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    गुरुवार, 16 अगस्त 2018

    जौनपुर के हिंदुस्तानी-ईरानी काबिले के खानाबदोश और उनकी ईरानी तहज़ीब|

    जब मैं छोटा था तो अक्सर मुहर्रम में देखा करता था कुछ खानाबदोश जौनपुर के स्टेशन पार एक इलाके में अपने तम्बू लगाए मुहर्रम मनाते थे | इन्हें उस वक़्त लोग इरानी खानाबदोश के नाम से पहचानते थे | पिछले ३० सालों में इन्होने खानाबदोशी को ख़त्म करते हुए अपने मोहल्ले बनाने शुरू कर दिए |

    ईरानी मौलाना असद अब्बास और काबिले के खलीफा जनाब जावेद साहब |
    कहा जाता है की  यह हिन्दुस्तानी -इरानी मुग़ल काल में खानाबदोश  की तरह घूमते-घूमते हिंदुस्तान की तरफ आ निकले। किसी ने कहीं डेरा जमाया, किसी ने कहीं तंबू ताना और पूरे हिन्दुस्तान में आज यह लोग देखने को मिलते हैं | इनका बच्चा चाहे अपने शहर का इतिहास न जाने लेकिन अपने इरानी नस्ल का इतिहास ज़रूर जानता है | जौनपुर के बल्लोच टोले के बाग़ ऐ  हाशिम इलाके में इनके घर बने हैं जहां जाने पे मुझे महसूस हुआ की इन्हें इस बात का एहसास है की समाज के बीच रहते हुए भी यह लोग समाज से कटे हुए रहते हैं और इसका एक बड़ा कारण है इनका इरानी तहजीब को जिंदा रखना | बाग़ ऐ  हाशिम जौनपुर में बसने की ख़ास वजह इनका मुसलमानों के शिया फिरके से जुड़ा होना है वरना पहले यह लोग जौनपुर, बनारस, दुलाहिपुर,मऊ ,आजमगढ़ के बीच घुमते  रहा करते थे |

    इन हिन्दुस्तानी -ईरानियों का पुश्तैनी काम था सौदागरी। घोड़ा बेचना। वे रईसों - नवाबों के साथ सौदा करते। थोड़े दिन एक जगह रुकते और फिर बोरिया-बिस्तर समेट कर नए सौदे की तलाश में चल पड़ते। धीरे-धीरे ईरानियों का घोड़े का व्यापार बंद हो गया। उसके बदले वे ताले, चाकू, फोटो फ्रेम, चश्मा वगैरह बेचने लगे। अब ज़्यादातर लोग कीमती पत्थरों का बिजनेस करते हैं। तरह-तरह के कीमती नग जयपुर और कलकत्ता से खरीदते हैं और उन्हें दूर-दूर तक बेचते हैं। किसी के घर में कोई मुसीबत आन पड़े, शौहर गुज़र जाए या बीमार हो जाए तभी औरत कदम कारोबार में बढ़ाती हैं।

    जावेद साहब इरानी बस्ती में |

    उनके पेशे की माँग ही यह है कि जहाँ ग्राहक मिले वहाँ जाओ। इसलिए यह बस तो गए हैं किसी ख़ास शहर में लेकिन व्यापार के सिलसिले में यहाँ वहाँ आना जाना इनका लगा रहता है  |ग्राहक पैसेवाले हों और उनके पत्थरों पर यकीन हो कि वे उनके ग्रह-नक्षत्र सुधार देंगे, यह बुनियादी जरूरत है। इस पेशे को वे इल्मे नुजूम से जोड़ते हैं। इसकी जड़ें हैं- ईरान में। यह फन बहुत पुराना है। जैसे ज्योतिष विद्या है उसी तरह है। नुजूमी की तरह ग्रह-नक्षत्र की गणना करके भविष्य बताने पर इन ईरानियों का ज़ोर नहीं रहता है। वे नगों की खुसूसियत बताते हैं और उनका व्यापार करते हैं।


    इरानी मौलाना असद अब्बास साहब ,जो खुद को जाकिर ऐ अह्लेबय्त कहते हैं , से बातचीत के दौरान पता लगा की जौनपुर की  ईरानी बस्ती में २५--२७  परिवार हैं। तकरीबन १७५-२०० आबादी होगी। इनकी शादिया अक्सर अपने जैसे इरानी जो अलग अलग इलाके में बसे हैं उनके यहाँ हुआ करती है | जैसे किशनगंज की इरानी बस्ती की बेटी नगमा की शादी जौनपुर में बसे बाग़ ऐ  हाशिम इलाके के ईरानी काबिले में हो  गयी |

    इनकी मादरी ज़बान (भाषा )  आज भी फारसी है और रस्म ओ रिवाज में भी इरानी तहजीब की झलक मिलती है | औरतों का पहनावा खानाबदोश-जिप्सी औरतों की तरह छींटदार सूती कपड़े का नीला घाघरा और गोल दामन का लंबे चाकवाला कुर्ता पहन वगैरह हुआ करता है | लेकिन अब यह पहनावा सिर्फ घर की बूढी औरतों तक ही सिमट के रह गया है बहू-बेटियाँ शलवार कुर्ते पर उतर आई हैं क्योंकि घाघरे में कपड़ा भी ज़्यादा लगता है और कोई दर्जी ढंग से सिलता नहीं। पहले औरतें सिलाई का काम खूब करती थीं, पर अब अधिकतर बाहर से सिलवाती हैं। दुपट्टे में सलमा,सितारा, गोटा खुद लगाती हैं। शलवार सूट सबके पहरावे में खप जाता है और पुराने फैशन का कोई नहीं कहलाना चाहता। अब पर्व-त्यौहार, शादी-ब्याह में भी ईरानी स्टाइल का घाघरा कोई नहीं पहनता। पहनावे वगैरह में अब इनके ऊपर हिन्दुस्तान की फिल्मो का असर देखा जा सकता है और अब इनकी शादियाँ भी कई बार अपने इरानी काबिले के बहार हो जाने लगी हैं | शायद टीवी के घर घर पहुँच जाने की वजह से ऐसा हुआ हो |

    इनके हर काबिले का एक खलीफा हुआ करता है जो इनकी ज़िन्दगी में अहम् फैसलों का मालिक भी हुआ करता है | जैसे जौनपुर के इस काबिले का खलीफा हैं जनाब जावेद साहब | जनाब जावेद साहब ने बताया की इनके यहाँ आज भी फ़ारसी बोली जाती है और जन्म लेने के बाद बच्चा जो ओःली बोली बोलता या सीखता है वो फ़ारसी हुआ करती है | इनके यहाँ शादी के वक़्त लड़के वाला रिश्ता ले के लड़की के घर जाता है और शादी का पूरा खर्च भी वही उठाता है | लड़की वाले को सिर्फ निकाह के लिए अपनी बेटी को लाने की ज़रुरत हुआ करती है | शादी के लिए इस्लाम में महर की एक रक़म लड़की को देनी लड़ती है जिसे लड़का खुद देता है लेकिन यह रक़म कितनी हो इसे लड़की खुद तय किया करती है | इनके यहाँ निकाह के फ़ौरन बाद यह रक़म इनके काबिले के खलीफा की मजुदगी में लड़का -फ़ौरन लड़की को अदा करता है और उसके बाद अपने घर ले जाता है | केवल इतना ही नहीं शादी के वक़्त कबीले का खलीफा एक रक़म जुर्माने की तय किया करता है की अगर लड़के ने लड़की पे कोई ज़ुल्म किया या उसकी ज़िम्मेदारी ठीक से नहीं उठायी तो वो रक़म उसे देनी होगी |

    आज भी इनके खाना खाने का तरीका इरानी है जिसमे यह लोग एक बड़ी सी थाल में खाना निकाल के एक साथ मिल के खातें है | ध्यान से देखें को रहन सहन, खाना पीना , पहनना ओढना , शादी ब्याह सभी में इरानी तहजीब की एक झलक सी मिलती है | यह देखने में बड़े खूबसूरत हुआ करते हैं |

    शिया मुसलमान होने के नाते ईरानी बस्ती में मोहर्रम बहुत मायने रखता है   इसलिए मुहर्रम के २ महीने 8 दिन अज़ादारी बड़े धूम से करते हैं | इरानी मातम हर इलाके में आज भी मशहूर है | 29 सफ़र से इनके यहाँ फर्श ऐ अजा बिछ जाती है और मजलिसों का दौर 13 दिन तक चलता रहता है | जौनपुर में इनकी एक अंजुमन है जिसका नाम अंजुमन ऐ ईरानिय जाफरिया  है जिसके नौहे फ़ारसी और उर्दू दोनों पे पढ़े जाते हैं | 10 मुहर्रम ashoora के रोज़ इनकी अंजुमन नौहा मातम करते हुए सदर इमामबाड़े में ताजिया दफन करते हैं | इनके यहाँ ताजिये से ज्यादा अलम और तुर्बत सजाने पे ज़ोर दिया जाता है | जौनपुर कहती लाइन के इमामबाड़े के इलाके में एक साल का मुअज्ज़ा बहुत मशहूर है जिसके बाद ही यह इमामबाडा बना है | यह मुअज्ज़ा इन्ही इरानी काबिले के तम्बुओं के पास हुआ था और उस वक़्त इनका नौहा मातम देखने के काबिल था | अज़ादारी और मजलिस ऐ हुसैन , ज़िक्र ऐ हुसैन में यह बहुत ही बढ़ चढ़ के हिस्सा लिया करते हैं |


    मिला जुला के देखने में आया है की यह हिन्दुस्तानी -इरानी अभी भी इरानी तहजीब को अपने आप में समेटे हुए हैं लेकिन नए ज़माने के दौर में इनकी इस तहजीब के खो जाने का डर कबीले  के हर बुज़ुर्ग की निगाहों में देखा जा सकता है |


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